यादों का हिसाब रख रहा हूँ
सीने में अज़ाब रख रहा हूँ
तुम कुछ कहे जाओ क्या कहूँ मैं
बस दिल में जवाब रख रहा हूँ
दामन में किए हैं जमा गिर्दाब
जेबों में हबाब रख रहा हूँ
आएगा वो नख़वती सो मैं भी
कमरे को ख़राब रख रहा हूँ
तुम पर मैं सहीफ़ा-हा-ए-कोहना
इक ताज़ा किताब रख रहा हूँ
31
ख़ुद से हम इक नफ़स हिले भी कहाँ|
उस को ढूँढें तो वो मिले भी कहाँ|
ख़ेमा-ख़ेमा गुज़ार ले ये शब,
सुबह-दम ये क़ाफिले भी कहाँ|
अब त’मुल न कर दिल-ए- ख़ुदकाम,
रूठ ले फिर ये सिलसिले भी कहाँ|
आओ आपस में कुछ गिले कर लें,
वर्ना यूँ है के फिर गिले भी कहाँ|
ख़ुश हो सीने की इन ख़राशों पर,
फिर तनफ़्फ़ुस के ये सिले भी कहाँ|
32-
रंज है हालत-ए-सफ़र हाल-ए-क़याम रंज है
सुब्ह-ब-सुब्ह रंज है शाम-ब-शाम रंज है
उस की शमीम-ए-ज़ुल्फ़ का कैसे हो शुक्रिया अदा
जब के शमीम रंज है जब के मशाम रंज है
सैद तो क्या के सैद-कार ख़ुद भी नहीं ये जानता
दाना भी रंज है यहाँ यानी के दाम रंज है
मानी-ए-जावेदान-ए-जाँ कुछ भी नहीं मगर ज़ियाँ
सारे कलीम हैं ज़ुबूँ सारा कलाम रंज है
बाबा अलिफ़ मेरी नुमूद रंज है आप के ब-क़ौल
क्या मेरा नाम भी है रंज हाँ तेरा नाम रंज है
कासा गदा-गरी का है नाफ़ प्याला यार का
भूक है वो बदन तमाम वस्ल तमाम रंज है
जीत के कोई आए तब हार के कोई आए तब
जौहर-ए-तेग़ शर्म है और नियाम रंज है
दिल ने पढ़ा सबक़ तमाम बूद तो है क़लक़ तमाम
हाँ मेरा नाम रंज है हाँ तेरा नाम रंज है
पैक-ए-क़ज़ा है दम-ब-दम ‘जौन’ क़दम क़दम शुमार
लग़्ज़िश-ए-गाम रंज है हुस्न-ए-ख़िराम रंज है
बाबा अलिफ़ ने शब कहा नश्शा-ब-नश्शा कर गिले
जुरआ-ब-जुरआ रंज है जाम-ब-जाम रंज है
आन पे हो मदार क्या बूद के रोज़गार का
दम हमा-दम है दूँ ये दम वहम-ए-दवाम रंज है
रज़्म है ख़ून का हज़र कोई बहाए या बहे
रुस्तम ओ ज़ाल हैं मलाल यानी के साम रंज है
33-
हमारे शौक के आंसू दो, खुशहाल होने तक
तुम्हारे आरज़ू केसो का सौदा हो चुका होगा
अब ये शोर-ए-हाव हूँ सुना है सारबानो ने
वो पागल काफिले की ज़िद में पीछे रह गया होगा
है निस-ए-शब वो दिवाना अभी तक घर नहीं आया
किसी से चान्दनी रातों का किस्सा छिड़ गया होगा
34-
अख़लाक़ न बरतेंगे मुदारा न करेंगे
अब हम किसी शख़्स की परवाह न करेंगे
कुछ लोग कई लफ़्ज़ ग़लत बोल रहे हैं
इसलाह मगर हम भी अब इसलाह न करेंगे
कमगोई के एक वस्फ़-ए-हिमाक़त है बहर तो
कमगोई को अपनाएँगे चहका न करेंगे
अब सहल पसंदी को बनाएँगे वातिरा
ता देर किसी बाब में सोचा न करेंगे
ग़ुस्सा भी है तहज़ीब-ए-तआल्लुक़ का तलबगार
हम चुप हैं भरे बैठे हैं गुस्सा न करेंगे
कल रात बहुत ग़ौर किया है सो हम ए “जॉन”
तय कर के उठे हैं के तमन्ना न करेंगे
35-
एक ही मुश्दा सुभो लाती है
ज़हन में धूप फैल जाती है
सोचता हूँ के तेरी याद आखिर
अब किसे रात भर जगाती है
फर्श पर कागज़ो से फिरते है
