सोमवार, 25 अगस्त 2014

लोकप्रिय शायर- मुनव्वर राना की ग़ज़लें 
(1)
जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है 
माँ दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती है 

रोज़ मैं अपने लहू उसे खत लिखता हूँ 
रोज़ ऊँगली मेरी तेज़ाब में आ जाती है 

दिल की गलियों से तेरी याद निकलती ही नहीं 
सोहनी फिर इसी पंजाब में आ जाती है 

रात भर जागते रहने का सिला है शायद 
तेरी तस्वीर सी महताब में आ जाती है 

एक कमरे में बसर करता है सारा कुनबा 
सारी दुनिया दिले बेताब में आ जाती है 

ज़िन्दगी तू भी भिखारिन की रिदा ओढ़े हुए 
कूचा -ए -रेशम -ओ -कमख़्वाब में आ जाती है 

दुःख किसी का हो छलक जाती है मेरी आँखे 
सारी मिट्टी मेरे तालाब में आ जाती है
(2)
दुनिया तेरी रौनक से मैं अब ऊब रहा हूँ
तू चाँद मुझे कहती थी मैं डूब  रहा हूँ 


अब कोई शनासा भी दिखाई नहीं देता 
बरसों मैं इसी शहर का महबूब रहा हूँ 

मैं ख़्वाब नहीं आपकी आँखों की तरह था 
मैं आपका लहजा नहीं अस्लूब रहा हूँ 

इस शहर के पत्थर भी गवाही मेरी देंगे 
सहरा भी बता देगा कि मजज़ूब रहा हूँ 

रुसवाई मेरे नाम से मन्सूब रही है 
मैं खुद कहाँ रुसवाई से मन्सूब रहा हूँ 

दुनिया मुझे साहिल से खड़ी देख रही है 
मैं एक जज़ीरे की तरह डूब रहा हूँ 

फेंक आये थे मुझको भी मेरे भाई कुँए में 
मैं सब्र से भी हज़रते अय्यूब रहा हूँ 
तीन 
मुहब्बत करने वालों में ये झगड़ा डाल देती है 
सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है 

तवायफ़ की तरह अपने गलत कामों के चेहरे पर 
हुकूमत मन्दिर -ओ -मस्जिद का पर्दा डाल देती है 

हुकूमत मुँह -भराई के हुनर से खूब वाकिफ़ है 
ये हर कुत्ते के आगे शाही टुकड़ा डाल देती है 

कहाँ की हिजरतें ,कैसा सफ़र ,कैसा जुदा होना 
किसी की चाह पैरों पर दुपट्टा डाल देती है 

ये चिड़िया भी मेरी बेटी से कितना मिलती -जुलती है 
कहीं भी शाख -ए -गुल देखे तो झूला डाल देती है 

हसद की आग में जलती है सारी रात वो औरत 
मगर सौतन के आगे अपना जूठा डाल देती है 
चार 
हमारी ज़िन्दगी का इस तरह हर साल कटता है 
कभी गाड़ी पलटती है ,कभी तिरपाल कटता है 

दिखाते हैं पड़ोसी मुल्क आँखे तो दिखाने दो 
कहीं बच्चों के बोसे से भी माँ का गाल कटता है 

इसी उलझन में अक्सर रात आँखों में गुजरती है 
बरेली को बचाते हैं तो नैनीताल कटता है 

कभी रातों के सन्नाटे में भी निकला करो घर से 
कभी देखा करो गाड़ी से कैसे माल कटता है 

सियासी वार भी तलवार से कुछ कम नहीं होता 
कभी कश्मीर जाता है ,कभी बंगाल कटता है 
पांच 
शरीफ़ इंसान आखिर क्यों इलेक्शन हार जाता है 
किताबों में तो लिक्खा है कि रावन हार जाता है 

जुड़ी हैं इससे तहज़ीबें सभी तस्लीम करते हैं 
नुमाइश में मगर मिट्टी का बरतन हार जाता है 

मुझे मालूम है तूमनें बहुत बरसातें देखी है 
मगर मेरी इन्हीं आँखों से सावन हार जाता है 

अभी मौजूद है इस गाँव की मिट्टी में खुद्दारी 
अभी बेवा की गैरत से महाजन हार जाता है 

अगर एक कीमती बाज़ार की सूरत है दुनिया 
तो फिर क्यों काँच की चूड़ी से कंगन हार जाता है
छः 
मुख़्तसर होते हुए भी ज़िन्दगी बढ़ जायेगी 
माँ की ऑंखें चूम लीजै रौशनी बढ़ जायेगी 

मौत का आना तो तय है मौत आयेगी मगर 
आपके आने से थोड़ी ज़िन्दगी बढ़ जायेगी 

इतनी चाहत से न देखा कीजिए महफ़िल में आप 
शहर वालों से हमारी दुशमनी बढ़ जायेगी 

आपके हँसने से खतरा और भी बढ़ जायेगा 
इस तरह तो और आँखों की नमी बढ़ जायेगी 

बेवफ़ाई खेल है इसको नज़र अंदाज़ कर 
तज़किरा करने से तो शरमिन्दगी बढ़ जायेगी 
सात 
मैं इसके नाज़ उठाता हूँ सो ये ऐसा नहीं करती 
ये मिटटी मेरे हाथों को कभी मैला नहीं करती 

खिलौनों की दुकानों की तरफ़ से आप क्यूँ गुज़रे 
ये बच्चे की तमन्ना है ये समझौता नहीं करती 

शहीदों की ज़मीं है इसको हिन्दुस्तान कहते हैं 
ये बन्जर होके भी बुज़दिल कभी पैदा नहीं करती 

मोहब्बत क्या है दिल के सामने मजबूर हो जाना 
जुलेखा वरना  यूसुफ का कभी सौदा नहीं करती 

गुनहगारों की सफ़ में रख दिया मुझको ज़रूरत ने 
मैं नामरहम हूँ लेकिन मुझसे ये परदा नहीं करती 

अजब दुनिया है तितली के परों को नोच लेती है 
अजब तितली है पर नुचने पे भी रोया नहीं करती 
आठ 
गुलाब रंग को तेरे कपास होना पड़े 
न इतना हँस कि तुझे देवदास होना पड़े 

