शनिवार, 27 दिसंबर 2014

दिन है ये बहार के फूल चुन ले प्यार/ रफ़ी साहब

फ़िल्म -हनीमुन(1973)
गीतकार -योगेश
संगीतकार -उषा ख़न्ना
गायक - रफ़ी साहब

दिन है ये बहार के फूल चुन ले प्यार के
ओ साथ ओ साथी हो ओ साथ ओ साथी हो
दिन है ये बहार के फूल चुन ले प्यार के
ओ साथ ओ साथी हो ओ साथ ओ साथी हो..

तेरे हँसते होंठों से बिछड़े तेरे गीत क्यों
बरसे सावन प्यार का तरसे तेरे प्रीत क्यों
बीत ना जाए कहीं प्यार का सावन यूँही 
ओ साथ ओ साथी हो ओ साथ ओ साथी हो..,

शायर कहता है तुझे सहमा-सहमा दिल तेरा
तेरी ग़ुज़री ज़िन्दगी थामें ना आँचल तेरा
प्यार जो करते है वो यँू ही नही ड़रते है वो
ओ साथ ओ साथी हो ओ साथ ओ साथी हो

दुल्हन बनकर ज़िन्दगी चलती तेरे साथ
बँधकर वाहे थाम ले रुकने की क्या बात है
आज क्यों है दुरियाँ क्यों है ये मजबुरीयाँ
ओ साथ ओ साथी हो ओ साथ ओ साथी हो...

होना था जो वो हो गया साथी अब ना सोच तू
कहकर मन के भेद ये हल्का करले बोझ तू
ये ख़ामोशी तोड़ दे ये उदासी छोड़ दे
ओ साथ ओ साथी हो ओ साथ ओ साथी हो...


                                  प्रस्तुति - युधिष्टर पारीक


सोमवार, 22 दिसंबर 2014

DOSTI  ROHIT YUDRAJ 

दुनिया के सबसे बेहतरीन रिश्तों में एक है दोस्ती का रिश्ता। एक सही और अच्छा दोस्त हमारी जिंदगी बदलने में महत्तवपूर्ण भूमिका निभाता है।  

एक अच्छा और सच्चा दोस्त वह होता हे जो आपकी राहों में आई मुश्किलों का हल निकालते हैं। एक सच्चा दोस्त वह है जो आपके दिल की बात को समझ पाए ओर आपका संबल बढाकर आपको सही रास्ता दिखाए। 

दोस्तो का न होना ग़ुरबत व तन्हाई है” और ग़रीब व तन्हा हक़ीक़त में  वह शख़्स है जिसका कोई दोस्त न हो। 

बदकिस्मत है वोह  शख़्स  जो किसी को अपना दोस्त न बना सके और उससे भी ज़्यादा बदकिस्मत  वह है जो बने बनाये दोस्तो से भी हाथ धो बैठे ” 

“ऐसे अफ़राद की दोस्ती के तलबगार न बनो जो तुमसे पीछा छुड़ाना चाहते हों। और अगर कोई शख़्स तुम्हारी दोस्ती का तलबगार हो तो उसे मायूस न करो क्योकि इस तरह तुम एक अच्छे साथी से महरूम हो जाओगे।” 

“ जो तुम्हारी तरफ दोस्ती का हाथ बढाए, उससे इनकार करना एक बड़ा नुकसान है  और जो तुमसे  दोस्ती ना करना चाहे उस से दोस्ती करने की कोशिश ख़ुद को ज़लील करना है। ” 