मेज़ पर गर्द जमती जाती है
मैं भी इज़न-ए-नवागरी चाहूँ
बेदिली भी तो नब्ज़ हिलाती है
आप अपने से हम सुखन रहना
हमनशी सांस फूल जाती है
आज एक बात तो बताओ मुझे
ज़िन्दगी ख्वाब क्यो दिखाती है
क्या सितम है कि अब तेरी सूरत
गौर करने पर याद आती है
कौन इस घर की देख भाल करे
रोज़ एक चीज़ टूट जाती है
36-
अब जुनूँ कब किसी के बस में है
उसकी ख़ुशबू नफ़स-नफ़स में है
हाल उस सैद का सुनाईए क्या
जिसका सैयाद ख़ुद क़फ़स में है
क्या है गर ज़िन्दगी का बस न चला
ज़िन्दगी कब किसी के बस में है
ग़ैर से रहियो तू ज़रा होशियार
वो तेरे जिस्म की हवस में है
बाशिकस्ता बड़ा हुआ हूँ मगर
दिल किसी नग़्मा-ए-जरस में है
‘जॉन’ हम सबकी दस्त-रस में है
वो भला किसकी दस्त-रस में है
37-
सर येह फोड़िए अब नदामत में
नीन्द आने लगी है फुरकत में
हैं दलीलें तेरे खिलाफ मगर
सोचता हूँ तेरी हिमायत में
इश्क को दरम्यान ना लाओ के मैं
चीखता हूँ बदन की उसरत में
ये कुछ आसान तो नहीं है कि हम
रूठते अब भी है मुर्रबत में
वो जो तामीर होने वाली थी
लग गई आग उस इमारत में
वो खला है कि सोचता हूँ मैं
उससे क्या गुफ्तगू हो खलबत में
ज़िन्दगी किस तरह बसर होगी
दिल नहीं लग रहा मुहब्बत में
मेरे कमरे का क्या बया कि यहाँ
खून थूका गया शरारत में
रूह ने इश्क का फरेब दिया
ज़िस्म को ज़िस्म की अदावत में
अब फकत आदतो की वर्जिश है
रूह शामिल नहीं शिकायत में
ऐ खुदा जो कही नहीं मौज़ूद
क्या लिखा है हमारी किस्मत में
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38-
यह गम क्या दिल की आदत है? नहीं तो
किसी से कुछ शिकायत है? नहीं तो
है वो इक ख्वाब-ए-बे ताबीर इसको
भुला देने की नीयत है? नहीं तो
किसी के बिन किसी की याद के बिन
जिए जाने की हिम्मत है ? नहीं तो
किसी सूरत भी दिल लगता नहीं? हाँ
तू कुछ दिन से यह हालत हैं? नहीं तो
तेरे इस हाल पर हैं सब को हैरत
तुझे भी इस पर हैरत है? नहीं तो
वो दरवेशी जो तज कर आ गया…..तू
यह दौलत उस की क़ीमत है? नहीं तो
हुआ जो कुछ यही मक़्सूम था क्या
यही सारी हकायत है ? नहीं तो
अज़ीयत नाक उम्मीदों से तुझको
अमन पाने की हसरत है? नहीं तो
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39-
चलो बादे-ए-बहार ही जा रही है
पीया जी की सवारी जा रही है...
जो इन रोज़ों, मेरा ग़म है, वो ये है,
के ग़म से बुर्दबारी जा रही है..
है सीने में अजब एक हश्र बरपा
के दिल से बे-करारी जा रही है..
मैं पैहम हार कर, ये सोचता हूं
वो क्या शय है, जो हारी जा रही है..
दिल उसके रू-ब-रू है, और गुम-सुम
कोई अर्ज़ी गुज़ारी जा रही है...
वो स़य्यद बचा हो और शैख़ के साथ
मियाँ इज्ज़त हमारी जा रही है..
है बरपा हर गली में शोरे-ए-नग़्मा
मेरी फ़रियाद मारी जा रही है..
है पहलू में टके की एक हसीना
तेरी फ़ुरकत ग़ुजारी जा रही है...