बला से जाती हैं आँखे तो फिर चली जायें 
मैं उसको देख लूँ फिर देवदास होना पड़े 

ये आरज़ू है कि गुज़रे इधर से वो चाहे 
हमारी पलकों को रस्ते की घास होना पड़े 

ये मोड़ वो है जहाँ खुदकुशी भी जाएज़ है 
मेरी अना को अगर बेलिबास होना पड़े
नौ
कोयल बोले या गौरैया अच्छा लगता है 
अपने गाँव में सब कुछ भैया अच्छा लगता है 

तेरे आगे माँ भी मौसी लगती है 
तेरी गोद में गंगा मैया अच्छा लगता है 

कागा की आवाज़ भी चिट्ठी जैसी लगती है 
पेड़ पे बैठा एक गवैया अच्छा लगता है 

माया -मोह बुढ़ापे में बढ़ जाता है 
बचपन में बस एक रुपैया अच्छा लगता है 

खुद ही डांटे ,खुद ही लगाये सीने से 
प्यार में उसका ये भी रवैया अच्छा लगता है 
दस -मुनव्वर राना की हस्तलिपि में कुछ शेर 


 वो जब याद आये...
भारतीय सिनेमा जगत में बी.आर.चोपडा को एक ऐसे फिल्मकार के रुप में याद किया जाता है जिन्होंने पारिवारिक, सामाजिक और साफ सुथरी फिल्मे बनाकर लगभग पांच दशक तक सिने प्रेमियों के दिल में अपनी खास पहचान बनाई। 22 अप्रैल 1914 को पंजाब के लुधियाना शहर में जन्में बी.आर. चोपडा बलदेव राज चोपडा बचपन के दिनों से ही फिल्म में काम कर शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचना चाहते थे।
बी.आर.चोपडा ने अपने कैरियर की शुरूआत बतौर फिल्म पत्रकार के रूप में की। फिल्मी पत्रिका 'सिने हेराल्ड' में फिल्मों की समीक्षा लिखा करते थे। वर्ष 1949 में फिल्म 'करवट'से उन्होंने फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कदम रखा लेकिन दुर्भाग्य से यह फिल्म बॉक्स आॅफिस पर बुरी तरह फ्लाॅफ रही वर्ष 1951 में अशोक कुमार अभिनीत फिल्म 'अफसाना' को बी.आर.चोपडा ने निर्देशित किया।फिल्म ने बॉक्स आॅफिस पर हिट साबित हुई । फिल्म की सफलता के बाद बी.आर. चोपडा फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने में  सफल हो गए । वर्ष 1955 मे बी.आर. चोपडा ने  .बी.आर.फिल्मस बैनर का निर्माण किया । 'एक ही रास्ता' ने बी.आर. चोपडा के लिए सफलता के सारे दरवाजे खोल दिए । इसमें विधवा विवाह की मार्मिक अपील थी । अशोक कुमार और मीना कुमारी ने अपने भावप्रवण अभिनय के माध्यम से दर्शकों का दिल जीत लिया । 1957 आई 'नया दौर' में मूल संस्करण मे दिलीप कुमार -मधुबाला की जोड़ी थी पर बाद में किसी कारण वंश मधुबाला की जगह वैजयंती माला को लिया गया । जब 'नया दौर' की कहानी का आइडिया फिल्मकार महबूब खान,एस.एस.वासन और एस.मुखर्जी तक पहुंचा, तो उन्होने बी.आर.चोपडा हंसी उड़ीई कि वे एक तांगे वाले पर फिल्म बनाकर पैसा बर्बाद कर रहे है, और जब नायक के रूप में दिलीप कुमार से संपर्क किया तो पहले कहानी सुनने तक से इन्कार कर दिया था, पर बाद में राजी हो गये । फिल्म मंुबई में 25 सप्ताह तक हाऊसफुल के साथ चली ।सिल्वर जुबली समारोह में महबूब खान मुख्य अतिथि के रूप में आए । 'नया दौर' का संगीत ओ. पी. नैयर ने अपनी फड़कती शैली में दिया 'ऊड़े जब जब जुल्फे तेरी', 'रेशमी सलवार कुर्ता जाली का' और समाजवादी गीत 'साथी हाथ बढ़ाना' । साहिर का तांगा-'मांग के साथ तुम्हारा मैने माग लिया संसार' गीत भी श्रोताओं को बहुत पंसद आया । फिल्म 'नया दौर' में मानवतावाद की आधुनीक और सामंतवाद पर जीत के साथ इंसान और मशीन के रिश्तों को भी गहराई के साथ रेखांकित किया गया है। फिल्म 'साधना' [1958] में स्त्री के वेश्य होनी की व्यथा-कथा और समाज के लोगों द्वारा इस पेशे में धकेल दिए जाने की दास्तान है । फिल्म 'धुल का फूल' [1959]  में शादी के बिना जन्मे बच्चे की कानूनी मान्यता का सबाल है। फिल्म 'धर्मपुत्र' [1960] हिंन्दू- मुस्लीम सांप्रदायिक सदभाव की अनूठी मिसाल है ।  बी.आर.चोपडा प्रयोगवादी फिल्मकार थे । पचास और साठ के दशक में जब तमाम हिन्दी फिल्मे आठ-दस नाच-गानो के साथ आती थी, तब  बी.आर.चोपडा ने नाच- गाने रहित फिल्म 'कानून' [1960] प्रदर्शित कर जोखिम ऊठा़या इसके बावूजद दर्शक यह देखने आए कि गीत रहित फिल्म आखिर  कैसी होगी । उन्होंने फिल्म के कोर्ट रूप ड्रामा को खूब आनंद लिया ।
'गुमराह'[1963] में भी हाई वोल्टेज ड्रामा था । फिल्म की नायका माला सिन्हा अपनी म्रत बहन के पति अशोक कुमार से जबरन ब्याह दी जाती है। शादी के बावजूद वह अपने प्रेमी सुनील दत से से लगातार मिलती रहती है। शशिकला खलनायिका के रूप में ब्लैकमेल करती है। अपनी मर्जी से या बेमर्जी से शादी की व्यवस्था पर यह फिल्म गहराई से पड़ताल करती है । साठ के दशक में पतिव्रता और पति को परमेश्वर मानने वाली स्त्री के लिए यह चौंकान वाली फिल्म थी । 1965 में देश की पहली मल्टीस्टारर फिल्म 'व़क्त' लेकर मैदान में आए इसमें उस दौर के महंगे सितारे बलराज साहनी, राजकुमार, सुनील दत, साधना, शर्मिला टैगोर, शशि कपूर और अचला सचदेव थे । पहली बार उच्च वर्ग और आपसी कलह को दिखाया गया था। 'वक़्त' फिल्म में वे सारे दर्शया थे जो आगे चलकर मनमोहन देसाई और प्रकाश मेहरा जैसे निर्देशकों के लिए फार्मूला बन गए । एक भूकंप में सुखी और धनी परिवार के तीन बेटे बिछुड़ जाते हैं । एक बेटा अनाथलय में है। दो बेटे एक ही लड़की के प्यार में एक दुसरे के अनजाने में दुश्मन बन जाते है। सुरज बड़जात्या, करण जौहर और आदित्य चौपड़ा ने अपनी फिल्मों में भव्य बंगले विशाल ड्राइंग रूम, तड़क भड़क का विलासी जीवन जो नब्बे के दशक में दिखाया, उस  बी.आर.चोपड़ा 'व़क्त' में हर तरीके से दिखा चुके थे। फिल्म के तीन गाने ' वक्त से दिन और रात'[रफी] 'ऐ मेरी जोहरा जबीं ' [मन्ना डे] 'आगे भी जाने ना तू' [आशा] बहुत लोकप्रिय हुए थे ।
'हमराज'[1967] में विधवा नायिका का प्रेमी इस बात की तलाश करता है पति जीवित है। इसकी अनोखी कथावस्तु दर्शकों काफी अच्छी लगी । 'आदमी और इन्सान'[1969] में श्रम समस्या और भ्रष्टाचार का चित्रण  बी.आर.चोपडा ने अपनी शैली में प्रस्तुत किया था। फिल्म 'दास्तान' 'कर्म' और ' द बर्निग ट्रेन' बी.आर.की फ्लाॅप फिल्में थी । इसके बाद 'पति पत्नि और वो' [1978] नामक काॅमेडी फिल्म बनाई । नायक संजीव कुमार अपनी सेक्रेट्री रंजीता कौर से प्यार की पींगे भरता है। पत्नी विद्दा सिन्हा अपने कोशिशों से पति को सही राह पर लाती है । लेकिन फिल्म के अंत में बिंदास परवीन बाॅबी नई सेक्रेट्री के रूप में ज्वाॅइन होकर फिर चक्कर चलाती है। इस फिल्मों से पहले बहुत कम हिंदी फिल्मों में इस तरह के कथानक आए थे ।
फिल्मों मे पहली पारी करने के बाद बी.आर.चोपडा ने छोटे परदे पर 'महाभारत' की भव्य रचना कर दूरदर्शन के लिए इतिहास बनाया। 94 एपीसोड का यह भव्य धारावाहिक 1988 से 90 की अवधि में दूरदर्शन पर जब दिखाया जाता, पुरे देश में सन्नाटा पसर जाता था । इसकी टीआरपी हमेशा सबसे ज्यादा रही और गिनीज बुक में भी दर्ज हुआ । दूरदर्शन को प्रति एपीसोड एक करोड़ तक के विज्ञापन मिलने लगे थे।
बी.आर.चोपडा को मिले सम्मान पर यदि नजर डाले तो वर्ष 1998 में हिन्दी सिनेमा के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के अवार्ड से सम्मानित किए गए। इसके अलावा वर्ष 1960 में प्रदर्शित फिल्म 'कानून'के लिए वह सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए। बहुमुखी प्रतिभा के धनी बी.आर.चोपडा ने फिल्म निर्माण के अलावा'बागवान'और 'बाबुल' की कहानी भी लिखी। जिन्हे उनके बेटे रवि चोपड़ा ने 2004 और 2006 में सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया ।