शनिवार, 20 दिसंबर 2014

युध्द राज रोहित
हमारी दोस्ती..
आखिर क्या है ये रिश्ता, बताओ इसकी खासियत क्या है,
समन्दर ने कहा, कि दोस्ती मेरी घहराईयों में छुपा एक सीपी है,
जिसमें सच्चाई की भावना का मोती है दोस्ती,
आकाश ने कहा कि दोस्ती का रिश्ता मेरी ऊँचाईयों की तरह असीम है,
नभ मे स्वछंद विचरते पक्षियों की आज़ादी की भावना का नाम है दोस्ती,
शायर ने कहा कि दोस्ती दुनिया का सबसे हसीन जज़्बा है,
नज़्म का एक शेर है, गीत का एक खूबसूरत अन्तरा है दोस्ती,
माली ने कहा कि दोस्ती वो फूल है जो पूरे बाग को हसीन बना दे,
चारो तरफ झट से फैल जाने वाली खुशबु है दोस्ती,
मोहब्बत ने कहा कि दोस्ती मुझ से भी हसीन है,
मेरा एक रुप भगवान तो मेरी शुरुआत है दोस्ती,
नफरत ने कहा कि दोस्ती और प्यार तो मुझे भी खुद में समा लेते हैं,
नफरत से भी नफरत ना करे, ऐसी है दोस्ती,
मैं क्या कहूँ, दोस्ती तो बस विश्वास का नाम है,
मुझ से नहीं मेरे दोस्त से पूछो कि आखिर क्या है ये दोस्ती
ये दोस्ती

मंगलवार, 16 दिसंबर 2014

युध्द राज रोहित 

बचपन की दोस्ती सबसे पक्की और स्वार्थरहित मानी जाती है, जिसमें न कोई फायदा होता है और न ही कोई कारण। वो तो प्यार से भरा एक रिश्ता होता है। बड़े होने के साथ जहां हम हर रिश्ता फायदा और नुकसान सोचकर बनाते हैं वहीं बचपन की दोस्ती सिर्फ और सिर्फ विश्वास और प्यार से भरपूर होती है। बचपन का वो हमराज जिंदगी में जितनी भी परेशानी आ जाए आपको कभी अकेला नहीं 
महसूस होने देता है। शायद इसीलिए बचपन की दोस्ती हर किसी के लिए बहुत अनमोल होती है।


मुहासरा / अहमद फ़राज़

मेरे ग़नीम ने मुझको पयाम भेजा है
कि हल्क़ाज़न हैं मेरे गिर्द लश्करी उसके
फ़सीले-शहर के हर बुर्ज, हर मीनार पर
कमां-बदस्त सितादा  है अस्ककी उसके

वह बर्क़ लहर बुझा दी गई जिसकी तपिश
वजूदे-ख़ाक में आतिशफ़िश़ां जगाती है
बिछा दिया गया बारूद उसके पानी में
वो जूएआब जो मेरी गली को आती है

सो शर्त यह है जो जां की अमान चाहते हो
तो अपने लौहो क़लम क़त्लगाह में रख दो
वगर्ना अबके निशान कमानदारों का
बस एक तुम हो,सो ग़ैरत को राह में रख दो

यह ़शर्तनामा जो देखा तो ऐलची से कहा
उसे ख़बर नहीं तारीख़ क्या सिखाती है
कि रात जब किसी ख़ुर्शीद को शहीद करे
तो सुबह इक नया सूरज तराश लाती है

सो यह जवाब है मेरा मेरे अदू के लिए
कि मुझको हिर्स-करम है न ख़ौफ़े-ख़म्याज़ा
उस है सतवते-शमशीर पर घमंड बहुत
उस शिकवाए  क़लम का नहीं है अंदाज़ा

मेरा क़लम नी किरदार उस मुहाफ़िज का
जो अपने शहर को महसूर करके नाज़ करे
मेरा क़लम नहीं कासा किसी सुबुक सर का
जो गासिबों को क़सीदों से सरफ़राज़ करे

मेरा क़लम नही उस नक़बज़न का दस्ते-हवस
जो अपने घर की ही छत में शगाफ़ डालता है
मेरा क़लम नही उस दुज़्द्े नीमशब  का रफ़ीक
जो बेचराग़ घरो़ं पर कमंद उछालता है ।

मेरा क़लम नही तस्बीह उस मुबल्लिग की
जो बंदगी का भी हरदम हिसाब रखता है
मेरा क़लम नहीं मीज़ान ऐसे आदिल की
जो अपने चेहरे पर दोहरा नक़ाब रखता है ।