बहुत बद-हाल है बस्ती तिरे लोगे
तो फिर क्यूँ सवारी जा रही है
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40-
किसी से अहदो पेमा करना रहीयो
तू इस बस्ती में रहीयों, पर न रहियो
नज़र पर बार हो जाते हैं मंज़र
जहां रहीयो वहाँ अक्सर न रहीयों
सवेरे ही से घर आ जायो आज
है रोज़-ए-वाक्या बाहर न रहीयो
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41-
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उसके पहलू से लग के चलते हैं
हम कहीं टालने से टलते हैं
मै उसी तरह तो बहलता हूँ
और सब जिस तरह बहलतें हैं
वो है जान अब हरेक महफ़िल की
हम भी अब घर से कम निकलते हैं
क्या तकल्लुफ्फ़ करें ये कहने में
जो भी खुश है हम उससे जलते हैं
है उसे दूर का सफ़र दरपेश
हम संभाले नहीं संभलते हैं
है अजब फैसले का सेहरा भी
चल न पड़िए तो पाँव ज़लते हैं
हो रहा हूँ मैं किस तरह बर्बाद
देखने वाले हाथ मलते हैं
तुम बनो रंग तुम बनो खुशबू
हम तो अपने सुखन में ढलते हैं
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42
आगे असबे खूनी चादर और खूनी परचम निकले
जैसे निकला अपना जनाज़ा ऐसे जनाज़े कम निकले
दौर अपनी खुश-दर्दी रात बहुत ही याद आया
अब जो किताबे शौक निकाली सारे वरक बरहम निकले
है ज़राज़ी इस किस्से की, इस किस्से को खतम करो
क्या तुम निकले अपने घर से, अपने घर से हम निकले
मेरे कातिल, मेरे मसिहा, मेरी तरहा लासनी है
हाथो मे तो खंजर चमके, जेबों से मरहम निकले
'जॉन' शहादतजादा हूँ मैं और खूनी दिल निकला हूँ
मेरा जूनू उसके कूचे से कैसे बेमातम निकले
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43
उम्र गुज़रेगी इम्तहान में क्या?
दाग ही देंगे मुझको दान में क्या?
मेरी हर बात बेअसर ही रही
नुक्स है कुछ मेरे बयान में क्या?
बोलते क्यो नहीं मेरे हक में
आबले पड़ गये ज़बान में क्या?
हमको तो कोई टोकता भी नहीं
यही होता है खानदान मे क्या?
अपनी महरूमिया छुपाते है
हम गरीबो की आन-बान में क्या?
वो मिले तो ये पूछना है मुझे
अब भी हूँ मै तेरी अमान में क्या?
यूँ जो तकता है आसमान को तू
कोई रहता है आसमान में क्या?
है नसीम-ए-बहार गर्दालूद
खाक उड़ती है उस मकान में क्या?
ये मुझे चैन क्यो नहीं पड़ता
एक ही शक्स था जहान में क्या?
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44-
कोई हालत नहीं ये हालत है
ये तो आशोभना सूरत है
अंजूमन में ये मेरी खामोशी
बर्दबारी नहीं है वहशत है
तुझसे ये गाह गाह का शिकवा
जब तलक है बस-गनीमत है
ख्वाहिशें दिल का साथ छोड़ गयीं
ये अज़ियत बड़ी अज़ियत है
लोग मसरूफ जानते है मुझे
या मेरा गम ही मेरी फूर्सत है
तंज़ पैरा-ए-तबस्सुम में
इस तकल्लुफ कि क्या ज़रूरत है
हमने देखा तो हमने ये देखा
जो नहीं है वो खूबसूरत है
वार करने को जानिसार अायें
ये तो ईसार है इनायत है
गर्म-जोशी और इस कदर क्या बात
क्या तुम्हे मुझसे कुछ शिकायत है
अब निकाल अाओ अपने अंदर से
घर में सामान की ज़रूरत है
आज का दिन भी ऐश से गुजरा
सर से पा तक बदन सलामत है
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45-
एक हुनर है जो कर गया हूँ मैं
सब के दिल से उतर गया हूँ मैं
कैसे अपनी हँसी को ज़ब्त करूँ
सुन रहा हूँ के घर गया हूँ मैं
क्या बताऊँ के मर नहीं पाता
जीते जी जब से मर गया हूँ मैं
अब है बस अपना सामना दरपेश
हर किसी से गुज़र गया हूँ मैं
वो ही नाज़-ओ-अदा, वो ही ग़मज़े
सर-ब-सर आप पर गया हूँ मैं
अजब इल्ज़ाम हूँ ज़माने का
के यहाँ सब के सर गया हूँ मैं
कभी खुद तक पहुँच नहीं पाया
जब के वाँ उम्र भर गया हूँ मैं
तुम से जानां मिला हूँ जिस दिन से
बे-तरह, खुद से डर गया हूँ मैं
कू–ए–जानां में सोग बरपा है
के अचानक, सुधर गया हूँ मै
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46-
जी ही जी में वो जल रही होगी
चाँदनी में टहल रहीं होगी
चाँद ने तान ली है चादर-ए-अब्र
अब वो कपड़े बदल रही होगी
सो गई होगी वो शफ़क़ अन्दाम
सब्ज़ किन्दील जल रही होगी
सुर्ख और सब्ज़ वादियों की तरफ
वो मेरे साथ चल रही होगी
चढ़ते-चढ़ते किसी पहाड़ी पर
अब तो करवट बदल रही होगी
नील को झील नाक तक पहने
सन्दली जिस्म मल रही होगी
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47-
गाहे-गाहे बस अब तही हो क्या
तुम से मिल कर बहुत खुशी हो क्या?
