शनिवार, 13 सितंबर 2014

सर्वदेवमयी गौ

गौ देवी सम्पदाकी प्रथम निधि है । यह व्यक्ति को स्वावलम्बन प्रदान करती है । व्यक्ति के पास प्रकृति-प्रदत शरीर तो है ही और भूमी पर वह जन्म लेता है, अतः व्यक्ति अपने शरीर तथा थोड़ी-सी भूमि के साथ बस देवविग्रह स्वरूप एक गौ रख ले तो फिर उसे अपने जीवनयापन सार्थक जीवनयापन हेतु किसी अन्य सहारे की आवश्यकता नहीं है । वह अपना सम्पूर्ण जीवन आराम से परमधर्म 'परोपकार' करते हुए भव बन्धन से मुक्त रहकर मुक्तिभाक,हो जाता है।
गौ का गोरस-दूध,दही, मटठा, घी, मलाई आदि अनेक पदार्थो के रूप में तथा विविध रसों से व्यक्ति की क्षुधा शान्त कर सकता है । गोमूत्र उसे आधि-व्याधि से दूर रख सकता है ।गोबर उसे शुचित के साथ-साथ अग्नि तथा भोज्य पदार्थ के पाचन का साधन, उसकी भूमी को उर्वराशक्ति प्रदान कर सकता है और उसकी संततियां उसके लिये तमाम आवश्यकता वस्तुएं सुलभ कराने में निरन्तरता प्रदान करने के साथ -साथ उसके लिये आवश्यक होने पर वाहन की व्यवस्था भी प्रदान कर सकती हैं । इस प्रकार गौ सर्वार्थसिध्दी का एक सम्पूर्ण साधन तथा भारतीय संस्कृति का मूलधार है, भारतीय दर्शन का आध्यात्मिक मूल है।
गोधन से धनी व्यक्ति के लिये 'परोपकार' कोई अतिरिक्त साधन नहीं रह जाती है, क्योंकि एक गाय जितनी सामग्री प्रदान करती है वह व्यक्ति अकेले अपने निज के प्रयोग में खर्च नहीं कर सकता है। वह यदि किसी समष्टि के साथ है तो उसे वह दूसरों को देना ही पड़ेगा। यही तो परोपकार है। गाय रखने तथा उसकी सेवामा़त्र से ही परोपकारा की साधना स्वयमेव सिध्द हो जाती है। गोमाता व्यक्ति को अपरिग्रही परोपकारी बना देती है।
जीव के इतने महान,पुरूषार्थ की साधिका होने के बाद भी गौ का स्वरूप स्वयं में कितना शान्त, कितना निश्चिन्त, कितना सौम्य तथा कितना प्रसन्न होता है उसे देखकर ही व्यक्ति का चित शान्त और प्रफुल्लित हो उठता है। गौओं की स्वाभविक चाल में एक अजीब-सा मोहक गाम्भीर्य होता है जो कि हमें बिना आतुर हुए अपने कार्यो को पूर्ण करने की प्रेरणा प्रदान करता है।
गौ और पृथ्वी एक-दूसरे के पूरक हैं। पृथ्वी जीवों का आधार है और जीवों का जीवनाधार है। इस प्रकार गौ और पृथ्वी का तादात्म्य है। गौ के गोबर तथा मूत्र पृथ्वी की उर्वराशक्ति की अभिवृध्दी करते हैं और यह अभिवृध्दी भी स्वाभाविक होती है। इसमें स्थायित्व एवं निरन्तरता होती है । अतः यह पृथ्वी को अत्यन्त प्रिय होता है। पुराणों तथा शास्त्रों गौ को पृथ्वी का जीवन्त रूप माना गया है ।
गौ की प्रकृति, उसके द्वारा प्राप्त नैसर्गिक एवं स्वाभाविक स्वावलम्बन, उसका पृथ्वी के साथ तादात्म्य तथा उसके सौम्यादि गुणों के खान होने के कारण ही भारतीय मनीषी, समाज एवं संस्कृति में गौ का इतना महत्व है और इसे सभी दृष्टि से संरक्षणीय माना गया हैं। गौ की प्रकृति एवं स्वरूंप का तात्विक विवेचन तथा उसका अनुशीलन हमारे अध्यात्म के रहस्य का भेदन करने में सार्थक माध्यम बनाता है और हम सृष्टि की प्रक्रिया को उसकी पूर्णता में सक्षम होते हैं ।
अध्यात्म को यदि थोड़ी देर के लिये छोड़ भी दें तो भी आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टि से गौ का हमारे जीवन में बहुत महत्व है । विज्ञान की चरमोत्मर्क की अवस्था में भी व्यक्ति निज में अत्यन्त अपूर्ण होता है, किंतु गौ का सांनिध्य हमें बरबस पूर्णता प्रदान करता है जो कि सामाजिक दर्शन की मूलभूत अवधारणा है।


                          अली मोहम्मद पड़िहार