                                 युधिष्टर पारीक
                                      नोहर

शनिवार, 23 अगस्त 2014

दिनांक 20/6/2005 समय 7:45

  सर्वदेवमयी गौ

गौ देवी सम्पदाकी प्रथम निधि है । यह व्यक्ति को स्वावलम्बन प्रदान करती है । व्यक्ति के पास प्रकृति-प्रदत शरीर तो है ही और भूमी पर वह जन्म लेता है, अतः व्यक्ति अपने शरीर तथा थोड़ी-सी भूमि के साथ बस देवविग्रह स्वरूप एक गौ रख ले तो फिर उसे अपने जीवनयापन सार्थक जीवनयापन हेतु किसी अन्य सहारे की आवश्यकता नहीं है । वह अपना सम्पूर्ण जीवन आराम से परमधर्म 'परोपकार' करते हुए भव बन्धन से मुक्त रहकर मुक्तिभाक,हो जाता है।
गौ का गोरस-दूध,दही, मटठा, घी, मलाई आदि अनेक पदार्थो के रूप में तथा विविध रसों से व्यक्ति की क्षुधा शान्त कर सकता है । गोमूत्र उसे आधि-व्याधि से दूर रख सकता है ।गोबर उसे शुचित के साथ-साथ अग्नि तथा भोज्य पदार्थ के पाचन का साधन, उसकी भूमी को उर्वराशक्ति प्रदान कर सकता है और उसकी संततियां उसके लिये तमाम आवश्यकता वस्तुएं सुलभ कराने में निरन्तरता प्रदान करने के साथ -साथ उसके लिये आवश्यक होने पर वाहन की व्यवस्था भी प्रदान कर सकती हैं । इस प्रकार गौ सर्वार्थसिध्दी का एक सम्पूर्ण साधन तथा भारतीय संस्कृति का मूलधार है, भारतीय दर्शन का आध्यात्मिक मूल है।
गोधन से धनी व्यक्ति के लिये 'परोपकार' कोई अतिरिक्त साधन नहीं रह जाती है, क्योंकि एक गाय जितनी सामग्री प्रदान करती है वह व्यक्ति अकेले अपने निज के प्रयोग में खर्च नहीं कर सकता है। वह यदि किसी समष्टि के साथ है तो उसे वह दूसरों को देना ही पड़ेगा। यही तो परोपकार है। गाय रखने तथा उसकी सेवामा़त्र से ही परोपकारा की साधना स्वयमेव सिध्द हो जाती है। गोमाता व्यक्ति को अपरिग्रही परोपकारी बना देती है।
जीव के इतने महान,पुरूषार्थ की साधिका होने के बाद भी गौ का स्वरूप स्वयं में कितना शान्त, कितना निश्चिन्त, कितना सौम्य तथा कितना प्रसन्न होता है उसे देखकर ही व्यक्ति का चित शान्त और प्रफुल्लित हो उठता है। गौओं की स्वाभविक चाल में एक अजीब-सा मोहक गाम्भीर्य होता है जो कि हमें बिना आतुर हुए अपने कार्यो को पूर्ण करने की प्रेरणा प्रदान करता है।
गौ और पृथ्वी एक-दूसरे के पूरक हैं। पृथ्वी जीवों का आधार है और जीवों का जीवनाधार है। इस प्रकार गौ और पृथ्वी का तादात्म्य है। गौ के गोबर तथा मूत्र पृथ्वी की उर्वराशक्ति की अभिवृध्दी करते हैं और यह अभिवृध्दी भी स्वाभाविक होती है। इसमें स्थायित्व एवं निरन्तरता होती है । अतः यह पृथ्वी को अत्यन्त प्रिय होता है। पुराणों तथा शास्त्रों गौ को पृथ्वी का जीवन्त रूप माना गया है ।
गौ की प्रकृति, उसके द्वारा प्राप्त नैसर्गिक एवं स्वाभाविक स्वावलम्बन, उसका पृथ्वी के साथ तादात्म्य तथा उसके सौम्यादि गुणों के खान होने के कारण ही भारतीय मनीषी, समाज एवं संस्कृति में गौ का इतना महत्व है और इसे सभी दृष्टि से संरक्षणीय माना गया हैं। गौ की प्रकृति एवं स्वरूंप का तात्विक विवेचन तथा उसका अनुशीलन हमारे अध्यात्म के रहस्य का भेदन करने में सार्थक माध्यम बनाता है और हम सृष्टि की प्रक्रिया को उसकी पूर्णता में सक्षम होते हैं ।
अध्यात्म को यदि थोड़ी देर के लिये छोड़ भी दें तो भी आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टि से गौ का हमारे जीवन में बहुत महत्व है । विज्ञान की चरमोत्मर्क की अवस्था में भी व्यक्ति निज में अत्यन्त अपूर्ण होता है, किंतु गौ का सांनिध्य हमें बरबस पूर्णता प्रदान करता है जो कि सामाजिक दर्शन की मूलभूत अवधारणा है।