शब्दार्थ:
मुहासरा -  घेराव
1- ग़नीम - शत्रु  2- हल्क़ाज़न - घेरे हुए
3 -गिर्द लश्करी-सैनिक  4- फ़सीले शहर - नगर की चारदीवारी 5 कमां-बदस्त-कमान हाथ में लिए हुए
 6 सितादा - तैयार 7अस्ककी - सैनिक  8-बर्क़ लहर- बिजली की लहर, 9- वजूदे-ख़ाक - मिट्टी का पुतला, 10- आतिशफ़िश़ां - ज्वालामुखी, 11 जूएआब - नहर 12- ऐलची - दूत 13- ख़ुर्शीद - सूर्य 14- अदू - शत्रु, 15- हिर्स-करम - पुरस्कार की लालसा, 16- ख़ौफ़े-ख़म्याज़ा - प्रतिफल का ड़र, 17- सतवते-शमशीर - तलवार की धाक, 18- मुहाफ़िज - रक्षक,19- महसूर - घेरकर, 20- कासा - कवच, 21- सर - अभिमानी, 22- गासिबों - अतिक्रमी,
23- सरफ़राज़ - मशहूर, 24- दस्ते-हवस - वासना का हाथ, 25- शगाफ़ - दरार, 26- नीमशब - आधी रात को चोरी करने वाला, 27- तस्बीह - माला, 28- मुबल्लिग - धर्म उपदेशक, 29- मीज़ान - तराज़ू, 30- आदिल - न्यायाधीश,

सोमवार, 10 नवंबर 2014

एक जानिब शम्मे-महफ़िल - रफ़ी मन्ना डे

गाना - एक जानिब शम्मे-महफ़िल
फ़िल्म - अभिलाषा (1968)
गीतकार - मज़रूह सुल्तानपुरी
संगीतकार - राहुल देव बर्मन
गायककार - रफ़ी- मन्ना डे़

रफ़ी
आ आ आ ...एक जानिब शम्मे-महफ़िल
एक जानिब शम्मे-महफ़िल
एक जानिब रूहे-जाना
गिरता है देखें कहाँ परवाना
एक जानिब शम्मे-महफ़िल...

मन्ना डे-
एक जानिब शम्मे-महफ़िल
एक जानिब रूहे-जाना
ओ ओ गिरता है देखें कहाँ परवाना
एक जानिब शम्मे-महफ़िल....

रफ़ी-
एक सू एक शोला चरागों की अंजुमन में
एक सू रंगे-जलवा किसी बुत के बांकपन में

मन्ना ड़े-
एक शोला एक जलवा और इनमें एक दीवाना

एक जानिब शम्मे-महफ़िल
एक जानिब रूहे-जाना
ओ ओ गिरता है देखें कहाँ परवाना
एक जानिब शम्मे-महफ़िल

मन्ना ड़े-
उसकी क्या है मंजिल नहीं इतना बेखबर भी
आया दिलबरों में तो हैं काफी एक नज़र भी

रफ़ी-
इन नज़रों को यारों क्या जानूँ मैं अंजाना
एक जानिब शम्मे-महफ़िल
एक जानिब रूहे-जाना
ओ:ओ: गिरता है देखें कहाँ परवाना
एक जानिब शम्मे-महफ़िल

मन्ना डे - रफ़ी
ऊँ ऊँ ऊँ.....आ: आ: आ: ....ला: ला: ला:....
रफ़ी-
क्या-क्या रंग निकले हसीनों की सादगी से
ओ ओ ओ.....
मन्ना डे
इतनी है शिकायत के मिलते हैं अज़नबी से

रफ़ी-
जो ऐसा बेपरवाह क्या उससे दिल उलझाना
एक जानिब शम्मे-महफ़िल

मन्ना डे-
ओ: ओ:....
एक जानिब रूहे-जाना

रफ़ी - मन्ना डे
ओ  ओ ओ ....
गिरता है देखें कहाँ परवाना

एक जानिब शम्मे-महफ़िल
एक जानिब रूहे-जाना
ओ: ओ: गिरता है देखें कहाँ परवाना

एक जानिब शम्मे-महफ़िल

रविवार, 9 नवंबर 2014

गुलज़ार / अख़बार

अख़बार के तीसरे पन्ने पर ...हर रोज जब देखता हूं ..!
मरने वालो की तस्वीरें ....  कुछ देर मैं ढूँढता रहता
हू ..मेरी भी तस्वीर है ..क्या.?
बेसूहा हूं .. अब .. एहसास नही होता ...  की साँस आती है, जाती है, चलती भी है,... के... नही,..~~
अख़बार के पहले पन्ने पर ... बस अदाद ही गिनता हूं,..!गिनती ही देखता हूं, ... आज के दिन फिर कितने मरे, ... आज का स्कोर क्या है, ... बेसूहा हूं, .. एहसास नही होता .. की साँस चलती भी है ... की .. नही ..!