मिल रही हो बड़े तपाक के साथ
मुझ को अक्सर भुला चुकी हो क्या?
याद हैं अब भी अपने ख्वाब तुम्हें
मुझ से मिलकर उदास भी हो क्या?
बस मुझे यूँ ही एक ख़याल आया
सोचती हो तो सोचती हो क्या?
अब मेरी कोई ज़िन्दगी ही नहीं
अब भी तुम मेरी ज़िन्दगी हो क्या?
अब मैं सारे जहां मैं हूं बदनाम
अब भी तुम मुझ को जानती हो क्या?
क्या कहा इश्क जाबेदानी है
आखरी बार मिल रही हो क्या?
है फज़ा याँ की सोई-सोई सी
तुम बहुत तेज़ रोशनी हो क्या?
मेरे सब तंज़ बेअसर ही रहे
तुम बहुत दूर जा चुकी हो क्या?
दिल में अब सोज़े-इंतज़ार नहीं
शम्मे उम्मीद बुझ गई हो क्या?
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48-
तुम हक़ीक़त नहीं हो हसरत हो
जो मिले ख़्वाब में वो दौलत हो
तुम हो ख़ुशबू के ख़्वाब की ख़ुशबू
औए इतने ही बेमुरव्वत हो
तुम हो पहलू में पर क़रार नहीं
यानी ऐसा है जैसे फुरक़त हो
है मेरी आरज़ू के मेरे सिवा
तुम्हें सब शायरों से वहशत हो
किस तरह छोड़ दूँ तुम्हें जानाँ
तुम मेरी ज़िन्दगी की आदत हो
किसलिए देखते हो आईना
तुम तो ख़ुद से भी ख़ूबसूरत हो
दास्ताँ ख़त्म होने वाली है
तुम मेरी आख़िरी मुहब्बत हो
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49
दिल ने वफ़ा के नाम पर कार-ए-जफ़ा नहीं किया
ख़ुद को हलाक कर लिया ख़ुद को फ़िदा नहीं किया
कैसे कहें के तुझ को भी हमसे है वास्ता कोई
तूने तो हमसे आज तक कोई गिला नहीं किया
तू भी किसी के बाब में अहद-शिकन हो ग़ालिबन
मैं ने भी एक शख़्स का क़र्ज़ अदा नहीं किया
जो भी हो तुम पे मौतरिज़ उस को यही जवाब दो
आप बहुत शरीफ़ हैं आप ने क्या नहीं किया
जिस को भी शेख़-ओ-शाह ने हुक्म-ए-ख़ुदा दिया क़रार
हमने नहीं किया वो काम हाँ बा-ख़ुदा नहीं किया
निस्बत-ए-इल्म है बहुत हाकिम-ए-वक़्त को अज़ीज़
उस ने तो कार-ए-जेहन भी बे-उलामा नहीं किया
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50-
बेदिली! क्या यूँ ही दिन गुजर जायेंगे
सिर्फ़ ज़िन्दा रहे हम तो मर जायेंगे
ये खराब आतियाने, खिरद बाख्ता
सुबह होते ही सब काम पर जायेंगे
कितने दिलकश हो तुम कितना दिलजूँ हूँ मैं
क्या सितम है कि हम लोग मर जाएंगे
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51-
महक उठा है आँगन इस ख़बर से
वो ख़ुशबू लौट आई है सफ़र से
जुदाई ने उसे देखा सर-ए-बाम
दरीचे पर शफ़क़ के रंग बरसे
मैं इस दीवार पर चढ़ तो गया था
उतारे कौन अब दीवार पर से
गिला है एक गली से शहर-ए-दिल की
मैं लड़ता फिर रहा हूँ शहर भर से
उसे देखे ज़माने भर का ये चाँद
हमारी चाँदनी छाए तो तरसे
मेरे मानन गुज़रा कर मेरी जान
कभी तू खुद भी अपनी रहगुज़र से
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52-
इक गली थी जब उस से हम निकले
