बुधवार, 23 नवंबर 2016

अरे हंस ने वालों कभी ये भी सोचो
जिन्हें प्यार मिलता नही जितें है कैसे ..
अरे हंस ने वालों कभी ये भी सोचो
जिन्हें प्यार मिलता नही जितें है कैसे ..

साथ जिये साथ मरे दिल ने कभी चाहा था
प्यार मिले प्यार करें ऐसा कभी सोचा था
दिल को किसी ने तोड़ा अपना बनाके छोड़ा 
उतना हमें रोना पड़ा जितने हंसी सपना था
अरे हंस ने वालों....

जिनको मिली दिल की खुशी,खुशीयां मना सकते है ...
अपने  ये ग़म दुनिया को हम कैसे सुना सकते हैं
सपने सजाने वालो हसने हँसाने वालो ...
ओओ इधर ज़ख़्में जिगर तुमको दिखा सकते हैं!!

अरे हंस ने वालों कभी ये भी सोचो
जिन्हें प्यार मिलता नही जितें है कैसे ..
~~~~~~~~
फ़िल्म - परवाना(1971)
गीतकार - कैफ़ी आज़मी साहब
संगीतकार - मदनमोहन साहब
गायक -रफ़ी साहब
ख़ुशबू हूँ मै फ़ूल नही हूँ जो मुरझाऊँगा 
ख़ुशबू हूँ मै फ़ूल नही  हूँ जो मुरझाऊँगा 
जब जब मौसम लहरायेगा, मै आ जाऊँगा 
ख़ुशबू हूं मै फ़ूल नही.....
मेरी सूरत कोई नहीं हर चेहरा मेरा चेहरा है
भीगा सावन सूना आँगन हर आईना मेरा है 
जब जब कली खिलेगी कोई मै मुस्काऊँगा-२
मै आ जाऊँगा
ख़ुशबू हूँ मै फ़ूल नही हूँ जो मुरझाऊँगा 
शाम का गहरा सन्नाटा जब दीप जलाने आएगा
मेरा प्यार तुम्हारी सूनी बाँहों में घबराएगा
मै ममता का आँचल बन कर -२
लोरी  गाऊँगा मै आ जाऊँगा
मै आ जाऊँगा ....
जब भी मेरी याद सताये फ़ूल खिलाती रहना
मेरे गीत सहारा देंगे इनको गाती रहना
मैं अनदेखा तारा बनकर राह दिखाऊँगा 
मैं आ जाऊँगा .....
ख़ुशबू हूँ मैं फ़ूल नही हूँ जो मुरझाऊँगा 
ख़ुशबू हूँ मैं फ़ूल नही  हूँ जो मुरझाऊँगा 
जब जब मौसम लहरायेगा, मैं आ जाऊँगा 
ख़ुशबू हूँ मैं फ़ूल नही.....
------------------------
फ़िल्म - शायद -(1979)
गीत - नीदा फ़ाज़ली साहब
संगीत -मानस मुख़र्जी  
गायक - रफ़ी साहब 
इतनी हसीन इतनी जबां रात क्या करें
जागे हैं कुछ अजीब से जज़्बात क्या करें

साँसों मैं घुल रही है किसी साँसों की महक
दामन को छू रहा है कोई हाथ क्या करें

शायद तुम्हारे आनें से ये भेद खुल सके
हैरान है की आज नई बात क्या करें

फ़िल्म- आज और कल
संगीत - रवि साहब
ग़ज़ल -साहिर लुधियानवी 
गायक - रफ़ी साहब
कैसे कटेगी ज़िन्दगी तेरे बग़ैर, तेरे बग़ैर 
कैसे कटेगी ज़िन्दगी तेरे बग़ैर, तेरे बग़ैर 

पाऊँगा हर शै मैं कमी तेरे बग़ैर ,तेरे बग़ैर 
कैसे कटेगी ज़िन्दगी तेरे बग़ैर, तेरे बगैर
फूल खिले तो यूँ लगें,  फूल नही ये दाग है -2
तारे फलक पे यूँ लगे जैसे बुझे चिराग़ है 
आग लगाये चाँदनी तेरे बग़ैर,

कैसे कटेगी ज़िन्दगी तेरे बग़ैर, तेरे बग़ैर 
चाँद घटा मैं छुप गया, सारा जहाँ उदास है ..2
कहती है दिल की धड़कने, तूं कही आसपास है
आके तड़प रहा है जी तेरे बग़ैर  तेरे बगैर ड
पाऊँगा हर शै मैं कमी तेरे बग़ैर 
कैसे कटेगी ज़िन्दगी तेरे बग़ैर
-------------------
फ़िल्म - नॉन फ़िल्मी 
गीत - राजा मेहदी अली साहब
संगीत - मदन मोहन साहब
गायक - रफ़ी साहब
तुम्हारे प्यार मे हम-बेक़रार हो के चले
शिकार करने को आये शिकार हो के चले
तुम्हारे प्यार मे ....

तुम्हें क़रीब से देखा तो दिल को हार दिया
तुम्हारी शौख अदाओं ने हमें तो मार दिया
हर-एक बात पे हम तो निसार हो के चले
शिकार करने को ...

तुम्हारी आँख मोहब्बत की बात कहती है
तुम्हें जरूर किसी की तलाश रहती है
ये राज जान गये राज़दार हो के चले
शिकार करने को ....

न इतना होश न अपनी ख़बर कहाँ है हम
इसी का नाम मोहब्बत है ऐ मेरे हमदम
तुम्हारे कुचे से दीवानावार हो के चले
शिकार करने को ....

-----------------------
फ़िल्म - शिकार (1968)
गीत - हसरत साहब
संगीत - शंकर जयकिशन 
गायक -रफ़ी साहब

रविवार, 25 सितंबर 2016

जौन एलिया

जौन साहब का मिजाज़ और अंदाज़े बयां सबसे मुख्तलिफ रहा है। जौन साहब के कलाम की गहराई को समझने के लिए , ये जानना ज़रूरी है की किब्लह मजरूह सुल्तानपूरी साहब अक्सर ये कहा करते थे की "ये बदबख़्त  शायरों का शायर है " !