                        मर्हूंम जनाब  अली मोहम्मद पड़िहार

मंगलवार, 5 अगस्त 2014

महान संगीतकारों को श्रद्धांजलि

[फिरोज़ शाह मिस्त्री ]
सन् 1931 में फिरोज़ शाह मिस्त्री के संगीत से बद्ध पहली फिल्म आलम आरा में डब्ल्यू एस ख़ान का गाया फिल्म इतिहास का पहला गाना "दे दे ख़ुदा के नाम पर प्यारे ताक़त "की तब लोगों की ज़बान पर चढ़ गया था। इसके पहले मूक फिल्मों के दौर में सिनेमा हॉल में परदे के पास बैठकर आर्केस्ट्रा फिल्म के हिसाब से संगीत देती थी। लेकिन ज़ाहिर है कि जब दर्शकों ने अदाकारों को परदे पर गाते सुना तो वे चमत्कृत रह गए। लेकिन ये तो एक शुरूआत थी उस शानदार सिलसिले की जिसने भारतीय फिल्म इंडस्ट्री को ही पूरी तरह से बदल डाला। संगीत फिल्मों की जान बन गया। गीत-संगीत फिल्मों की सफलता-असफलता की कसौटी बन गए। इसी के साथ फलने-फूलने लगी एक परंपरा, जिसने देश भर से संगीत-प्रतिभाओं को बंबई खींचना शुरू किया। धीरे-धीरे इलाकाई संगीत के मेलजोल से भारतीय संगीत की एक मिली-जुली तस्वीर बनने लगी। इसमें संगीत के हर रंग दिखने लगे। शास्त्रीय, लोक और क्षेत्रीय संगीत का ये मिश्रण जन-जन की ज़बान पर छाने लगा। इस संगीत में लोगों के दुख-सुख बयान होने लगे। उनके सपने और संघर्ष की कहानी कहने लगा फिल्म-संगीत।

[आर. सी.बोराल ]

आर. सी.बोराल का संगीत में ख़ास योगदान रहा। उन्हें संगीत की समझ तो थी ही वे वाद्ययंत्रों की भी अच्छी जानकारी रखते थे। उन्होंने फिल्म संगीत में कई नए वाद्य यंत्रों का प्रयोग शुरू किया। हिंदी फिल्मों में धूप छाँव के गीत...... मैं खुश होना चाहूँ, खुश हो न सकूँ......से पार्श्व गायन की शुरूआत करने वाले भी आर.सी. बोराल ही थे। प्रसिद्ध गायक कुंदन लाल सहगल की खोज का श्रेय बेशक हरिश्चंद्र बाली को जाता है मगर बोराल ने ही उनकी प्रतिभा को सही ढंग से पहचाना और उसका इस्तेमाल भी किया।

[अनिल विश्वास]

फिल्म संगीत के इस अपेक्षाकृत शांत दौर में हलचलें पैदा कीं पूर्वी बंगाल के क्रांतिकारी संगीतकार अनिल विश्वास ने संगीत की गहरी, विविधतापूर्ण और विस्तृत समझ रखने वाले अनिल विश्वास ने फिल्म संगीत में ढेर सारे रंग भर दिए। उन्होंने पश्चिम बंगाल के लोक संगीत का तो जमकर इस्तेमाल किया ही ग़ज़ल, ठुमरी आदि का प्रयोग भी नए अंदाज़ में करना शुरू कर दिया। फिल्म संगीत में आर्केस्ट्रा और कोरस के प्रभाव को स्थापित करने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। ये समय राजनीतिक उथल-पुथल का था और धुनों की यात्रा के अनुसार इस कम्युनिस्ट क्रांतिकारी ने “राजनीतिक-सांस्कृतिक धारा के संगीत का सूत्रपात किया, और इसे बहुत आगे भी ले गया। लोकशैली की धुन को राजनीतिक अर्थव्यंजकता देने में कोरस का लाजवाब प्रयोग उन्हीं की देन है, जिसे आगे चलकर सलिल चौधरी ने नया विस्तार और नई दिशा दी।

[मास्टर गुलाम हैदर]

1946 का दौर था जब लता मंगेशकर जैसी गायिका फिल्म संगीत के आकाश पर उदित हुई और फिर पूरी सदी पर छा गई। लता की प्रतिभा को पहचान ने का श्रेय मास्टर ग़ुलाम हैदर को जाता है,

[खेमचंद प्रकाश ]