ऐसे निकले कि जैसे दम निकले
कूचा -ए-आरज़ू जो था उस में
ज़ुल्फ़-ए- जानां तरह के ख़म निकले
जो फिरे दर-ब-दर यहां वो लोग
अपने बाहर बहुत ही कम निकले
आग इस शहर में लगी जिस दिन
सबसे आख़िर में यहां से हम निकले
------------
53-
शौक़ का रंग बुझ गया याद के ज़ख़्म भर गए
क्या मेरी फ़सल हो चुकी क्या मेरे दिन गुज़र गए
शाम है कितनी बे तपाक शहर है कितना सहम नाक
हम-नफ़सो!कहाँ हो तुम, जाने सब किधर गए
पास-ए-हयात का ख़्याल हमको बहुत बुरा लगा
पस बह हुजूम-ए-मार्का जान कि बे-सिपर गए
मैं तो सफ़ों के दरमियाँ कब से पड़ा हूँ नीम-जाँ
मेरे तमाम जांनिसार मेरे लिए तो मर गए
शाहिद-ए-रोज़ वाक़िया सूरत-ए-माजरा है क्या
कितने जत्थे बिखर गए कितने हुजूम मर गए
ख़ुश नफसान-ए-बे नवा !बखैरान-ए-ख़ुश-अदा
तेरा नसीब थे मगर शहर में नाम कर गए
आप हैं जॉन एलिया सोचीए अब धरा है क्या
आप भी अब सिधारिए आपके चारागर गए
--------------
54-
जाने हम कौन हैं
जाने कब से
मुझे याद भी तो नहीं जाने कब से
हम इक साथ घर से निकलते हैं
और शाम को
एक ही साथ घर लौटते हैं
मगर हमने इक दूसरे से
कभी हाल-ए-पुर्सी नहीं की
ना इक दूसरे को
कभी नाम लेकर मुख़ातब किया
जाने हम कौन हैं
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55-
ज़ख़्म-ए-उम्मीद भर गया कब का
क़ैस तो अपने घर गया कब का
अब तो मुँह अपना मत दिखाओ मुझे
नासेहो में सुधर गया कब का
आप अब पूछने को आए हैं
दिल मेरी जान मर गया कब का
आप इक और नींद ले लीजिए
क़ाफ़िला कूच कर गया कब का
मेरा फ़हरिस्त से निकाल दो नाम
मैं तो ख़ुद से मुकर गया कब का
-------------
56
अपने सब यार काम कर रहे हैं
और हम हैं कि नाम कर रहे हैं
तेग़-बाज़ी का शौक़ अपनी जगह
आप तो क़तल-ए आम कर रहे हैं
दाद-ओ-तहसीन का ये शोर है क्यों
हम तो ख़ुद से कलाम कर रहे हैं
हम हैं मसरूफ़-ए-इंतिज़ाम मगर
जाने क्या इंतिज़ाम कर रहे हैं
है वो बेचारगी का हाल कि हम
हर किसी को सलाम कर रहे हैं
एक क़त्ताला चाहीए हमको
हम ये आलान-ए-आम कर रहे हैं
क्या भला सागर-ए-सिफ़ाल कि हम
नाफ़-प्याले को जाम कर रहे हैं
हम तो आए थे अर्ज़-ए-मतलब को
और वो एहतिराम कर रहे हैं
ना उठे आह का धूवां भी कि वो
कू-ए-दिल में ख़िराम कर रहे हैं
उस के होंटों पे रख के होंट अपने
बात ही हम तमाम कर रहे हैं
हम अजब हैं कि उस के कूचे में
बेसबब धूम धाम कर रहे हैं
-------------------
57-
अब किसी से मेरा हिसाब नहीं
मेरी आँखों में कोई ख्वाब नहीं
ख़ून के घूँट पी रहा हूँ में
ये मेरा ख़ून है, शराब नहीं
मैं शराबी हूँ मेरी आस न छीन
तु मेरी आस है शराब नहीं
नोच फेंके लबों से मैंने सवाल
ताकत-ए-शोख़ी-ए-जवाब नहीं
अब तो पंजाब भी नहीं पंजाब
और ख़ुद जैसा अब दो आब नहीं
गुम अबद का नहीं है उनका है
और उस का कोई हिसाब नहीं