1-
अजब इक शोर सा बरपा है कहीं
कोई खामोश हो गया है कहीं
है कुछ ऐसा के जैसे ये सब कुछ
अब से पहले भी हो चुका है कहीं
जो यहाँ से कहीं न जाता था
वो यहाँ से चला गया है कहीं
तुझ को क्या हो गया, के चीजों को
कहीं रखता है, ढूंढता है कहीं
तू मुझे ढूंढ़, मैं तुझे ढुंढू
कोई हम में से रह गया है कहीं
इस कमरे से हो के कोई विदा
इस कमरे में छुप गया है कहीं

2-
उसके पहलू से लग के चलते हैं
हम कहीं टालने से टलते हैं
मै उसी तरह तो बहलता हूँ
और सब जिस तरह बहलतें हैं
वो है जान अब हर एक महफ़िल की
हम भी अब घर से कम निकलते हैं
क्या तकल्लुफ्फ़ करें ये कहने में
जो भी खुश है हम उससे जलते हैं
3-
कितने ऐश उड़ाते होंगे कितने इतराते होंगे
जाने कैसे लोग वो होंगे जो उस को भाते होंगे
शाम हुए कुछ वास यहाँ के मेरे पास आ जातें है
मेरे बुझने का नज़ारा देखने आ जाते होंगे
उस की याद की बाद-ए-सबा में और तो क्या होता होगा,
यूँ ही मेरे बाल हैं बिखरे और बिखर जाते होंगे
बंद रहे जिन का दरवाज़ा ऐसे घरों की मत पूछो,
दीवारें गिर जाती होंगी आँगन रह जाते होंगे
मेरी साँस उखड़ते ही सब बैन करेंगे रोएंगे,
यानी मेरे बाद भी यानी साँस लिये जाते होंगे
वो जो न आने वाला है ना,उसे हमको मतलब था
आने वालों  से क्या मतलब  आते है आते होंगे
यारो कुछ तो हाल सुनाओ उस की क़यामत बाहों की,
वो जो सिमटते होंगे इन में वो तो मर जाते होंगे
4-
तुम जिस ज़मीन पर हो मैं उस का ख़ुदा नहीं
बस सर- ब-सर अज़ीयत-ओ-आज़ार ही रहो
बेज़ार हो गई हो बहुत ज़िन्दगी से तुम
जब बस में कुछ नहीं है तो बेज़ार ही रहो
तुम को यहाँ के साया-ए-परतौ से क्या ग़रज़
तुम अपने हक़ में बीच की दीवार ही रहो
मैं इब्तदा-ए-इश्क़ में बेमहर ही रहा
तुम इन्तहा-ए-इश्क़ का मियार ही रहो
तुम ख़ून थूकती हो ये सुन कर ख़ुशी हुई
इस रंग इस अदा में भी पुरकार ही रहो
मैंने ये कब कहा था के मुहब्बत में है नजात
मैंने ये कब कहा था के वफ़दार ही रहो
अपनी मता-ए-नाज़ लुटा कर मेरे लिये
बाज़ार-ए-इल्तफ़ात में नादार ही रहो
5-
दीद की एक आन में कार-ए-दवाम हो गया
वो भी तमाम हो गया मैं भी तमाम हो गया
अब मैं हूँ इक अज़ाब में और अजब अज़ाब में
जन्नत-ए-पुर-सुकूत में मुझ से कलाम हो गया
आह वो ऐश-ए-राज़-ए-जाँ है वो ऐश-ए-राज़-ए-जाँ
है वो ऐश-ए-राज़-ए-जाँ शहर में आम हो गया
रिश्ता-ए-रंग-ए-जाँ मेरा निकहत-ए-नाज़ से तेरी
पुख़्ता हुआ और इस क़दर यानी के ख़ाम हो गया
पूछ न वस्ल का हिसाब हाल है अब बहुत ख़राब
रिश्ता-ए-जिस्म-ओ-जाँ के बीच जिस्म हराम हो गया
शहर की दास्ताँ न पूछ है ये अजीब दास्ताँ
आने से शहरयार के शहर ग़ुलाम हो गया
दिल की कहानियाँ बनीं कूचा-ब-कूचा कू-ब-कू
सह के मलाल-ए-शहर को शहर में नाम हो गया
‘जौन’ की तिश्नगी का था ख़ूब ही माजरा के जो
मीना-ब-मीना मय-ब-मय जाम-ब-जाम हो गया
नाफ़-प्याले को तेरे देख लिया मुग़ाँ ने जान
सारे ही मय-कदे का आज काम तमाम हो गया
उस की निगाह उठ गई और में उठ के रह गया
मेरी निगाह झुक गई और सलाम हो गया.
6-
जब मैं तुम्हें निशात-ए-मुहब्बत न दे सका|
ग़म में कभी सुकून-ए-रफ़ाक़त न दे सका|
जब मेरे सारे चराग़-ए-तमन्ना हवा के हैं|
जब मेरे सारे ख़्वाब किसी बेवफ़ा के हैं|
फिर मुझे चाहने का तुम्हें कोई हक़ नहीं|
तन्हा कराहाने का तुम्हें कोई हक़ नहीं|
7-
हर बार मेरे सामने आती रही हो तुम,
हर बार तुम से मिल के बिछड़ता रहा हूँ मैं,
तुम कौन हो ये ख़ुद भी नहीं जानती हो तुम,
मैं कौन हूँ ये ख़ुद भी नहीं जानता हूँ मैं,
तुम मुझ को जान कर ही पड़ी हो आज़ाब में,
और इस तरह ख़ुद अपनी सज़ा बन गया हूँ मैं,
8-
दिल का दयार-ए-ख़्वाब में दूर तलक गुज़र रहा
पाँव नहीं थे दरमियाँ आज बड़ा सफ़र रहा
हो न सका हमें कभी अपना ख़याल तक नसीब
नक़्श किसी ख़याल का लौह-ए-ख़याल पर रहा
नक़्श-गरों से चाहिए नक़्श ओ निगार का हिसाब
रंग की बात मत करो रंग बहुत बिखर रहा
जाने गुमाँ की वो गली ऎसी जगह है कौन सी
देख रहे हो तुम के मैं फिर वहीं जा के मर रहा
दिल मेरे दिल मुझे भी तुम अपने ख़्वाब में रखो
याराँ तुम्हारे बाब में मैं ही न मोतबर रहा
शहर-ए-फ़िराक़-ए-यार से आई है इक ख़बर मुझे
कूचा-ए-याद-ए-यार से कोई नहीं उभर रहा
9-
हम तो जैसे यहाँ के थे ही नहीं|
धूप थे सायबाँ के थे ही नहीं|
रास्ते कारवाँ के साथ रहे,
मर्हले कारवाँ के थे ही नहीं|
अब हमारा मकान किस का है,
हम तो अपने मकाँ के थे ही नहीं|
इन को आँधी में ही बिखरना था,
बाल-ओ-पर यहाँ के थे ही नहीं|
उस गली ने ये सुन के सब्र किया,
जाने वाले यहाँ के थे ही नहीं|
हो तेरी ख़ाक-ए-आस्ताँ पे सलाम,
हम तेरे आस्ताँ के थे ही नहीं|

10-
अपना ख़ाका लगता हूँ
एक तमाशा लगता हूँ
आईनों को ज़ंग लगा
अब मैं कैसा लगता हूँ
अब मैं कोई शख़्स नहीं
उस का साया लगता हूँ
सारे रिश्ते तिश्ना हैं
क्या मैं दरिया लगता हूँ
उस से गले मिल कर ख़ुद को
तनहा तनहा लगता हूँ
ख़ुद को मैं सब आँखों में
धुँदला धुँदला लगता हूँ
मैं हर लम्हा इस घर से
जाने वाला लगता हूँ
क्या हुए वो सब लोग के मैं
सूना सूना लगता हूँ
मसलहत इस में क्या है मेरी
टूटा फूटा लगता हूँ
क्या तुम को इस हाल में भी
मैं दुनिया का लगता हूँ
कब का रोगी हूँ वैसे
शहर-ए-मसीहा लगता हूँ
मेरा तालू तर कर दो
सच-मुच प्यासा लगता हूँ
मुझ से कमा लो कुछ पैसे
ज़िंदा मुर्दा लगता हूँ
मैं ने सहे हैं मक्र अपने
अब बे-चारा लगता हूँ.