लता की आवाज़ में गाया गया गीत आएगा आएगा आने वाला खेमचंद प्रकाश की ही कालजयी कंपोजीशन है। खेमचंद प्रकाश और अन्य संगीतकारों के संगीत को करीब से देखने के बाद ही समझा जा सकता है कि किसी गायक-गायिका की प्रतिभा को समझ-संवारकर संगीतकार उसे कहाँ से कहाँ पहुँचा सकता है। यों तो उनके हिट संगीत के लिए कई गानों और फिल्मों का ज़िक्र किया जा सकता है मगर फिल्म महल तो उनका अमर साऊंड ट्रेक है। पहाड़ी शैली में कंपोज किया गया "मुश्किल है बहुत मुश्किल, चाहत को भुला देना, और "दिल ने फिर याद किया बेवफ़ा लौट भी आ" जैसे लता के गीतों में कंपोजीशन का एक बेहद परिपक्व जादू है।

[नौशाद]

सबसे मक़बूल संगीतकार नौशाद थे। वे संगीत की दुनिया के पहले सुपर स्टार कहे जा सकते हैं। नौशाद पहले संगीतकार थे जिन्होंने अपनी शख्सियत और अपने हुनर से संगीतकार का दर्ज़ा भी नायक या निर्देशक के समकक्ष ला खड़ा किया।शास्त्रीय संगीत का सुगम रूप गढ़ने में उन्हें महारत हासिल थी। उसमें लोकरंग का भी बहुत ही समझदारी से इस्तेमाल करते हुए उन्होंने सरस और मीठे गीतों की रचना की। पचास साल के अपने फिल्म-संगीत के करियर में उन्होंने अंतिम समय तक इसे थामकर रखा। "रतन" से लेकर अनमोल घड़ी दिल्लगी, शाहजहाँ,दुलारी, अनोखी अदा, अँदाज़, बैजू बावरा, मदर इंडिया, मुग़ल ए आज़म आदि फिल्में इसकी गवाह हैं। नौशाद के संगीत का जादू बहुत लंबे समय तक कायम रहा। वे आठवें दशक तक सक्रिय रहे मगर धीरे-धीरे बदलते ज़माने की ज़रूरतों और आस्वादों ने उन्हें अप्रासंगिक बना दिया। लेकिन इस लंबे कालखंड में उनका अमिट हस्ताक्षर दर्ज़ है।

[सचिन देव बर्मन]

सचिन देव बर्मन के गानों में एक नई ताज़गी थी, बागों की खुश्बू थी, हवाओं की चहल-पहल थी और प्रकृति के नाना रूपों की ठिठोली थी। हालाँकि त्रिपुरा से वाया कलकत्ता होते हुए मुंबई वे गायक के रूप में ही पहुँचे थे और उन्होंने अपना पहला गाना धीरे से आजा रे बगियन में रिकार्ड करवाया था, मगर उनकी मंज़िल गायकी नहीं संगीत की थी। गाना उन्होंने बेशक जारी रखा, वे सराहे भी गए मगर उन्हें असली ख्याति मिली एक संगीतकार के रूप में ही। फिल्म "मशाल" उनके करियर के लिए मील की पत्थर साबित हुई और फिर नवकेतन के बैनर के साथ ताउम्र का साथ उनके लिए उनके फिल्मी सफर को सुहाना बनाता चला गया। शास्त्रीय संगीत पर उनकी पकड़ तो बहुत मज़बूत थी मगर उसका विशिष्ट पहलू ये था कि उन्होंने शास्त्रीय आधारित रचनाओं को भी मेलोडी और माधुर्य की संरचना के अंदर ही रखकर प्रस्तुत किया। उनका ज़ोर रहता था कि भले ही धुन शास्त्रीय रागों पर आधारित हो मगर वह ऐसी बनना चाहिए कि राह चलता आदमी भी उसे आसानी से गुनगुना सके। मेरी सूरत तेरी आँखें, कैसे कहूँ और गाइड के संगीत में इसे देखा जा सकता है। मेरी सूरत तेरी आँखें का गीत पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई तो सर्वकालिक हिट गीत है।

[ सी रामचंद्र]

सी रामचंद्र को एक तरह से विद्रोही संगीतकार भी कहा जा सकता है, क्योंकि उन्होंने संगीत की कई परिपाटियों और मान्यताओं को ठुकराकर कई विदेशी संगीत शैलियों के साथ भी प्रयोग किए। साथ ही शुद्ध भारतीय मेलोडी को निखार और तराशकर लता के स्वर में ऊंचाईयों तक पहुंचाने वाली रचनाएं भी सी. रामचंद्र के ही हिस्से आई । सी रामचंद्र के पास हास्य-व्यंग्यप्रधान गीतों को एक अलग अंदाज़ में पेश करने का अनूठा हुनर था। इसीलिए उनके संगीतबद्ध मजाहिया गाने बहुत लोकप्रिय हुए। जैसे "भोली सूरत दिल के खोटे"..."मेरी जान संडे के संडे" तक इस ख़ास वर्ग में उनकी बादशाहत को कोई चुनौती नहीं दे पाया। लेकिन इन गीतों के आधार पर ये मान लेना भूल होगी कि सी रामचंद हल्के-फुल्के गीतों के संगीतकार ही थे। इसके विपरीत उन्होंने बहुत ही गंभीर काम भी किया और उन्हें लता मंगेशकर के गायन को एक ऊंचाई तक ले जाने का श्रेय भी दिया जाता है।

[रोशनलाल ]

 संगीतकार रोशन का नाम भले ही आज की पीढ़ी के लिए नया सा हो, पर संगीत के दीवाने जानते है कि रोशन का नाम किसी भी गीत से जुड़ जाए तो शक्कर की मिठास जैसा गीत पैदा होता है.उनके संगीतबद्ध गीत हमेशा जवां गीतों की लिस्ट में शामिल होते हैं. रोशन नाम से
बताना लाजिमी होगा कि ये वहीं संगीतकार है जो रितिक रोशन के दादा, निर्देशक-नायक राकेश रोशन और संगीतकार राजेश रोशन के पिता  हैं. रोशन संगीत के बहुत अच्छे जानकार थे. वे विविधता के मामले में वे विशेष सतर्कता बरतते थे. उनके संगीत से सजे गीतों को सुने तो स्वयं ही अंदाजा हो जाता है कि कैसे कोई एक ही संगीतकार अलग अलग अंदाज वाले संगीत की धुनों को जन्म दे सकता है.उनके संगीत में कर्णप्रियता का पुट बढ़ गया और संगीतप्रेमियों को गुनगुनाने के अलावा थिरकना भी पड़ता है. फिल्मी  कव्वालियों में भी रोशन का बड़ा अहम योगदान रहा फिल्म बरसात की एक रात की लोकप्रिय कव्वाली ये इश्क इश्क है..इश्क इश्क ने सफलता के झंडें गाढ़ दिए थे.

