सईद कैस...
28 मई, 1927 को लाहौर में जन्मे सईद क़ैस को पढ़ने-लिखने का बचपन से ही शौक़ रहा। सन् 1950 से ही विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनकी ग़जलें प्रकाशित होती रही हैं। बकौल क़ैस ‘शायरी के फ़न में मैं अच्छे शेर को हमेशा अच्छा ही ख्याल करता हूं’। जमीन से जुड़े शायर सईद क़ैस की शायरी मनोभावों को कुरेदती है और ज्यादातर आम जिंदगी की असलियत का आईना होती है।
1-
कभी-कभी तो सितारा-शनास लगता हूं,
मैं ग़म पहन के बड़ा ख़ुश-लिबास लगता हूं।
मिरे लहू की ये तल्खी भी कुछ अजब शै है,
मैं दोस्तों को सरापा मिठास लगता हूं।
मिरे वुजूद में हैं गार मेरी सोचों के,
मैं अपनी रूह का कोई हिरास लगता हूं।
वो गुलिस्तां में है इक मीठे पानियों की नदी,
मैं रेत के किसी टीले की प्यास लगता हूं।
ये दूरियां तो फ़क़त रास्तों की हैं, ऐ दोस्त,
वगर्ना मैं तो तिरे आस-पास लगता हूं।
रहे-वफ़ा में मिरे ऩक्शे-पा सलामत है,
मैं माजियों के सफ़र का क़यास लगता हूं।
लहू-लहू मिरी सोचें हैं, जख्म-जख्म खयाल,
मैं तेरे हुस्ने-बदन का लिबास लगता हूं।
मायने:
सितारा-शनास=ज्योतिषी, ग्रहों को पहचानने वाला/ सरापा= सिर से पांव तक/ गार=गुफ़ा/ हिरास=भय/ वगर्ना=वरना/ माजियों=अतीत/ क़यास= विचार, अंदाज
2-
मुहब्बतो का वो छोटा सा सिलसिला ही गया
वो अजनबी था मिरे शहर से चला ही गया
ज़रा सी देर को उसका ख्याल आया तो
वो रौशनी की तरह मुझमे फैलता ही गया
जो प्यास बन के मेरे जेहन में रहा बरसो
वो शख्स खुद मुझे दरियाओ से मिला ही गया
वो संग-संग था शीशे की आदतों वाला
मेरे करीब से गुजरा तो टूटता ही गया
मै जब भी कैस सफर के लिये रवाना हुआ
वो दूर तक मुझे रस्ते में देखता ही गया -
सईद कैस
3-
एक नमी सी है आँख में झरना वरना क्या है।
सोच रहे हैं इन जख्मों ने भरना वरना क्या है।
छुप छुप कर रोने की आदत छूट गई है हमसे
दिल के एक जरा से खेल में हरना वरना क्या है।
तुम तो दरिया वाले हो तुमको हम बतलाएं क्या
हमने अपने रेत सराब में तरना वरना क्या है।
बारिश का मौसम जब था तो सोचा वोचा कब था
अब दिल विल का बर्तन वर्तन भरना वरना क्या है।
इक वक्फा है कैस जिसे हम मौत समझ लेते हैं
जीस्त का नाम बदल देते हैं मरना वरना क्या है।
4-
सोने के दिल मिट्टी के घर पीछे छोड़ आए है
जो गलियाँ वो शहर के मंज़र पीछे छोड़ आए है
अपने आइने को हम नें रोग लगा रक्खा है
क्या क्या चेहरे हम शीशागर पीछे छोड़ आए है
तुम अपने दरिया का रोना रोने आ जाते हो
हम तो अपने सात समंुदर पीछे छोड़ आए है
देखा हम ने अपनी जान पर क्या ज़ुल्म किया
फूल सा चेहरा चाँद सा पैकर पीछे छोड़ आए है
हम भी क्या पागल थे अपने प्यार की सारी पूँजी
उसकी इक इक याद बचा कर पीछे छोड़ आए है
मंजिल से अब दूर निकल आए है 'कैस' तो खुश है
हम-साए के कुते का डर पीछे छोड़ आए है
प्रस्तुति - युध्द राज