11-
सोचा है के अब कार-ए-मसीहा न करेंगे
वो ख़ून भी थूकेगा तो परवा न करेंगे
इस बार वो तल्ख़ी है के रूठे भी नहीं हम
अब के वो लड़ाई है के झगड़ा न करेंगे
याँ उस के सलीक़े के ही आसार तो क्या हम
इस पर भी ये कमरा तह ओ बाला न करेंगे
अब नग़मा-तराज़ान-ए-बर-अफ़रोख़्ता ऐ शहर
वासोख़्त कहेंगे ग़ज़ल इंशा न करेंगे
ऐसा है के सीने में सुलगती हैं ख़राशें
अब साँस भी हम लेंगे तो अच्छा न करेंगे
12-
शौक का रंग बुझ गया , याद के ज़ख्म भर गए
क्या मेरी फसल हो चुकी, क्या मेरे दिन गुज़र गए?
हम भी हिजाब दर हिजाब छुप न सके, मगर रहे
वोह भी हुजूम दर हुजूम रह न सके, मगर गए
रहगुज़र-ए-ख्याल में दोष बा दोष थे जो लोग
वक्त की गर्द ओ बाद में जाने कहाँ बिखर गए
शाम है कितनी बे तपाक, शहर है कितना सहम नाक
हम नफ़सो कहाँ तो तुम, जाने ये सब किधर गए
आज की रात है अजीब, कोई नहीं मेरे करीब
आज सब अपने घर रहे, आज सब अपने घर गए
हिफ्ज़-ए- हयात का ख्याल हम को बहुत बुरा लगा
पास बा हुजूम-ए-मारका, जान के भी सिपर गए
मैं तो सापों के दरमियान, कब से पड़ा हूँ निम-जान
मेरे तमाम जान-निसार मेरे लिए तो मर गए
रौनक-ए-बज़्म-ए-ज़िन्दगी, तुरफा हैं तेरे लोग भी
एक तो कभी न आये थे, आये तो रूठ कर गए
खुश नफास-ए-बे-नवा, बे-खबरां-ए-खुश अदा
तीरह-नसीब था मगर शहर में नाम कर गए
आप में ‘जॉन अलिया’ सोचिये अब धरा है क्या
आप भी अब सिधारिये, आप के चारागर गए
चारागर -चिकित्सक
13-
चार सू मेहरबाँ है चौराहा
अजनबी शहर अजनबी बाज़ार
मेरी तहवील में हैं समेटे चार
कोई रास्ता कहीं तो जाता है
चार सू मेहरबाँ है चौराहा
14-
रूह प्यासी कहाँ से आती है
ये उदासी कहाँ से आती है
दिल है शब दो का तो ऐ उम्मीद
तू निदासी कहाँ से आती है
शौक में ऐशे वस्ल के हन्गाम
नाशिफासी कहाँ से आती है
एक ज़िन्दान-ए-बेदिली और शाम
ये सबासी कहाँ से आती है
तू है पहलू में फिर तेरी खुशबू
होके बासी कहाँ से आती है
15-
हम के ए दिल सुखन सरापा थे
हम लबो पे नहीं रहे आबाद
जाने क्या वाकया हुआ
क्यू लोग अपने अन्दर नहीं रहे आबाद
शहर-ए-दिन मे अज्ब मुहल्ले थे
उनमें अक्सर नहीं रहे आबाद
16-
तू भी चुप है मैं भी चुप हूँ यह कैसी तन्हाई है
तेरे साथ तेरी याद आई, क्या तू सचमुच आई है
शायद वो दिन पहला दिन था पलकें बोझल होने का
मुझ को देखते ही जब उन की अँगड़ाई शरमाई है
जब उस के मलबूस की ख़ुश्बू घर पहुँचाने आई है
हुस्न से अर्ज़ ए शौक़ न करना हुस्न को ज़ाक पहुँचाना है
हम ने अर्ज़ ए शौक़ न कर के हुस्न को ज़ाक पहुँचाई है
हम को और तो कुछ नहीं सूझा अलबत्ता उस के दिल में
सोज़ ए रक़बत पैदा कर के उस की नींद उड़ाई है
हम दोनों मिल कर भी दिलों की तन्हाई में भटकेंगे
पागल कुछ तो सोच यह तू ने कैसी शक्ल बनाई है
इश्क़ ए पैचान की संदल पर जाने किस दिन बेल चढ़े
क्यारी में पानी ठहरा है दीवारों पर काई है
हुस्न के जाने कितने चेहरे हुस्न के जाने कितने नाम
इश्क़ का पैशा हुस्न परस्ती इश्क़ बड़ा हरजाई है
आज बहुत दिन बाद मैं अपने कमरे तक आ निकला था
ज्यों ही दरवाज़ा खोला है उस की खुश्बू आई है
एक तो इतना हब्स है फिर मैं साँसें रोके बैठा हूँ
वीरानी ने झाड़ू दे के घर में धूल उड़ाई है
17-

दिल ने किया है क़स्द-ए-सफ़र घर समेट लो
जाना है इस दयार से मंज़र समेट लो
आज़ादगी में शर्त भी है एहतियात की
परवाज़ का है इज़्न मगर पर समेट लो
हमला है चार सू दर-ओ-दीवार-ए-शहर का
सब जंगलों को शहर के अंदर समेट लो
बिखरा हुआ हूँ सरसर-ए-शाम-ए-फ़िराक़ से
अब आ भी जाओ और मुझे आ कर समेट लो
रखता नहीं है कोई न-गुफ़्ता का याँ हिसाब
जो कुछ है दिल में उस को लबों पर समेट लो
18-
बाहर गुज़ार दी कभी अंदर भी आएँगे
हम से ये पूछना कभी हम घर भी आएँगे
ख़ुद आहनी नहीं हो तो पोशिश हो आहनी
यूँ शीशा ही रहोगे तो पत्थर भी आएँगे
ये दश्त-ए-बे-तरफ़ है गुमानों का मौज-खेज़
इस में सराब क्या के समंदर भी आएँगे
आशुफ़्तगी की फ़स्ल का आग़ाज़ है अभी
आशुफ़्तगाँ पलट के अभी घर भी आएँगे
देखें तो चल के यार तिलिस्मात-ए-सम्त-ए-दिल
मरना भी पड़ गया तो चलो मर भी आएँगे
ये शख़्स आज कुछ नहीं पर कल ये देखियो
उस की तरफ़ क़दम ही नहीं सर भी आएँगे
19-
गँवाई किस की तमन्ना में ज़िंदगी मैं ने
वो कौन है जिसे देखा नहीं कभी मैं ने
तेरा ख़याल तो है पर तेरा वजूद नहीं
तेरे लिए तो ये महफ़िल सजाई थी मैं ने
तेरे अदम को गवारा न था वजूद मेरा
सो अपनी बेख़-कनी में कमी न की मैं ने
हैं मेरी ज़ात से मंसूब सद-फ़साना-ए-इश्क़
और एक सतर भी अब तक नहीं लिखी मैं ने
ख़ुद अपने इश्वा ओ अंदाज़ का शहीद हूँ मैं
ख़ुद अपनी ज़ात से बरती है बे-रुख़ी मैं ने
मेरे हरीफ़ मेरी यक्का-ताज़ियों पे निसार
तमाम उम्र हलीफ़ों से जंग की मैं ने
ख़राश-ए-नग़मा से सीना छिला हुआ है मेरा