[ हेमन्त कुमार ]

हर रचनाधर्मी कलाकार प्रतिभा का धनी होता है लेकिन हेमन्त कुमार बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे. यही वजह है कि उनके संगीत में रवीन्द्र संगीत, बांग्ला लोक संगीत, आधुनिक और शास्त्रीय संगीत का मिलाजुला रूप महसूस होता है.
देश विदेश में अपने संगीत का जादू बिखेरने वाले हेमन्त कुमार के खाते में ऐसी ऐसी धुनें हैं जिन्हें आज भी श्रोता बेमिसाल और कालजयी मानते हैं. आज की पीढ़ी इस बात को नहीं समझेगी लेकिन हेमन्त कुमार के गीत संगीत को सुनकर सचमुच ऐसा अहसास होता है कि हम ईश्वर से साक्षात्कार कर रहे हैं।

[ जयदेव]

जयदेव के संगीतबद्ध गीत हमेशा अपने गिरफ्त में ले लेते हैं । और गिरफ्त भी इतनी कोमल जिसके कर्ण स्पर्श से ही रोम -रोम आनंदित हो उठे तो कौन भला इनसे अलग होना चाहेगा ।जयदेव ने ऐसे गीतों की रचना की जो मेलोडी से
सराबोर होते हुए भी शास्त्रीय प्रधान रहे ।वे हमेशा अपनी संगीत विधा के प्रति ईमानदार रहे. वे जितने सादे थे उतनी ही जटिल उनकी संगीत रचना है मगर जटिल होते हुए भी उनकी धुनें बेहद सरस और मंत्रमुग्ध कर देने वाली है |
. हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला एलबम को मन्ना डे ने स्वर दे कर और जयदेव ने संगीत दे कर अमर कर दिया है ।

[एस.एन. त्रिपाठी]

एस.एन. त्रिपाठी का मेलोडी पर उनका ख़ास अधिकार था। हालाँकि उन्होंने अधिकांशत: धार्मिक और पौराणिक फिल्मों में काम किया जिससे वे एक तरह से बँध गए, मगर इन सीमाओं के बावजूद उन्होंने एक से एक मधुर गीत व भजन बनाए जो आज भी हमारे कानो में गुजते रहते ।

[चित्रगुप्त]

चित्रगुप्त  जैसे संगीतकार भी अपने दौर में सक्रिय थे और सक्रिय नहीं थे, बल्कि उन्होंने ऐसे गीतों की रचना की जो आज तक याद किए जाते हैं। चित्रगुप्त ने लता से कुछ बेहतरीन गाने गवाए। उनकी बदकिस्मती शायद ये रही कि उन्हें बड़े बैनर की फिल्में नहीं मिलीं जिससे उनकी वैसी चर्चा नहीं हुई जैसी कि होनी चाहिए थी।

[ग़ुलाम मुहम्मद]

ग़ुलाम मुहम्मद। 1954 मे आई मिर्ज़ा गा़लिब उनकी सबसे महत्वपूर्ण फिल्म थी। इस फिल्म से ही वे चोटी के संगीतकारों में गिने जाने लगे थे। रफ़ी, तलत और सुरैया की आवाज़ों में ग़ालिब की ग़ज़लों को सुनना एक अविस्मरणीय अनुभव है। गुलाम मुहम्मद ने परंपरा से हटकर ग़ालिब की ग़ज़लों को नए अंदाज़ में ढाला था।  ग़ज़लों को नया रूप देने का श्रेय उन्हें ही दिया जाएगा क्योंकि इस समय तक नौशाद और मदनमोहन की ग़ज़लों का सुनहरा दौर अभी शुरू भी नहीं हुआ था।


[शंकर-जयकिशन]

शंकर-जयकिशन की जोड़ी अपने दौर सबसे बहतरीन संगीत जोडी थी ।अपने प्रिय राग भैरवी के आधार पर इन्होंने इस कालखंड की कुछ सबसे मशहूर धुनें तैयार की जैसे-मेरा जूता है जापानी, रमैया वस्तावैया, आवारा हूँ और सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी। छठे दशक के वे सबसे सफल संगीतकार रहे और उनकी लगभग हर फिल्म संगीत के लिहाज़ से हिट साबित हुई। इस जोड़ी के संगीत से सजी फिल्मों की फेहरिस्त बहुत लंबी है, लेकिन श्री420, चोरी चोरी, बूट पॉलिश, वसंत बहार, यहूदी, संगम, मेरा नाम जोकर के नाम उल्लेखनीय हैं।

[ ओ.पी.नय्यर ]

ओपी नय्यर का संगीत सुनकर अच्छे-अच्छे लोग एक बार तो ठिठक जाते हैं। ऐसा ही कुछ उस्ताद अमीर ख़ां साहब के साथ हुआ। रेडिओ पर 1958 की फिल्म 'फागुन' का गाना 'मैं सोया अंखियाँ मींचे' सुनने का ख़ां साहब पर कुछ ऐसा असर हुआ कि वह नय्यर साहब से मिलने को बेचैन हो उठे। उन्होंने तत्काल नय्यर साहब को फोन किया, और मुलाक़ात का वक्त तय हुआ। छूटते ही उस्ताद ने राग पीलू में इतनी अच्छी रचना के लिये नय्यर साहब को बधाई दी। ओ पी नय्यर के मुंह से यह सुनकर ख़ां साहब हैरान रह गये कि नय्यर साहब ने शास्त्रीय संगीत की विधिवत शिक्षा एक दिन भी नहीं ली। उसके बाद ख़ां साहब ने ओ पी को बताया कि फिल्म फागुन के सभी गीत राग पीलू पर ही आधारित हैं, जबकि सुनने में सभी अलग लगते हैं। क्या ऐसी कहानी कभी सुनी गयी है? क्या कोई व्यक्ति बिना संगीत सीखे हुए एक ही राग के दस अलग-अलग प्रारूप तैयार कर सकता है? केवल और केवल ओ पी नय्यर ही ऐसा कर सकते थे।

[मदनमोहन]