बोदश इक रो है एक रो यानी
उस की फ़ितरत में इन्क़िलाब नहीं
---------------
58-
तिश्ना-कामी की सज़ा दो तो मज़ा आ जाये
तुम हमें ज़हर पिला दो तो मज़ा आ जाये
मीर-ए-महफ़िल बने बैठे हैं बड़े नाज़ से हम
हमें महफ़िल से उठा दो तो मज़ा आ जाये
तुमने एहसान किया था जो हमें चाहा था
अब वो एहसान जता दो तो मज़ा आ जाये
अपने यूसुफ़ की ज़ुलेख़ा की तरह तुम भी कभी
कुछ हसीनों से मिला दो तो मज़ा आ जाये
चैन पड़ता ही नहीं है तुम्हें अब मेरे बग़ैर
अब तुम्ही मुझको गंवा दो तो मज़ा आ जाये
------------
59-
हम तरह नाज़ थे , फिर तेरी ख़ुशी की ख़ातिर
कर के बेचारा तिरे सामने लाए भी गए
कजअदाई से सज़ा कज कुलही की पाई
मीर-ए-महफ़िल थे सौ महफ़िल से उठाए भी गए
क्या गिला ख़ून जो अब थूक रहे हैं जानां
हम तिरे रंग के परतौ से सजाये भी गए
हम से रूठा भी गया यम को मनाया भी गया
फिर सभी नक़्श ताल्लुक़ के मिटाए भी गए
जमा-ओ-तफ़रीक़ थे हम मकतब-ए-जिस्म-ओ-जां की
कि बढ़ाए भी गए और घटाए भी गए
जॉन ! दिल शहर-ए-हक़ीक़त को उजाड़ा भी गया
और फिर शहर तो्वहम के बसाए भी गए
---------------
60-
जो हुआ "जॉन" वो हुआ भी नही
यानी जो कुछ भी था वो था भी नही
बस गया जब वो शहर-ए-दिल में मेरे
फिर मैं इस शहर में रहा भी नही
इक अजब तौर हाल है कि जो है
यानी मैं भी नही खुदा भी नही
लम्हों से अब मुआमला क्या हो
दिल पे अब कुछ ग़ुजर रहा भी नही
जानिए मैं चला गया हूँ कहाँ
मैं तो खुद से कही गया भी नही
तू मिरे दिल में आन के बस जा
और तू मेरे पास आ भी नही
---------
61-
सर ये फोड़िए अब नदामत में
नीन्द आने लगी है फुर्कत में
हैं दलीलें तेरे खिलाफ मगर
सोचता हूँ तेरी हिमायत में
इश्क को दरम्यान न लाओ के मैं
चीखता हूँ बदन की उसरत में
ये कुछ आसान तो नहीं है कि हम
रूठते अब भी है मुर्रबत में
वो जो तामीर होने वाली थी
लग गई आग उस इमारत में
वो खला है कि सोचता हूँ मैं
उससे क्या गुफ्तगू हो खलबत में
ज़िन्दगी किस तरह बसर होगी
दिल नहीं लग रहा मुहब्बत में
मेरे कमरे का क्या बया कि यहाँ
खून थूका गया शरारत में
रूह ने इश्क का फरेब दिया
ज़िस्म को ज़िस्म की अदावत में
अब फकत आदतो की वर्जिश है
रूह शामिल नहीं शिकायत में
ऐ खुदा जो कही नहीं मौज़ूद
क्या लिखा है हमारी किस्मत में
---------------
62-
तुम्हारा हिज्र मना लूँ अगर इजाज़त हो
मैं दिल किसी से लगा लूँ अगर इजाज़त हो
तुम्हारे बाद भला क्या हैं वादा -ओ- पैमां
बस अपना वक़्त गँवा लूँ अगर इजाज़त हो
जुनूं वही है वही मैं मगर है शहर नया
यहाँ भी शोर मचा लूँ अगर इजाज़त हो
किसे है ख़्वाहिश-ए-मरहम-गरी मगर फिर भी
मैं अपने ज़ख्म दिखा लूँ अगर इजाज़त हो
तुम्हारी याद में जीने की आरज़ू है अभी
कुछ अपना हाल संभालूँ अगर इजाज़त हो .
-------------
63-