फ़ुग़ाँ के तर्क न की नग़मा-परवरी मैं ने
दवा से फ़ाएदा मक़सूद था ही कब के फ़क़त
दवा के शौक़ में सेहत तबाह की मैं ने
ज़बाना-ज़न था जिगर-सोज़ तिश्नगी का अज़ाब
सो जौफ़-ए-सीना में दोज़ख उंड़ेल ली मैं ने
सुरूर-ए-मय पे भी ग़ालिब रहा शूऊर मेरा
के हर रिआयत-ए-ग़म ज़हन में रखी मैं ने
ग़म-ए-शुऊर कोई दम तो मुझ को मोहलत दे
तमाम उम्र जलाया है अपना जी मैं ने
इलाज ये है के मजबूर कर दिया जाऊँ
वगर्ना यूँ तो किसी की नहीं सुनी मैं ने
रहा मैं शाहिद-ए-तन्हा नशीन-ए-मसनद-ए-ग़म
और अपने कर्ब-ए-अना से ग़रज़ रखी मैं ने
20-
हमारे ज़ख़्म-ए-तमन्ना पुराने हो गए हैं
के उस गली में गए अब ज़माने हो गए हैं
तुम अपने चाहने वालों की बात मत सुनियो
तुम्हारे चाहने वाले दिवाने हो गए हैं
वो ज़ुल्फ़ धूप में फ़ुर्क़त की आई है जब याद
तो बादल आए हैं और शामियाने हो गए हैं
जो अपने तौर से हम ने कभी गुज़ारे थे
वो सुब्ह ओ शाम तो जैसे फ़साने हो गए हैं
अजब महक थी मेरे गुल तेरे शबिस्ताँ की
सो बुलबुलों के वहाँ आशियाने हो गए हैं
हमारे बाद जो आएँ उन्हें मुबारक हो
जहाँ थे कुंज वहाँ कार-ख़ाने हो गए हैं
21-
तमन्ना कई थे, आज दिल में उनके लिए
लेकिन वो आज न आये मुझे मिलने के लिए
काम करने का जोश न रहा
उनके बिना कोई होश न रहा
कैसे समझाऊ उन्हें की वो मेरी ज़िन्दगी है
मेरी ज़िन्दगी को कैसे समझाऊ के मोहब्बत मेरी बंदगी है
लेकिन आज मैं काम ज़रूर करूँगा
उनके बिना मैं नहीं मरूँगा
कमबख्त यह दिल है कि मानता नहीं
यह क्या मजबूरी हैं उनके बिना काम बनता नहीं
काश उनको भी मेरी याद सताये
यह मोहब्बत का रोग उन्हें जलाये
22-
तुझ में पड़ा हुआ हूँ हरकत नहीं है मुझ में
हालत न पूछियो तू हालत नहीं है मुझ में
अब तो नज़र में आ जा बाँहों के घर में आ जा
ऐ जान तेरी कोई सूरत नहीं है मुझ में
ऐ रंग रंग में आ आग़ोश-ए-तंग में आ
बातें ही रंग की हैं रंगत नहीं है मुझ में
अपने में ही किसी की हो रू-ब-रूई मुझ को
हूँ ख़ुद से रू-ब-रू मैं हिम्मत नहीं है मुझ में
अब तो सिमट के आ जा और रूह में समा जा
वैसे किसी की प्यारे वुसअत नहीं है मुझ में
शीशे के इस तरफ़ से मैं सब को तक रहा हूँ
मरने की भी किसी को फ़ुर्सत नहीं है मुझ में
तुम मुझ को अपने रम में ले जाओ साथ अपने
अपने से ऐ ग़ज़ालो वहशत नहीं है मुझ में
23-
सीना दहक रहा हो तो क्या चुप रहे कोई
क्यूँ चीख़ चीख़ कर न गला छील ले कोई
साबित हुआ सुकून-ए-दिल-ओ-जाँ कहीं नहीं
रिश्तों में ढूँढता है तो ढूँढा करे कोई
तर्क-ए-तअल्लुक़ात कोई मसअला नहीं
ये तो वो रास्ता है कि बस चल पड़े कोई
दीवार जानता था जिसे मैं वो धूल थी
अब मुझ को एतिमाद की दावत न दे कोई
मैं ख़ुद ये चाहता हूँ कि हालात हूँ ख़राब
मेरे ख़िलाफ़ ज़हर उगलता फिरे कोई
ऐ शख़्स अब तो मुझ को सभी कुछ क़ुबूल है
ये भी क़ुबूल है कि तुझे छीन ले कोई
हाँ ठीक है मैं अपनी अना का मरीज़ हूँ
आख़िर मिरे मिज़ाज में क्यूँ दख़्ल दे कोई
इक शख़्स कर रहा है अभी तक वफ़ा का ज़िक्र
काश उस ज़बाँ-दराज़ का मुँह नोच ले कोई
24-
जाने कहाँ गया वो वो जो अभी यहाँ था
वो जो अभी यहाँ था वो कौन था कहाँ था
ता लम्हा-ए-गुज़िश्ता ये जिस्म और साए
ज़िंदा थे राएगाँ में जो कुछ था राएगाँ था
अब जिस की दीद का है सौदा हमारे सर में
वो अपनी ही नज़र में अपना ही इक सामाँ था
क्या क्या न ख़ून थूका मैं उस गली में यारो
सच जानना वहाँ तो जो फ़न था राएगाँ था
ये वार कर गया है पहलू से कौन मुझ पर
था मैं ही दाएँ बाएँ और मैं ही दरमियाँ था
उस शहर की हिफाज़त करनी थी हम को जिस में
आँधी की थीं फ़सीलें और गर्द का मकाँ था
थी इक अजब फ़ज़ा सी इमकान-ए-ख़ाल-ओ-ख़द की
था इक अजब मुसव्विर और वो मेरा गुमाँ था
उम्रें गुज़र गई थीं हम को यक़ीन से बिछड़े
और लम्हा इक गुमाँ का सदियों में बे-अमाँ था
जब डूबता चला मैं तारीकियों की तह में
तह में था इक दरीचा और उस में आसमाँ था
25-
दिल को दुनिया का है सफ़र दर-पेश
और चारों तरफ़ है घर दर-पेश
है ये आलम अजीब और यहाँ
माजरा है अजीब-तर दर-पेश
दो जहाँ से गुज़र गया फिर भी
मैं रहा ख़ुद को उम्र भर दर-पेश
अब मैं कू-ए-अबस शिताब चलूँ
कई इक काम हैं उधर दर-पेश
उस के दीदार की उम्मीद कहाँ
जब के है दीद को नज़र दर-पेश
अब मेरी जान बच गई यानी
एक क़ातिल की है सिपर दर-पेश
किस तरह कूच पर कमर बाँधूँ
एक रह-ज़न की है कमर दर-पेश
ख़लवत-ए-नाज़ और आईना
ख़ुद-निगर को है ख़ुद-निगर दर-पेश
26-
इक ज़ख्म भी यारान-ए-बिस्मिल नहीं आने का
मक़तल में पड़े रहिए क़ातिल नहीं आने का
अब कूच करो यारो सहरा से के सुनते हैं
सहरा में अब आइंदा महमिल नहीं आने का
वाइज़ को ख़राबे में इक दावत-ए-हक़ दी थी
मैं जान रहा था वो जाहिल नहीं आने का
बुनियाद-ए-जहाँ पहले जो थी वही अब भी है