मदनमोहन जिन्हें ग़ज़ल सम्राट का रुतबा हासिल हुआ, क्योंकि ग़ज़लों की कम्पोजीशन के मामले में उनका कोई सानी नहीं था। एक बार महान सगीतकार नौशाद ने उनकी दो रचनाओं को "है इसी में प्यार की आबरू" और "आपकी नज़रों ने समझा प्यार के काबिल मुझे" के बदले अपनी सारी कृतियाँ देने को तैयार थे। हालाँकि मदनमोहन की शुरूआत उस समय के प्रचलित संगीत के साथ ही हुई थी मगर धीरे-धीरे उन्होंने अपनी मंज़िल चुन ली और उसी ओर चल पड़े। ग़ज़ल के जिस परिचित रूप के लिए हम मदनमोहन को याद करते हैं वह पहली बार खूबसूरत के मुहब्बत में कशिश होगी तो एक दिन तुमको पा लेंगे में दिखा। राजेंद्र कृष्ण के साथ उनकी जोड़ी अच्छी जमी और लता मंगेशकर के साथ मिलकर तो उन्होंने ग़ज़ब ढा दिया। इस दौरान तो मदनमोहन के संगीत की कल्पना लता के संगीत के बिना की ही नहीं जा सकती थी। लता के मुताबिक मदनमोहन ने ग़ज़लों को प्रचलित शैलियों से निकालकर एक नया रूप दिया।

[रवि]

रवि के संगीत से सजी हिन्दी फिल्मों में 'अलबेली , चौदहवीं का चाँद, घराना,खानदान, दो बदन, हमराज, आँखें,और निकाह विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं .उन्होंने 'वक्त ',नीलकमल' और 'गुमराह' जैसी लोकप्रिय हिन्दी फिल्मों में अपना यादगार संगीत दिया।
रवि के सगीत की एक खुबी थी । कि जिस दौर में शंकर जयकिशन ने 100 पीस आर्केस्ट्रा का फैशन चला दिया था, उस समय भी रवि के संगीत में कभी भी आर्केस्ट्रा की भीड नही मिली । उन्होंने एक समय में 30-35 साज़िंदों के साथ गाना रिकाॅर्ड किया । उनके पसंदीदा साज थे फ्लुट,सितार , और शहनाई थे।

[सलिल चौधरी]

 सलिल चौधरी तो हिंदी फिल्मों के अकेले बुद्धिजीवी संगीतकार कहे जा सकते हैं। वे एक ऐसे संगीतकार थे जो न केवल साम्यवादी थे बल्कि उन्होंने संगीत को साम्यवाद का संदेश देने का एक माध्यम भी बनाया। वे एक विलक्षण कंपोजर ही नहीं थे बल्कि कवि, गीतकार और संगीत समीक्षक भी थे। उनकी रचनाओं में संगीत अपनी संपूर्णता में धड़कता था। वे कभी “पाश्चात्य सिम्फनी के तत्वों, तो कभी भारतीय रिद्म, तो कभी दोनों के सम्मिश्रण से एक तरंग पैदा करते थे, जो उनकी लाक्षणिक विशेषता होती थी।

[आर. डी. बर्मन]

 संगीत परिदृश्य पर नए जैज़ की तुलना में रॉक रिद्मों का प्रभाव कहीं व्यापक हो गया। इलेक्ट्रानिक वाद्य यंत्रों का इस्तेमाल भी बढ़ गया। आर डी बर्मन इस आधुनिक संगीत लहर के प्रतिनिधि संगीतकार बने और उनके संगीत में ध्वनि और भावना के नए उपमानों ने बदलती मानसिकता वाले युवावर्ग को सम्मोहित करके रख दिया।

भारतीय फिल्म संगीत को 83 वर्ष हो चुके हैं और ज़ाहिर है कि ये बहुत लंबी यात्रा रही है। ये लंबी यात्रा स्रजनात्मक घटनाओं से परिपूर्ण रही है। धुनों की यात्रा इनका रुखा-सूखा ब्यौरा ही नहीं देती, बल्कि ऐसे प्रसंगों को भी समेटती चलती है जो उस रचनाकाल और रचनाकारों की मानसिक बनावट तथा उनकी स्त्रजनात्मकता को बयान भी करते हैं। ये भारतीय फिल्म संगीत और संगीतकारों के योगदान को श्रद्धांजलि है।





