गुलज़ार
(1)
ये कैसी उम्र में आकर मिली हो तुम – गुलज़ार
ये कैसी उम्र में आकर मिली हो तुम .!
बहुत जी चाहता है .. फिर से बो दूँ अपनी आंखें
तुम्हारे ढेर सारे चेहरे उगाऊं ,, और बुलाऊँ बारिशों को
बहुत जी है कि फुर्सत हो ... तसब्बुर हो ..!
तसब्बुर में थोड़ी बागवानी हो..!!
मगर जानां....
इक ऐसी उम्र में आकर मिली हो तुम
किसी के हिस्से कि मिटटी नहीं हिलती
किसी के धूप का हिस्सा नहीं छनता
मगर क्या क्यारी के पौधे पास अपने
अब किसी को पाँव रखने के लिए भी थाह नहीं देते
ये कैसी उम्र में आकर मिली हो तुम?
(2)
साँस लेना भी ..
साँस लेना भी .. कैसी आदत है ..
जीये जाना भी .. क्या रवायत है ..
कोई आहट नहीं बदन में कहीं..!
कोई साया नहीं है .. आँखों में,
पाँव बेहिस हैं, चलते जाते हैं ..
इक सफ़र है .. जो बहता रहता है ..
कितने बरसों से, कितनी सदियों से ..
जिये जाते हैं.. जिये जाते हैं ..!!
आदतें भी अजीब होती हैं...
(3)
सितारे लटके हुए हैं .. तागों से आस्माँ पर
चमकती चिंगारियाँ-सी चकरा रहीं आँखों की पुतलियों में,,
नज़र पे चिपके हुए हैं .. कुछ चिकने-चिकने से रोशनी के धब्बे
जो पलकें मुँदूँ तो चुभने लगती हैं .., रोशनी की सफ़ेद किरचें..!
मुझे मेरे मखमली अंधेरों की गोद में डाल दो .. उठाकर
चटकती आँखों पे घुप अंधेरों के फाये रख दो ..
यह रोशनी का उबलता लावा न अन्धा कर दे।
(4)
तुम गये तो और कुछ नही हुआ…
तुम गये तो और कुछ नही हुआ
दिल पे ऐत्बार घट गया मेरा
में जो दिल के पीछे उसके नक्शे पाअ के पांव रखके चलता था
चलते चलते देखा तो निशान खत्म हो गये
तुम गये तो और कुछ नही हुआ
दिल पे ऐत्बार घट गया मेरा !!
(6)
रिश्ते बस रिश्ते होते हैं
कुछ इक पल के
कुछ दो पल के
कुछ परों से हल्के होते हैं
बरसों के तले चलते-चलते
भारी-भरकम हो जाते हैं
कुछ भारी-भरकम बर्फ़ के-से
बरसों के तले गलते-गलते
हलके-फुलके हो जाते हैं
नाम होते हैं रिश्तों के
कुछ रिश्ते नाम के होते हैं
रिश्ता वह अगर मर जाये भी
बस नाम से जीना होता है
बस नाम से जीना होता है
रिश्ते बस रिश्ते होते हैं
(7)
मैं अपने घर में ही अजनबी हो गया हूँ आ कर
मैं अपने घर में ही अजनबी हो गया हूँ .. आ कर
मुझे यहाँ देखकर .. मेरी रूह डर गई है..,
सहम के सब आरज़ुएँ कोनों में जा छुपी हैं
लवें बुझा दी हैं .., अपने चेहरों की ,, हसरतों ने
कि शौक़ पहचनता ही नहीं,,''
मुरादें दहलीज़ ही पे सर रख के मर गई हैं
मैं किस वतन की तलाश में यूँ चला था घर से
कि अपने घर में भी अजनबी हो गया हूँ .. आ कर
(8)
मेरे रौशनदान में बैठा एक कबूतर
मेरे रौशनदार में बैठा एक कबूतर
जब अपनी मादा से गुटरगूँ कहता है
लगता है मेरे बारे में, उसने कोई बात कही।
शायद मेरा यूँ कमरे में आना और मुख़ल होना
उनको नावाजिब लगता है।
उनका घर है रौशनदान में
और मैं एक पड़ोसी हूँ
उनके सामने एक वसी आकाश का आंगन
हम दरवाज़े भेड़ के, इन दरबों में बन्द हो जाते हैं
उनके पर हैं, और परवाज़ ही खसलत है
आठवीं, दसवीं मंज़िल के छज्जों पर वो
बेख़ौफ़ टहलते रहते हैं
हम भारी-भरकम, एक क़दम आगे रक्खा
और नीचे गिर के फौत हुए।
बोले गुटरगूँ…
कितना वज़न लेकर चलते हैं ये इन्सान
कौन सी शै है इसके पास जो इतराता है
ये भी नहीं कि दो गज़ की परवाज़ करें।
आँखें बन्द करता हूँ तो माथे के रौशनदान से अक्सर
मुझको गुटरगूँ की आवाज़ें आती हैं !!