यूँ हश्र तो यारान-ए-यक-दिल नहीं आने का
बुत है के ख़ुदा है वो माना है न मानूँगा
उस शोख़ से जब तक मैं ख़ुद मिल नहीं आने का
गर दिल की ये महफ़िल है ख़र्चा भी हो फिर दिल का
बाहर से तो सामान-ए-महफ़िल नहीं आने का
वो नाफ़ प्याले से सर-मस्त करे वरना
हो के मैं कभी उस का क़ाइल नहीं आने का
27-
कोई दम भी मैं कब अंदर रहा हूँ
लिए हैं साँस और बाहर रहा हूँ
धुएं में साँस हैं साँसों में पल हैं
मैं रौशन-दान तक बस मर रहा हूँ
फ़ना हर दम मुझे गिनती रही है
मैं इक दम का था और दिन भर रहा हूँ
ज़रा इक साँस रोका तो लगा यूँ
के इतनी देर अपने घर रहा हूँ
ब-जुज़ अपने मयस्सर है मुझे क्या
सो ख़ुद से अपनी जेबें भर रहा हूँ
हमेशा ज़ख़्म पहुँचे हैं मुझी को
हमेशा मैं पस-ए-लश्कर रहा हूँ
लिटा दे नींद के बिस्तर पे ऐ रात
मैं दिन भर अपनी पलकों पर रहा हूँ
28-
न पूछ उस की जो अपने अंदर छुपा
ग़नीमत के मैं अपने बाहर छुपा
मुझे याँ किसी पे भरोसा नहीं
मैं अपनी निगाहों से छुप कर छुपा
पहुँच मुख़बिरों की सुख़न तक कहाँ
सो मैं अपने होंटों पे अक्सर छुपा
मेरी सुन न रख अपने पहलू में दिल
उसे तू किसी और के घर छुपा
यहाँ तेरे अंदर नहीं मेरी ख़ैर
मेरी जाँ मुझे मेरे अंदर छुपा
ख़यालों की आमद में ये ख़ार-ज़ार
है तीरों की यलग़ार तू सर छुपा
 29-
लाज़िम है अपने आप की इमदाद कुछ करूँ
सीने में वो ख़ला है के ईजाद कुछ करूँ
हर लम्हा अपने आप में पाता हूँ कुछ कमी
हर लम्हा अपने आप में ईज़ाद कुछ करूँ
रू-कार से तो अपनी मैं लगता हूँ पाए-दार
बुनियाद रह गई पा-ए-बुनियाद कुछ करूँ
तारी हुआ है लम्हा-ए-मौजूद इस तरह
कुछ भी न याद आए अगर याद कुछ करूँ
मौसम का मुझ से कोई तक़ाज़ा है दम-ब-दम
बे-सिलसिला नहीं नफ़स-ए-बाद कुछ करूँ
30-
यादों का हिसाब रख रहा हूँ
सीने में अज़ाब रख रहा हूँ
तुम कुछ कहे जाओ क्या कहूँ मैं
बस दिल में जवाब रख रहा हूँ
दामन में किए हैं जमा गिर्दाब
जेबों में हबाब रख रहा हूँ
आएगा वो नख़वती सो मैं भी
कमरे को ख़राब रख रहा हूँ
तुम पर मैं सहीफ़ा-हा-ए-कोहना
इक ताज़ा किताब रख रहा हूँ
 31
ख़ुद से हम इक नफ़स हिले भी कहाँ|
उस को ढूँढें तो वो मिले भी कहाँ|
ख़ेमा-ख़ेमा गुज़ार ले ये शब,
सुबह-दम ये क़ाफिले भी कहाँ|
अब त’मुल न कर दिल-ए- ख़ुदकाम,
रूठ ले फिर ये सिलसिले भी कहाँ|
आओ आपस में कुछ गिले कर लें,
वर्ना यूँ है के फिर गिले भी कहाँ|
ख़ुश हो सीने की इन ख़राशों पर,
फिर तनफ़्फ़ुस के ये सिले भी कहाँ|
32-
रंज है हालत-ए-सफ़र हाल-ए-क़याम रंज है
सुब्ह-ब-सुब्ह रंज है शाम-ब-शाम रंज है
उस की शमीम-ए-ज़ुल्फ़ का कैसे हो शुक्रिया अदा
जब के शमीम रंज है जब के मशाम रंज है
सैद तो क्या के सैद-कार ख़ुद भी नहीं ये जानता
दाना भी रंज है यहाँ यानी के दाम रंज है
मानी-ए-जावेदान-ए-जाँ कुछ भी नहीं मगर ज़ियाँ
सारे कलीम हैं ज़ुबूँ सारा कलाम रंज है
बाबा अलिफ़ मेरी नुमूद रंज है आप के ब-क़ौल
क्या मेरा नाम भी है रंज हाँ तेरा नाम रंज है
कासा गदा-गरी का है नाफ़ प्याला यार का
भूक है वो बदन तमाम वस्ल तमाम रंज है
जीत के कोई आए तब हार के कोई आए तब
जौहर-ए-तेग़ शर्म है और नियाम रंज है
दिल ने पढ़ा सबक़ तमाम बूद तो है क़लक़ तमाम
हाँ मेरा नाम रंज है हाँ तेरा नाम रंज है
पैक-ए-क़ज़ा है दम-ब-दम ‘जौन’ क़दम क़दम शुमार
लग़्ज़िश-ए-गाम रंज है हुस्न-ए-ख़िराम रंज है
बाबा अलिफ़ ने शब कहा नश्शा-ब-नश्शा कर गिले
जुरआ-ब-जुरआ रंज है जाम-ब-जाम रंज है
आन पे हो मदार क्या बूद के रोज़गार का
दम हमा-दम है दूँ ये दम वहम-ए-दवाम रंज है
रज़्म है ख़ून का हज़र कोई बहाए या बहे
रुस्तम ओ ज़ाल हैं मलाल यानी के साम रंज है
33-
हमारे शौक के आंसू दो, खुशहाल होने तक
तुम्हारे आरज़ू केसो का सौदा हो चुका होगा
अब ये शोर-ए-हाव हूँ सुना है सारबानो ने
वो पागल काफिले की ज़िद में पीछे रह गया होगा
है निस-ए-शब वो दिवाना अभी तक घर नहीं आया
किसी से चान्दनी रातों का किस्सा छिड़ गया होगा
34-
अख़लाक़ न बरतेंगे मुदारा न करेंगे
अब हम किसी शख़्स की परवाह न करेंगे
कुछ लोग कई लफ़्ज़ ग़लत बोल रहे हैं
इसलाह मगर हम भी अब इसलाह न करेंगे
कमगोई के एक वस्फ़-ए-हिमाक़त है बहर तो
कमगोई को अपनाएँगे चहका न करेंगे
अब सहल पसंदी को बनाएँगे वातिरा
ता देर किसी बाब में सोचा न करेंगे
ग़ुस्सा भी है तहज़ीब-ए-तआल्लुक़ का तलबगार
हम चुप हैं भरे बैठे हैं गुस्सा न करेंगे
कल रात बहुत ग़ौर किया है सो हम ए “जॉन”
तय कर के उठे हैं के तमन्ना न करेंगे
35-
एक ही मुश्दा सुभो लाती है
ज़हन में धूप फैल जाती है
सोचता हूँ के तेरी याद आखिर
अब किसे रात भर जगाती है
फर्श पर कागज़ो से फिरते है
मेज़ पर गर्द जमती जाती है
मैं भी इज़न-ए-नवागरी चाहूँ
बेदिली भी तो नब्ज़ हिलाती है
आप अपने से हम सुखन रहना
हमनशी सांस फूल जाती है