                                         युधिष्टर पारीक
                                             नोहर
                                       

सोमवार, 4 अगस्त 2014


18 जुलाई, जन्मदिवस पर विशेष

            शहंशाह-ए-ग़ज़ल...मेहदी हसन

ग़ज़ल के दीवाने दर्द और शोर के बीच मेहदी हसन की आवाज़ की दुनिया का सुकून हासिल करते रहे । मज़हब, मुल्क,सरहदों और सियासत से परे ये एक ऐसी दुनिया थी, जिसके दरवाजे सभी के लिए खुले थे। कई पीढ़ियां ख़़ालिस और पाकीज़ा अदायगी की चाहत में मेहदी हसन की जानिब खिंची चली आती रहीं। लता जी ने कहां था, उनकी आवाज़ में भगवान का वास है ।नूरजहां ने कहा कि क़दम ठिठक गए जब सुना- ये धुआं कहां से उठता है। वो हर पीढ़ी के आराध्य रहे।
मेहदी हसन 18 जुलाई 1927 में झंुझनूं के लूणा गांव में पैदा हुऐ थे। उन्हें इस सरज़मीं से बहुत प्यार था और बार बार वे वहां आते रहे । मरुभूमि में बहुधा बहुत  चटख रंग के फूल  खिलते हैं।  मेहंदी साहब की गायकी भी  ऐसी  ही  थी।  जब वह  बात  करते थे  तो  एक  शाइस्ता  राजस्थानी  आदमी  का  बोल –चाल  का  लहज़ा  दिखता  था।  पाकिस्तान में  बसने  के  छह  दशक  बाद  भी  पंजाबी  के  वर्चस्व  ने   उनके  व्यक्तित्व  के  किसी  भी  हिस्से  को  प्रभावित नहीं  किया  था।  न  तलफ्फुज  को,  न  लहजे  को  और  न  वेश-भूषा  को  ही। रहते  भी  वह  कराची  में  थे,  जहाँ आम-तौर  पर  मुहाजिर  रहते  आये  हैं।  ध्रुपदिये  पुरखों  के  साथ-साथ  मरुभूमि  के  विराट  विस्तार  में फैलता   ‘पधारो  म्हारे  देस’ में  मांड   का  दुर्निवार  स्वर  उन्हें  बार-बार  अपनी  जन्मभूमि  की  और  खींचता था।  क्लासकल  के  साथ-साथ  लोक  की  राग-रागिनियाँ  भी  उनकी  गायकी  के  अहसास  में  शामिल  रहीं। उनके दादा इमाम खान बड़े कलाकार थे जो उस वक्त मंडावा व लखनऊ के राज दरबार में गंधार, ध्रुपद गाते थे। मेहंदी हसन के पिता अजीम खान व चाचा ध्रपद गायक थे । कलावंत घराने की सोलहवीं पीढ़ी के मेहदी हसन की तमन्ना ख़त्म होती ग़ज़ल की रवायत को आम आदमी तक पहुंचाने और दोबारा ज़िंदा करने की थी । वो चाहते तो ध्रपद गायकी की अपनी ख़ानदानी परंपरा से ख़ुश और संतुष्ट रह सकते थे। लेकिन शायरी से मुहब्बत और ग़ज़ल को नई ज़िंदगी बख़्शने की चाहत उन्हें ग़ज़ल की दुनिया में ले आई। 1952 में कराची रेडियो के प्रोड्यूसर सलीम गिलानी ने सबसे पहले मौक़ा दिया। सबसे पहले सीमाब अकबराबादी की ग़ज़ल 'आया मेरी महफ़ील में ग़ारतगर होश आया' कंपोज की गिलानी ने संगीत की दुनिया की चालबाज़ियों और बदमाशियों के बीच एक सूफ़ी मलंग फ़क़ीराना मिज़ाज के मेहदी को एक नई दिशा दी । शुरू से ही उन्होंने कुछ बातों का ख़ास ख़्याल रखा । मेहदी साहब ने हमेशा उम्दा अशआर चुने। ये ज़रूरी नहीं था कि वे नाचीन शायरो को ही गाएं। अपने इंटरव्यूज़ में बार बार कहते रहे कि दुनिया की सबसे बड़ी सच्चाई हैं सुर। वे ग़ज़लों को राग में इसलिए बांधते हैं, ताकि लंबे समय तक वे सुनने वालो की पंसद बनी रहें।
 जगजीत सिंह जी ने अपने एक इंटरव्यूज में कहा था- "नई पीढ़ी के ग़ज़ल गायकों को अगर लम्बी रेस का घोड़ा बनना है तो उन्हें अपना शास्त्रीय आधार पुख्ता करना होगा और यह बात उन्होंने मेहदी हसन साहब से सीखी है, वो शिखर,  जो सदियों तक नई पीढ़ीयों को रास्ता और रोशनी दिखाएगा। चाहे बहादुर शाह जफर की ग़ज़ल- लेकिन सलीम कौसर की एक गज़ल ‘मैं ख्याल हूँ किसी और का मुझे सोचता कोई और है/ सरे आइना मेरा अक्स है पसे आइना कोई और है’ को मेहदी हसन ने भैरवी ठाठ में गाया है। जब मेहदी साहब इसे अदा करते हैं तो बेहद सीधी-सादी दिखने वाली गज़ल इंसान के ऐतिहासिक संघर्षों का बयान बन जाती है। मानवीय संघर्षों के बावजूद हकीकतें ‘मेरा जुर्म तो कोई और था, ये मेरी सज़ा कोई और है’ की हैं। मेहदी साहब ने इस गज़ल को अदा करने के लिये उदास भाव वाला भैरवी ठाठ चुना जो कि पूरी गज़ल की अदायगी में साफ़ है।1953 में सबसे पहले पाकिस्तानी फिल्म शिकार के लिए 'मेरे ख़्याल-ओ-ख़्वाब की दुनिया लिए हुए' पहला गाना गाया । उसके बाद तो वे सरहद पार के फिल्मों की एक जरुरी आवाज़ बन गए । फिल्मी गायन उनके करियर का पेशेवर पहलू था और यह सफर नव्वे के दशक तक चला ।
नई आवाजों के लिये आज भी मेहदी हसन ग़ज़ल का विद्यापीठ बने रहेंगे. पाकिस्तान में उनके चाहने वालों की कमी नहीं लेकिन बिला शक हिन्दुस्तान के संगीतप्रेमी उनकी महफिलों के लिये बेसब्र रहे. यह उनकी गायकी का जादू ही है कि सुकंठी लता मंगेशकर तन्हाई में सिर्फ़ मेहदी हसन को सुनना पसंद करती हैं. इसे भी तो एक महान कलाकार का दूसरे के लिये आदरभाव ही माना जाना चाहिये. हम सब की जिन्दगी यथावत चलती रहेगी लेकिन पाकिस्तान के निजाम ने भले ही उन्हें कितने ही तमगों से नवाज़ा हो, उन्होंने व्यवस्था-विरोधी शायरों को गाना कभी बन्‍द नहीं किया। सामंती-फ़ौजी-धार्मिक- पूँजीवादी हुकूमतें जिन जज्बातों को प्रतिबंधित करना अपना फ़र्ज़ समझती हैं, मेहदी उन्हीं जज्बातों के अनोखे अदाकार थे। उनकी सुरीली ज़िंदगी इस बात की गवाह है की नागरिकता (जो की किसी राष्ट्र की होती है) सभ्यता की स्थानापन्न नहीं होती। मेहंदी साहेब को सुनने वालों की ज़िंदगी में वह शामिल थे। वे सुनने वाले तमाम लोग राग-रागिनियों की बारीकियाँ भले न जानते हों, लेकिन हर सुनने वाले के पास मेहंदी साहेब के सुरों के संस्मरण हैं। मेहंदी साहेब की गायकी उनके दुखों, उनकी खुशी, उनके संघर्षों में साथ निभाती है, सिर्फ मनोरंजन नहीं करती, ज़िंदगी की तमीज विकसित करने में सहयोग करती है। कोई भी कला इससे ज़्यादा और क्या कर सकती है? समय बेरुखी से संगीत को बेसुरा बनाने पर आमादा है लेकिन जब कभी इंसान की रूह को सुरीलेपन की तलाश होगी, मेहदी हसन की आवाज ही उसे आसरा देगी । मुझे इस बात का सदा ये अफसोस रहेगा की मैन उनसे कभी मिल नही पाया।

आज उन्‍हीं की लगावट का एक शेर याद आता है,
 ‘कुछ उसके दिल में लगावट जरूर थी वरना,
  वो मेरा हाथ दबाकर गुज़र गया कैसे।‘



                                                   युधिष्टर पारीक
                                                       नोहर