बुधवार, 5 नवंबर 2014

गुलज़ार

(1)
ये कैसी उम्र में आकर मिली हो तुम – गुलज़ार

ये कैसी उम्र में आकर मिली हो तुम .!
बहुत जी चाहता है .. फिर से बो दूँ अपनी आंखें
तुम्हारे ढेर सारे चेहरे उगाऊं ,, और बुलाऊँ बारिशों को
बहुत जी है कि फुर्सत हो ... तसब्बुर हो ..!
तसब्बुर में थोड़ी बागवानी हो..!!

मगर जानां....
इक ऐसी उम्र में आकर मिली हो तुम
किसी के हिस्से कि मिटटी नहीं हिलती
किसी के धूप का हिस्सा नहीं छनता
मगर क्या क्यारी के पौधे पास अपने
अब किसी को पाँव रखने के लिए भी थाह नहीं देते
ये कैसी उम्र में आकर मिली हो तुम?

(2)
साँस लेना भी ..

साँस लेना भी .. कैसी आदत है ..
जीये जाना भी .. क्या रवायत है ..
कोई आहट नहीं बदन में कहीं..!
कोई साया नहीं है .. आँखों में,
पाँव बेहिस हैं, चलते जाते हैं ..
इक सफ़र है .. जो बहता रहता है ..
कितने बरसों से, कितनी सदियों से ..
जिये जाते हैं.. जिये जाते हैं ..!!

आदतें भी अजीब होती हैं...

(3)
सितारे लटके हुए हैं .. तागों से आस्माँ पर
चमकती चिंगारियाँ-सी चकरा रहीं आँखों की पुतलियों में,,
नज़र पे चिपके हुए हैं .. कुछ चिकने-चिकने से रोशनी के धब्बे
जो पलकें मुँदूँ तो चुभने लगती हैं .., रोशनी की सफ़ेद किरचें..!

मुझे मेरे मखमली अंधेरों की गोद में डाल दो .. उठाकर
चटकती आँखों पे घुप अंधेरों के फाये रख दो ..
यह रोशनी का उबलता लावा न अन्धा कर दे।
(4)
तुम गये तो और कुछ नही हुआ…

तुम गये तो और कुछ नही हुआ
दिल पे ऐत्बार घट गया मेरा
में जो दिल के पीछे उसके नक्शे पाअ के पांव रखके चलता था
चलते चलते देखा तो निशान खत्म हो गये

तुम गये तो और कुछ नही हुआ
दिल पे ऐत्बार घट गया मेरा !!
(6)

रिश्ते बस रिश्ते होते हैं
कुछ इक पल के
कुछ दो पल के

कुछ परों से हल्के होते हैं
बरसों के तले चलते-चलते
भारी-भरकम हो जाते हैं

कुछ भारी-भरकम बर्फ़ के-से
बरसों के तले गलते-गलते
हलके-फुलके हो जाते हैं

नाम होते हैं रिश्तों के
कुछ रिश्ते नाम के होते हैं
रिश्ता वह अगर मर जाये भी
बस नाम से जीना होता है

बस नाम से जीना होता है
रिश्ते बस रिश्ते होते हैं

(7)

मैं अपने घर में ही अजनबी हो गया हूँ आ कर

मैं अपने घर में ही अजनबी हो गया हूँ .. आ कर
मुझे यहाँ देखकर .. मेरी रूह डर गई है..,
सहम के सब आरज़ुएँ कोनों में जा छुपी हैं
लवें बुझा दी हैं .., अपने चेहरों की ,, हसरतों ने
कि शौक़ पहचनता ही नहीं,,''
मुरादें दहलीज़ ही पे सर रख के मर गई हैं

मैं किस वतन की तलाश में यूँ चला था घर से
कि अपने घर में भी अजनबी हो गया हूँ .. आ कर
(8)
मेरे रौशनदान में बैठा एक कबूतर