आज एक बात तो बताओ मुझे
ज़िन्दगी ख्वाब क्यो दिखाती है
क्या सितम है कि अब तेरी सूरत
गौर करने पर याद आती है
कौन इस घर की देख भाल करे
रोज़ एक चीज़ टूट जाती है
36-
अब जुनूँ कब किसी के बस में है
उसकी ख़ुशबू नफ़स-नफ़स में है
हाल उस सैद का सुनाईए क्या
जिसका सैयाद ख़ुद क़फ़स में है
क्या है गर ज़िन्दगी का बस न चला
ज़िन्दगी कब किसी के बस में है
ग़ैर से रहियो तू ज़रा होशियार
वो तेरे जिस्म की हवस में है
बाशिकस्ता बड़ा हुआ हूँ मगर
दिल किसी नग़्मा-ए-जरस में है
‘जॉन’ हम सबकी दस्त-रस में है
वो भला किसकी दस्त-रस में है
37-
सर येह फोड़िए अब नदामत में
नीन्द आने लगी है फुरकत में
हैं दलीलें तेरे खिलाफ मगर
सोचता हूँ तेरी हिमायत में
इश्क को दरम्यान ना लाओ के मैं
चीखता हूँ बदन की उसरत में
ये कुछ आसान तो नहीं है कि हम
रूठते अब भी है मुर्रबत में
वो जो तामीर होने वाली थी
लग गई आग उस इमारत में
वो खला है कि सोचता हूँ मैं
उससे क्या गुफ्तगू हो खलबत में
ज़िन्दगी किस तरह बसर होगी
दिल नहीं लग रहा मुहब्बत में
मेरे कमरे का क्या बया कि यहाँ
खून थूका गया शरारत में
रूह ने इश्क का फरेब दिया
ज़िस्म को ज़िस्म की अदावत में
अब फकत आदतो की वर्जिश है
रूह शामिल नहीं शिकायत में
ऐ खुदा जो कही नहीं मौज़ूद
क्या लिखा है हमारी किस्मत में
----------
38-



यह गम क्या दिल की आदत है? नहीं तो
किसी से कुछ शिकायत है? नहीं तो

है वो इक ख्वाब-ए-बे ताबीर इसको
भुला देने की नीयत है? नहीं तो

किसी के बिन किसी की याद के बिन
जिए जाने की हिम्मत है ? नहीं तो

किसी सूरत भी दिल लगता नहीं? हाँ
तू कुछ दिन से यह हालत हैं? नहीं तो

तेरे इस हाल पर हैं सब को हैरत
तुझे भी इस पर हैरत है? नहीं तो

वो दरवेशी जो तज कर आ गया…..तू
यह दौलत उस की क़ीमत है? नहीं तो

हुआ जो कुछ यही मक़्सूम था क्या
यही सारी हकायत है ? नहीं तो

अज़ीयत नाक उम्मीदों से तुझको
अमन पाने की हसरत है? नहीं तो
-----------------
39-
चलो बादे-ए-बहार ही जा रही है
पीया जी की सवारी जा रही है...

जो इन रोज़ों, मेरा ग़म है, वो ये है,
के ग़म से बुर्दबारी जा रही है..

है सीने में अजब एक हश्र बरपा
के दिल से बे-करारी जा रही है..

मैं पैहम हार कर, ये सोचता हूं
वो क्या शय है,  जो हारी जा रही है..

दिल उसके रू-ब-रू है, और गुम-सुम
कोई अर्ज़ी गुज़ारी जा रही है...

वो स़य्यद बचा हो और शैख़ के साथ
मियाँ इज्ज़त हमारी जा रही है..
 
है बरपा हर गली में शोरे-ए-नग़्मा
मेरी फ़रियाद मारी जा रही है..

है पहलू में टके की एक हसीना
तेरी फ़ुरकत ग़ुजारी जा रही है...

बहुत बद-हाल है बस्ती तिरे लोगे
तो फिर क्यूँ सवारी जा रही है
-----------------------
40-
किसी से अहदो पेमा करना रहीयो
तू इस बस्ती में रहीयों, पर न रहियो

नज़र पर बार हो जाते हैं मंज़र 
जहां रहीयो वहाँ अक्सर न रहीयों

सवेरे ही से घर आ जायो आज
है रोज़-ए-वाक्या बाहर न रहीयो
-------------
41-
-------------------------------
उसके पहलू से लग के चलते हैं 
हम कहीं टालने से टलते हैं 

मै उसी तरह तो बहलता हूँ 
और सब जिस तरह बहलतें हैं 

वो है जान अब हरेक महफ़िल की 
हम भी अब घर से कम निकलते हैं 

क्या तकल्लुफ्फ़ करें ये कहने में 
जो भी खुश है हम उससे जलते हैं 

है उसे दूर का सफ़र दरपेश 
हम संभाले नहीं संभलते हैं 

है अजब फैसले का सेहरा भी 
चल न पड़िए तो पाँव ज़लते हैं 

हो रहा हूँ मैं किस तरह बर्बाद 
देखने वाले हाथ मलते हैं 

तुम बनो रंग तुम बनो खुशबू 
हम तो अपने सुखन में ढलते हैं 
-----------
42
आगे असबे खूनी चादर और खूनी परचम निकले
जैसे निकला अपना जनाज़ा ऐसे जनाज़े कम निकले

दौर अपनी खुश-दर्दी रात बहुत ही याद आया
अब जो किताबे शौक निकाली सारे वरक बरहम निकले

है ज़राज़ी इस किस्से की, इस किस्से को खतम करो
क्या तुम निकले अपने घर से, अपने घर से हम निकले

मेरे कातिल, मेरे मसिहा, मेरी तरहा लासनी है
हाथो मे तो खंजर चमके, जेबों से मरहम निकले

'जॉन' शहादतजादा हूँ मैं और खूनी दिल निकला हूँ
मेरा जूनू उसके कूचे से कैसे बेमातम निकले
---------------------
43

उम्र गुज़रेगी इम्तहान में क्या?
दाग ही देंगे मुझको दान में क्या?

मेरी हर बात बेअसर ही रही
नुक्स है कुछ मेरे बयान में क्या?

बोलते क्यो नहीं मेरे हक में 
आबले पड़ गये ज़बान में क्या?

हमको तो कोई टोकता भी नहीं
यही होता है खानदान मे क्या?

अपनी महरूमिया छुपाते है
हम गरीबो की आन-बान में क्या?

वो मिले तो ये पूछना है मुझे
अब भी हूँ मै तेरी अमान में क्या?

यूँ जो तकता है आसमान को तू
कोई रहता है आसमान में क्या?

है नसीम-ए-बहार गर्दालूद
खाक उड़ती है उस मकान में क्या?

ये मुझे चैन क्यो नहीं पड़ता
एक ही शक्स था जहान में क्या?