(9)
वक़्त को आते न जाते न गुज़रते देखा
वक़्त को आते न जाते न गुजरते देखा
न उतरते हुए देखा कभी इलहाम की सूरत
जमा होते हुए एक जगह मगर देखा है
शायद आया था वो ख़्वाब से दबे पांव ही
और जब आया ख़्यालों को एहसास न था
आँख का रंग तुलु होते हुए देखा जिस दिन
मैंने चूमा था मगर वक़्त को पहचाना न था
चंद तुतलाते हुए बोलों में आहट सुनी
दूध का दांत गिरा था तो भी वहां देखा
बोस्की बेटी मेरी ,चिकनी-सी रेशम की डली
लिपटी लिपटाई हुई रेशम के तागों में पड़ी थी
मुझे एहसास ही नहीं था कि वहां वक़्त पड़ा है
पालना खोल के जब मैंने उतारा था उसे बिस्तर पर
लोरी के बोलों से एक बार छुआ था उसको
बढ़ते नाखूनों में हर बार तराशा भी था
चूड़ियाँ चढ़ती-उतरती थीं कलाई पे मुसलसल
और हाथों से उतरती कभी चढ़ती थी किताबें
मुझको मालूम नहीं था कि वहां वक़्त लिखा है
वक़्त को आते न जाते न गुज़रते देखा
जमा होते हुए देखा मगर उसको मैंने
इस बरस बोस्की अठारह बरस की होगी
(10)
टुकड़ा ..
छोटा सा शीशे का टुकड़ा
घास के अन्दर छुप के बैठा
मेरी आँख पे सूरज मार के ख़ुश होता है, हँसता है
सूरज ख़ुश है,
छोटा सा शीशे का टुकड़ा
घास में रख के खेल रहा है
मेरी आँख पे छींटे मार के छेड़ रहा है
आँख पे एक हथेली रख के
मैं फ़ौरन दोनों की आँखों से ओझल हो जाता हूँ
उँगलियों की झिर्रियों से वो दोनों झाँक के
मुझको ढूँढने लगते हैं
और मैं आँखें बंद किये
तेरी गोद में सर रख के छुप जाता हूँ!
क़ायनात से आँख मिचोली खेल रहा हूँ!!
(11)
खाली समन्दर ..
उसे फिर लौट के जाना है, ये मालूम था उस वक़्त भी जब शाम की –
सुर्खोसुनहरी रेत पर वह दौड़ती आई थी ....
और लहरा के –
यूं आग़ोश में बिखरी थी ... जैसे पूरे का पूरा समंदर –
ले के उमड़ी है ..!!
उसे जाना है ... वो भी जानती थी,
मगर हर रात फिर भी हाथ रख कर चाँद पर खाते रहे कसमे ,,,
ना मैं उतरूँगा अब …
(12)
देर आयद
आठ ही बिलियन उम्र ज़मीं की होगी शायद
ऐसा ही अंदाज़ा है कुछ ‘साईन्स’ का
चार अशारिया छ: बिलियन सालों की उम्र तो
बीत चुकी है
कितनी देर लगा दी तुम ने आने में
और अब मिल कर
किस दुनिया की दुनियादारी सोच रही हो
किस मज़हब और ज़ात और पात की फ़िक्र लगी है
आओ चलें अब
तीन ही ‘बिलियन’ साल बचे हैं!
(13)
कुछ देर तक......
कुछ देर तक...... कुछ दूर तक.......... तो साथ चलो..........
माना जिंदगी है तनहा सफ़र..... इल्तजा यही है जाने जिगर
मुझको फ़िक्र है आगाज़ की..... देखो ना सपना अंजाम का..... सदियों की बेताबियाँ खत्म हो.... इक पल मिले जो आराम का............
रहता नहीं संग कोई सदा...जाने वफ़ा है मुझको पता ... दो चार लम्हा रहो तुम रूबरू..... दिल तुमसे कहना यही चाहता ......
कुछ देर तक...... कुछ दूर तक.......... तो साथ चलो................
माना जिंदगी है तनहा सफ़र..... इल्तजा यही है जाने जिगर
कुछ देर तक...... कुछ दूर तक.......... तो साथ चलो..........
साथ चलो..........
कुछ देर तक...... कुछ दूर तक.......... तो साथ चलो....
(14)
हमें पेड़ों की पोशाकों से इतनी सी ख़बर तो मिल ही जाती है..
बदलने वाला है मौसम…
नये आवेज़े कानों में लटकते देख कर कोयल ख़बर देती है
बारी आम की आई…!