28 मई, 1927 को लाहौर में जन्मे सईद क़ैस को पढ़ने-लिखने का बचपन से ही शौक़ रहा। सन् 1950 से ही विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनकी ग़जलें प्रकाशित होती रही हैं। बकौल क़ैस ‘शायरी के फ़न में मैं अच्छे शेर को हमेशा अच्छा ही ख्याल करता हूं’। जमीन से जुड़े शायर सईद क़ैस की शायरी मनोभावों को कुरेदती है और ज्यादातर आम जिंदगी की असलियत का आईना होती है।
1-
कभी-कभी तो सितारा-शनास लगता हूं,
मैं ग़म पहन के बड़ा ख़ुश-लिबास लगता हूं।
मिरे लहू की ये तल्खी भी कुछ अजब शै है,
मैं दोस्तों को सरापा मिठास लगता हूं।
मिरे वुजूद में हैं गार मेरी सोचों के,
मैं अपनी रूह का कोई हिरास लगता हूं।
वो गुलिस्तां में है इक मीठे पानियों की नदी,
मैं रेत के किसी टीले की प्यास लगता हूं।
ये दूरियां तो फ़क़त रास्तों की हैं, ऐ दोस्त,
वगर्ना मैं तो तिरे आस-पास लगता हूं।
रहे-वफ़ा में मिरे ऩक्शे-पा सलामत है,
मैं माजियों के सफ़र का क़यास लगता हूं।
लहू-लहू मिरी सोचें हैं, जख्म-जख्म खयाल,
मैं तेरे हुस्ने-बदन का लिबास लगता हूं।
मायने:
सितारा-शनास=ज्योतिषी, ग्रहों को पहचानने वाला/ सरापा= सिर से पांव तक/ गार=गुफ़ा/ हिरास=भय/ वगर्ना=वरना/ माजियों=अतीत/ क़यास= विचार, अंदाज
2-
मुहब्बतो का वो छोटा सा सिलसिला ही गया
वो अजनबी था मिरे शहर से चला ही गया
ज़रा सी देर को उसका ख्याल आया तो
वो रौशनी की तरह मुझमे फैलता ही गया
जो प्यास बन के मेरे जेहन में रहा बरसो
वो शख्स खुद मुझे दरियाओ से मिला ही गया
वो संग-संग था शीशे की आदतों वाला
मेरे करीब से गुजरा तो टूटता ही गया
मै जब भी कैस सफर के लिये रवाना हुआ
वो दूर तक मुझे रस्ते में देखता ही गया -
सईद कैस
3-
एक नमी सी है आँख में झरना वरना क्या है।
सोच रहे हैं इन जख्मों ने भरना वरना क्या है।
छुप छुप कर रोने की आदत छूट गई है हमसे
दिल के एक जरा से खेल में हरना वरना क्या है।
तुम तो दरिया वाले हो तुमको हम बतलाएं क्या
हमने अपने रेत सराब में तरना वरना क्या है।
बारिश का मौसम जब था तो सोचा वोचा कब था
अब दिल विल का बर्तन वर्तन भरना वरना क्या है।
इक वक्फा है कैस जिसे हम मौत समझ लेते हैं
जीस्त का नाम बदल देते हैं मरना वरना क्या है।
4-
सोने के दिल मिट्टी के घर पीछे छोड़ आए है
जो गलियाँ वो शहर के मंज़र पीछे छोड़ आए है
अपने आइने को हम नें रोग लगा रक्खा है
क्या क्या चेहरे हम शीशागर पीछे छोड़ आए है
तुम अपने दरिया का रोना रोने आ जाते हो
हम तो अपने सात समंुदर पीछे छोड़ आए है
देखा हम ने अपनी जान पर क्या ज़ुल्म किया
फूल सा चेहरा चाँद सा पैकर पीछे छोड़ आए है
हम भी क्या पागल थे अपने प्यार की सारी पूँजी
उसकी इक इक याद बचा कर पीछे छोड़ आए है
मंजिल से अब दूर निकल आए है 'कैस' तो खुश है
हम-साए के कुते का डर पीछे छोड़ आए है
प्रस्तुति - युध्द राज