मेरे रौशनदार में बैठा एक कबूतर
जब अपनी मादा से गुटरगूँ कहता है
लगता है मेरे बारे में, उसने कोई बात कही।
शायद मेरा यूँ कमरे में आना और मुख़ल होना
उनको नावाजिब लगता है।
उनका घर है रौशनदान में
और मैं एक पड़ोसी हूँ
उनके सामने एक वसी आकाश का आंगन
हम दरवाज़े भेड़ के, इन दरबों में बन्द हो जाते हैं
उनके पर हैं, और परवाज़ ही खसलत है
आठवीं, दसवीं मंज़िल के छज्जों पर वो
बेख़ौफ़ टहलते रहते हैं
हम भारी-भरकम, एक क़दम आगे रक्खा
और नीचे गिर के फौत हुए।

बोले गुटरगूँ…
कितना वज़न लेकर चलते हैं ये इन्सान
कौन सी शै है इसके पास जो इतराता है
ये भी नहीं कि दो गज़ की परवाज़ करें।

आँखें बन्द करता हूँ तो माथे के रौशनदान से अक्सर
मुझको गुटरगूँ की आवाज़ें आती हैं !!

(9)
वक़्त को आते न जाते न गुज़रते देखा

वक़्त को आते न जाते न गुजरते देखा
न उतरते हुए देखा कभी इलहाम की सूरत
जमा होते हुए एक जगह मगर देखा है

शायद आया था वो ख़्वाब से दबे पांव ही
और जब आया ख़्यालों को एहसास न था
आँख का रंग तुलु होते हुए देखा जिस दिन
मैंने चूमा था मगर वक़्त को पहचाना न था

चंद तुतलाते हुए बोलों में आहट सुनी
दूध का दांत गिरा था तो भी वहां देखा
बोस्की बेटी मेरी ,चिकनी-सी रेशम की डली
लिपटी लिपटाई हुई रेशम के तागों में पड़ी थी
मुझे एहसास ही नहीं था कि वहां वक़्त पड़ा है
पालना खोल के जब मैंने उतारा था उसे बिस्तर पर
लोरी के बोलों से एक बार छुआ था उसको
बढ़ते नाखूनों में हर बार तराशा भी था

चूड़ियाँ चढ़ती-उतरती थीं कलाई पे मुसलसल
और हाथों से उतरती कभी चढ़ती थी किताबें
मुझको मालूम नहीं था कि वहां वक़्त लिखा है

वक़्त को आते न जाते न गुज़रते देखा
जमा होते हुए देखा मगर उसको मैंने
इस बरस बोस्की अठारह बरस की होगी
(10)
टुकड़ा ..

छोटा सा शीशे का टुकड़ा
घास के अन्दर छुप के बैठा
मेरी आँख पे सूरज मार के ख़ुश होता है, हँसता है

सूरज ख़ुश है,
छोटा सा शीशे का टुकड़ा
घास में रख के खेल रहा है
मेरी आँख पे छींटे मार के छेड़ रहा है

आँख पे एक हथेली रख के
मैं फ़ौरन दोनों की आँखों से ओझल हो जाता हूँ
उँगलियों की झिर्रियों से वो दोनों झाँक के
मुझको ढूँढने लगते हैं

और मैं आँखें बंद किये
तेरी गोद में सर रख के छुप जाता हूँ!
क़ायनात से आँख मिचोली खेल रहा हूँ!!
(11)

खाली समन्दर ..

उसे फिर लौट के जाना है, ये मालूम था उस वक़्त भी जब शाम की –
सुर्खोसुनहरी रेत पर वह दौड़ती आई थी ....
और लहरा के –
यूं आग़ोश में बिखरी थी ... जैसे पूरे का पूरा समंदर –
ले के उमड़ी है ..!!

उसे जाना है ... वो भी जानती थी,
मगर हर रात फिर भी हाथ रख कर चाँद पर खाते रहे कसमे ,,,
ना मैं उतरूँगा अब …
(12)
देर आयद
आठ ही बिलियन उम्र ज़मीं की होगी शायद
ऐसा ही अंदाज़ा है कुछ ‘साईन्स’ का
चार अशारिया छ: बिलियन सालों की उम्र तो
बीत चुकी है
कितनी देर लगा दी तुम ने आने में
और अब मिल कर
किस दुनिया की दुनियादारी सोच रही हो
किस मज़हब और ज़ात और पात की फ़िक्र लगी है
आओ चलें अब
तीन ही ‘बिलियन’ साल बचे हैं!