कि बस अब मौसम-ऐ-गर्मा शुरू होगा
सभी पत्ते गिरा के गुल मोहर जब नंगा हो जाता है गर्मी में
तो ज़र्द-ओ-सुर्ख़, सब्ज़े पर छपी, पोशाक की तैयारी करता है
पता चलता है कि बादल की आमद है!
पहाड़ों से पिघलती बर्फ़ बहती है धुलाने पैर ‘पाइन’ के
हवाएँ झाड़ के पत्ते उन्हें चमकाने लगती हैं
मगर जब रेंगने लगती है इन्सानों की बस्ती
हरी पगडन्डियों के पाँव जब बाहर निकलते हैं
समझ जाते हैं सारे पेड़, अब कटने की बारी आ रही है
यही बस आख़िरी मौसम है जीने का, इसे जी लो !
(15)
शाख़ पे बैठी मीना..
शहतूत की शाख़ पे बैठी मीना
बुनती है रेशम के धागे
लमहा-लमहा खोल रही है
पत्ता-पत्ता बीन रही है
एक-एक साँस बजाकर सुनती है सौदायन
एक-एक साँस को खोल के, अपने तन
पर लिपटाती जाती है
अपने ही तागों की क़ैदी
रेशम की यह शायर इक दिन
अपने ही तागों में घुटकर मर जाएगी।
(16)
दिन कुछ ऐसे गुज़ारता है कोई
जैसे एहसान उतारता है कोई
आईना देख के तसल्ली हुई
हम को इस घर में जानता है कोई
पक गया है शज़र पे फल शायद
फिर से पत्थर उछालता है कोई
(17)
इक हसीं निगाह का मुझ पे साया है ़..
जादू है जूनून है कैसी माया है....ये माया है ...
तेरी नीली आँखों के भंवर बड़े हसीन हैं
डूब जाने दो मुझे ..ये खाव की ज़मीन है
उठा दो अपनी पलकों किओ ये पर्दा क्यूँ गिराया है
(18)
और फिर यूँ हुआ, रात एक ख्वाब ने जगा दिया
और फिर यूँ हुआ, रात एक ख्वाब ने जगा दिया
फिर यूँ हुआ चाँद की वो डली घुल गयी
और यूँ हुआ, ख्वाब की वो लड़ी खुल गयी
चलती रही बेनूरियां, चलते रहे अंधेरों की रौशनी के तले
फिर नहीं सो सके, एक सदी के लिए हम दिलजले
फिर नहीं सो सके, एक सदी के लिए हम दिलजले
और फिर यूँ हुआ, सुबह की धूल ने उड़ा दिया
और फिर यूँ हुआ, सुबह की धूल ने उड़ा दिया
फिर यूँ हुआ, चेहरे के नक्श सब धुल गए
और यूँ हुआ, गर्द थे गर्द में रुल गए
तन्हाईयाँ ओढ़े हुए, गलते रहे भीगे हुए आँसुओं से गले
फिर नहीं सो सके, एक सदी के लिए हम दिलजले
एक सदी के लिए हम दिलज
(19)
वो जो शायर था चुप-सा रहता था
बहकी-बहकी-सी बातें करता था
आँखें कानों पे रख के सुनता था
गूँगी खामोशियों की आवाज़ें!
जमा करता था चाँद के साए
और गीली- सी नूर की बूँदें
रूखे-रूखे- से रात के पत्ते
ओक में भर के खरखराता था
वक़्त के इस घनेरे जंगल में
कच्चे-पक्के से लम्हे चुनता था
हाँ वही, वो अजीब- सा शायर
रात को उठ के कोहनियों के बल
चाँद की ठोड़ी चूमा करता था
चाँद से गिर के मर गया है वो
लोग कहते हैं ख़ुदकुशी की है |
(20)
जंग का कूड़ा एक जगह पर जम’अ हुआ है
पहली बार है..
इतने सारे बाज़ू, टाँगे, हाथ और सर और पाँव
ऐसे अलग-अलग बिखरे देखे हैं
बचे खुचे पुरज़े लगते हैं
‘स्पेयर पार्ट्स’ हैं
बाज़ू एक जुलाहे का, हिलता है अब तक
काँप रहा है या शायद कुछ कात रहा है
टांग है एक खिलाड़ी की.. रन आउट हुआ है
घर तक दौड़ते-दौड़ते राह में मारा गया..
सर है एक जो लुढ़क रहा है
टूटे-फूटे शे’र अभी तक सर में खड-खड बजते हैं
नज़्मों के छंद टूट गए हैं
उंगलियाँ रेंग रही हैं कुछ
मिटटी में तारीख़ दर्ज़ करने की कोशिश लगती है..!
पुरज़ा पुरज़ा खोल के एक मैकेनिक ने
उनकी मरम्मत चाही थी…
बुरा लगा था उसको ये पुरज़े आवाजें करते हैं !!
प्रस्तुति - युधिष्ठर पारीक {युध्द राज}