--------------
44-
कोई हालत नहीं ये हालत है
ये तो आशोभना सूरत है

अंजूमन में ये मेरी खामोशी
बर्दबारी नहीं है वहशत है

तुझसे ये गाह गाह का शिकवा
जब तलक है बस-गनीमत है

ख्वाहिशें दिल का साथ छोड़ गयीं
ये अज़ियत बड़ी अज़ियत है

लोग मसरूफ जानते है मुझे
या मेरा गम ही मेरी फूर्सत है

तंज़ पैरा-ए-तबस्सुम में
इस तकल्लुफ कि क्या ज़रूरत है

हमने देखा तो हमने ये देखा
जो नहीं है वो खूबसूरत है

वार करने को जानिसार अायें
ये तो ईसार है इनायत है

गर्म-जोशी और इस कदर क्या बात
क्या तुम्हे मुझसे कुछ शिकायत है

अब निकाल अाओ अपने अंदर से
घर में सामान की ज़रूरत है

आज का दिन भी ऐश से गुजरा
सर से पा तक बदन सलामत है
------------------
45-
एक हुनर है जो कर गया हूँ मैं
सब के दिल से उतर गया हूँ मैं

कैसे अपनी हँसी को ज़ब्त करूँ
सुन रहा हूँ के घर गया हूँ मैं

क्या बताऊँ के मर नहीं पाता
जीते जी जब से मर गया हूँ मैं

अब है बस अपना सामना दरपेश
हर किसी से गुज़र गया हूँ मैं

वो ही नाज़-ओ-अदा, वो ही ग़मज़े
सर-ब-सर आप पर गया हूँ मैं

अजब इल्ज़ाम हूँ ज़माने का
के यहाँ सब के सर गया हूँ मैं

कभी खुद तक पहुँच नहीं पाया
जब के वाँ उम्र भर गया हूँ मैं

तुम से जानां मिला हूँ जिस दिन से
बे-तरह, खुद से डर गया हूँ मैं

कू–ए–जानां में सोग बरपा है
के अचानक, सुधर गया हूँ मै
--------------------
46-
जी ही जी में वो जल रही होगी
चाँदनी में टहल रहीं होगी

चाँद ने तान ली है चादर-ए-अब्र
अब वो कपड़े बदल रही होगी

सो गई होगी वो शफ़क़ अन्दाम
सब्ज़ किन्दील जल रही होगी

सुर्ख और सब्ज़ वादियों की तरफ
वो मेरे साथ चल रही होगी

चढ़ते-चढ़ते किसी पहाड़ी पर
अब तो करवट बदल रही होगी

नील को झील नाक तक पहने
सन्दली जिस्म मल रही होगी
----------------
47-
गाहे-गाहे बस अब तही हो क्या
तुम से मिल कर बहुत खुशी हो क्या?

मिल रही हो बड़े तपाक के साथ
मुझ को अक्सर भुला चुकी हो क्या?

याद हैं अब भी अपने ख्वाब तुम्हें
मुझ से मिलकर उदास भी हो क्या?

बस मुझे यूँ ही एक ख़याल आया
सोचती हो तो सोचती हो क्या?

अब मेरी कोई ज़िन्दगी ही नहीं
अब भी तुम मेरी ज़िन्दगी हो क्या?

 अब मैं सारे जहां मैं हूं बदनाम
अब भी तुम मुझ को जानती हो क्या?

क्या कहा इश्क जाबेदानी है
आखरी बार मिल रही हो क्या?

है फज़ा याँ की सोई-सोई सी
तुम बहुत तेज़ रोशनी हो क्या?

मेरे सब तंज़ बेअसर ही रहे
तुम बहुत दूर जा चुकी हो क्या?

दिल में अब सोज़े-इंतज़ार नहीं
शम्मे उम्मीद बुझ गई हो क्या?
---------------
48-
तुम हक़ीक़त नहीं हो हसरत हो
जो मिले ख़्वाब में वो दौलत हो

तुम हो ख़ुशबू के ख़्वाब की ख़ुशबू
औए इतने ही बेमुरव्वत हो

तुम हो पहलू में पर क़रार नहीं
यानी ऐसा है जैसे फुरक़त हो

है मेरी आरज़ू के मेरे सिवा
तुम्हें सब शायरों से वहशत हो

किस तरह छोड़ दूँ तुम्हें जानाँ
तुम मेरी ज़िन्दगी की आदत हो

किसलिए देखते हो आईना
तुम तो ख़ुद से भी ख़ूबसूरत हो

दास्ताँ ख़त्म होने वाली है
तुम मेरी आख़िरी मुहब्बत हो
------------------
49
दिल ने वफ़ा के नाम पर कार-ए-जफ़ा नहीं किया
ख़ुद को हलाक कर लिया ख़ुद को फ़िदा नहीं किया

कैसे कहें के तुझ को भी हमसे है वास्ता कोई
तूने तो हमसे आज तक कोई गिला नहीं किया

तू भी किसी के बाब में अहद-शिकन हो ग़ालिबन
मैं ने भी एक शख़्स का क़र्ज़ अदा नहीं किया

जो भी हो तुम पे मौतरिज़ उस को यही जवाब दो
आप बहुत शरीफ़ हैं आप ने क्या नहीं किया

जिस को भी शेख़-ओ-शाह ने हुक्म-ए-ख़ुदा दिया क़रार
हमने नहीं किया वो काम हाँ बा-ख़ुदा नहीं किया

निस्बत-ए-इल्म है बहुत हाकिम-ए-वक़्त को अज़ीज़
उस ने तो कार-ए-जेहन भी बे-उलामा नहीं किया
-------------------
50-
बेदिली! क्या यूँ ही दिन गुजर जायेंगे 
सिर्फ़ ज़िन्दा रहे हम तो मर जायेंगे

ये खराब आतियाने, खिरद बाख्ता
सुबह होते ही सब काम पर जायेंगे

कितने दिलकश हो तुम कितना दिलजूँ हूँ मैं 
क्या सितम है कि हम लोग मर जाएंगे 
---------------------------
51-
महक उठा है आँगन इस ख़बर से
वो ख़ुशबू लौट आई है सफ़र से

जुदाई ने उसे देखा सर-ए-बाम
दरीचे पर शफ़क़ के रंग बरसे

मैं इस दीवार पर चढ़ तो गया था
उतारे कौन अब दीवार पर से

गिला है एक गली से शहर-ए-दिल की
मैं लड़ता फिर रहा हूँ शहर भर से

उसे देखे ज़माने भर का ये चाँद
हमारी चाँदनी छाए तो तरसे

मेरे मानन गुज़रा कर मेरी जान
कभी तू खुद भी अपनी रहगुज़र से
-----------------
52-
इक गली थी जब उस से हम निकले
ऐसे निकले कि जैसे दम निकले

कूचा -ए-आरज़ू जो था उस में
ज़ुल्फ़-ए- जानां तरह के ख़म निकले

जो फिरे दर-ब-दर यहां वो लोग
अपने बाहर बहुत ही कम निकले

आग इस शहर में लगी जिस दिन
सबसे आख़िर में यहां से हम निकले
------------
53-
शौक़ का रंग बुझ गया याद के ज़ख़्म भर गए
क्या मेरी फ़सल हो चुकी क्या मेरे दिन गुज़र गए

शाम है कितनी बे तपाक शहर है कितना सहम नाक
हम-नफ़सो!कहाँ हो तुम, जाने सब किधर गए

पास-ए-हयात का ख़्याल हमको बहुत बुरा लगा
पस बह हुजूम-ए-मार्का जान कि बे-सिपर गए

मैं तो सफ़ों के दरमियाँ कब से पड़ा हूँ नीम-जाँ
मेरे तमाम जांनिसार मेरे लिए तो मर गए

शाहिद-ए-रोज़ वाक़िया सूरत-ए-माजरा है क्या
कितने जत्थे बिखर गए कितने हुजूम मर गए

ख़ुश नफसान-ए-बे नवा !बखैरान-ए-ख़ुश-अदा
तेरा नसीब थे मगर शहर में नाम कर गए

आप हैं जॉन एलिया सोचीए अब धरा है क्या
आप भी अब सिधारिए आपके चारागर गए
--------------
54-
जाने हम कौन हैं
जाने कब से
मुझे याद भी तो नहीं जाने कब से
हम इक साथ घर से निकलते हैं
और शाम को
एक ही साथ घर लौटते हैं
मगर हमने इक दूसरे से
कभी हाल-ए-पुर्सी नहीं की
ना इक दूसरे को
कभी नाम लेकर मुख़ातब किया
जाने हम कौन हैं
-----------------
55-
ज़ख़्म-ए-उम्मीद भर गया कब का
क़ैस तो अपने घर गया कब का

अब तो मुँह अपना मत दिखाओ मुझे
नासेहो में सुधर गया कब का

आप अब पूछने को आए हैं
दिल मेरी जान मर गया कब का

आप इक और नींद ले लीजिए
क़ाफ़िला कूच कर गया कब का

मेरा फ़हरिस्त से निकाल दो नाम
मैं तो ख़ुद से मुकर गया कब का
-------------
56
अपने सब यार काम कर रहे हैं
और हम हैं कि नाम कर रहे हैं
तेग़-बाज़ी का शौक़ अपनी जगह
आप तो क़तल-ए आम कर रहे हैं
दाद-ओ-तहसीन का ये शोर है क्यों
हम तो ख़ुद से कलाम कर रहे हैं
हम हैं मसरूफ़-ए-इंतिज़ाम मगर
जाने क्या इंतिज़ाम कर रहे हैं
है वो बेचारगी का हाल कि हम
हर किसी को सलाम कर रहे हैं
एक क़त्ताला चाहीए हमको
हम ये आलान-ए-आम कर रहे हैं
क्या भला सागर-ए-सिफ़ाल कि हम
नाफ़-प्याले को जाम कर रहे हैं
हम तो आए थे अर्ज़-ए-मतलब को
और वो एहतिराम कर रहे हैं
ना उठे आह का धूवां भी कि वो
कू-ए-दिल में ख़िराम कर रहे हैं
उस के होंटों पे रख के होंट अपने
बात ही हम तमाम कर रहे हैं
हम अजब हैं कि उस के कूचे में
बेसबब धूम धाम कर रहे हैं
-------------------
57-
अब किसी से मेरा हिसाब नहीं
मेरी आँखों में कोई ख्वाब नहीं
ख़ून के घूँट पी रहा हूँ में
ये मेरा ख़ून है, शराब नहीं
मैं शराबी हूँ मेरी आस न छीन
तु मेरी आस है शराब नहीं
नोच फेंके लबों से मैंने सवाल
ताकत-ए-शोख़ी-ए-जवाब नहीं
अब तो पंजाब भी नहीं पंजाब
और ख़ुद जैसा अब दो आब नहीं
गुम अबद का नहीं है उनका है
और उस का कोई हिसाब नहीं
बोदश इक रो है एक रो यानी
उस की फ़ितरत में इन्क़िलाब नहीं
---------------
58-
तिश्ना-कामी की सज़ा दो तो मज़ा आ जाये
तुम हमें ज़हर पिला दो तो मज़ा आ जाये
मीर-ए-महफ़िल बने बैठे हैं बड़े नाज़ से हम
हमें महफ़िल से उठा दो तो मज़ा आ जाये
तुमने एहसान किया था जो हमें चाहा था
अब वो एहसान जता दो तो मज़ा आ जाये
अपने यूसुफ़ की ज़ुलेख़ा की तरह तुम भी कभी
कुछ हसीनों से मिला दो तो मज़ा आ जाये
चैन  पड़ता ही नहीं है तुम्हें अब मेरे बग़ैर
अब तुम्ही मुझको गंवा दो तो मज़ा आ जाये
------------
59-
हम तरह नाज़ थे , फिर तेरी ख़ुशी की ख़ातिर
कर के बेचारा तिरे सामने लाए भी गए
कजअदाई से सज़ा कज कुलही की पाई
मीर-ए-महफ़िल थे सौ महफ़िल से उठाए भी गए
क्या गिला ख़ून जो अब थूक रहे हैं जानां
हम तिरे रंग के परतौ से सजाये भी गए
हम से रूठा भी गया यम को मनाया भी गया
फिर सभी नक़्श ताल्लुक़ के मिटाए भी गए
जमा-ओ-तफ़रीक़ थे हम मकतब-ए-जिस्म-ओ-जां की
कि बढ़ाए भी गए और घटाए भी गए
जॉन ! दिल शहर-ए-हक़ीक़त को उजाड़ा भी गया
और फिर शहर तो्वहम के बसाए भी गए
---------------
60-
जो हुआ "जॉन" वो हुआ भी नही
यानी जो कुछ भी था वो था भी नही
बस गया जब वो शहर-ए-दिल में मेरे
फिर मैं इस शहर में रहा भी नही
इक अजब तौर हाल है कि जो है
यानी मैं भी नही खुदा भी नही
लम्हों से अब मुआमला क्या हो 
दिल पे अब कुछ ग़ुजर रहा भी नही
जानिए मैं चला गया हूँ कहाँ 
मैं तो खुद से कही गया भी नही
तू मिरे दिल में आन के बस जा
और तू मेरे पास आ भी नही
---------
61-
सर ये फोड़िए अब नदामत में
नीन्द आने  लगी है फुर्कत में

हैं दलीलें तेरे खिलाफ मगर
सोचता हूँ तेरी हिमायत में

इश्क को दरम्यान न लाओ के मैं
चीखता हूँ बदन की उसरत में

ये कुछ आसान तो नहीं है कि हम
रूठते अब भी है मुर्रबत में

वो जो तामीर होने वाली थी
लग गई आग उस इमारत में

वो खला है कि सोचता हूँ मैं
उससे क्या गुफ्तगू हो खलबत में

ज़िन्दगी किस तरह बसर होगी
दिल नहीं लग रहा मुहब्बत में

मेरे कमरे का क्या बया कि यहाँ
खून थूका गया शरारत में

रूह ने इश्क का फरेब दिया
ज़िस्म को ज़िस्म की अदावत में

अब फकत आदतो की वर्जिश है
रूह शामिल नहीं शिकायत में

ऐ खुदा जो कही नहीं मौज़ूद
क्या लिखा है हमारी किस्मत में
---------------
62-
तुम्हारा हिज्र मना  लूँ अगर इजाज़त हो 
मैं दिल किसी से लगा लूँ अगर इजाज़त  हो 

तुम्हारे बाद भला क्या हैं वादा -ओ- पैमां 
बस अपना वक़्त गँवा लूँ  अगर इजाज़त  हो 

जुनूं वही है वही मैं मगर है शहर नया 
यहाँ भी  शोर मचा  लूँ अगर इजाज़त हो 

किसे है ख़्वाहिश-ए-मरहम-गरी मगर फिर भी 
मैं अपने ज़ख्म दिखा लूँ अगर इजाज़त हो 

तुम्हारी याद में जीने की आरज़ू है अभी 
कुछ अपना हाल संभालूँ अगर इजाज़त हो .
-------------
63-
कभी कभी तो बहुत याद आने लगते हो
कि रूठते हो कभी और मनाने लगते हो

गिला तो ये है तुम आते नहीं कभी लेकिन 
जब आते भी हो तो फ़ौरन ही जाने लगते हो

तुम्हारी शायरी क्या है भला, भला क्या है
तुम अपने दिल की उदासी को गाने लगते हो

ये बात 'जौन' तुम्हारी मज़ाक़ है कि नहीं
कि जो भी हो उसे तुम आज़माने लगते हो

जॉन एलिया 
--------