(13)
कुछ देर तक......
कुछ देर तक...... कुछ दूर तक.......... तो साथ चलो..........
माना जिंदगी है तनहा सफ़र..... इल्तजा यही है जाने जिगर

मुझको फ़िक्र है आगाज़ की..... देखो ना सपना अंजाम का..... सदियों की बेताबियाँ खत्म हो.... इक पल मिले जो आराम का............

रहता नहीं संग कोई सदा...जाने वफ़ा है मुझको पता ... दो चार लम्हा रहो तुम रूबरू..... दिल तुमसे कहना यही चाहता ......
कुछ देर तक...... कुछ दूर तक.......... तो साथ चलो................
माना जिंदगी है तनहा सफ़र..... इल्तजा यही है जाने जिगर

कुछ देर तक...... कुछ दूर तक.......... तो साथ चलो..........
साथ चलो..........
कुछ देर तक...... कुछ दूर तक.......... तो साथ चलो....

(14)

हमें पेड़ों की पोशाकों से इतनी सी ख़बर तो मिल ही जाती है..
बदलने वाला है मौसम…
नये आवेज़े कानों में लटकते देख कर कोयल ख़बर देती है
बारी आम की आई…!
कि बस अब मौसम-ऐ-गर्मा शुरू होगा
सभी पत्ते गिरा के गुल मोहर जब नंगा हो जाता है गर्मी में
तो ज़र्द-ओ-सुर्ख़, सब्ज़े पर छपी, पोशाक की तैयारी करता है
पता चलता है कि बादल की आमद है!
पहाड़ों से पिघलती बर्फ़ बहती है धुलाने पैर ‘पाइन’ के
हवाएँ झाड़ के पत्ते उन्हें चमकाने लगती हैं
मगर जब रेंगने लगती है इन्सानों की बस्ती
हरी पगडन्डियों के पाँव जब बाहर निकलते हैं
समझ जाते हैं सारे पेड़, अब कटने की बारी आ रही है
यही बस आख़िरी मौसम है जीने का, इसे जी लो !
(15)
शाख़ पे बैठी मीना..

शहतूत की शाख़ पे बैठी मीना
बुनती है रेशम के धागे
लमहा-लमहा खोल रही है
पत्ता-पत्ता बीन रही है
एक-एक साँस बजाकर सुनती है सौदायन
एक-एक साँस को खोल के, अपने तन
पर लिपटाती जाती है
अपने ही तागों की क़ैदी
रेशम की यह शायर इक दिन
अपने ही तागों में घुटकर मर जाएगी।

(16)
दिन कुछ ऐसे गुज़ारता है कोई
जैसे एहसान उतारता है कोई
आईना देख के तसल्ली हुई
हम को इस घर में जानता है कोई
पक गया है शज़र पे फल शायद
फिर से पत्थर उछालता है कोई

(17)
इक हसीं निगाह का मुझ पे साया है ़..
जादू है जूनून है कैसी माया है....ये माया है ...
तेरी नीली आँखों के भंवर बड़े हसीन हैं
डूब जाने दो मुझे ..ये खाव की ज़मीन है
उठा दो अपनी पलकों किओ ये पर्दा क्यूँ गिराया है

(18)
और फिर यूँ हुआ, रात एक ख्वाब ने जगा दिया
और फिर यूँ हुआ, रात एक ख्वाब ने जगा दिया
फिर यूँ हुआ चाँद की वो डली घुल गयी
और यूँ हुआ, ख्वाब की वो लड़ी खुल गयी
चलती रही बेनूरियां, चलते रहे अंधेरों की रौशनी के तले
फिर नहीं सो सके, एक सदी के लिए हम दिलजले
फिर नहीं सो सके, एक सदी के लिए हम दिलजले

और फिर यूँ हुआ, सुबह की धूल ने उड़ा दिया
और फिर यूँ हुआ, सुबह की धूल ने उड़ा दिया
फिर यूँ हुआ, चेहरे के नक्श सब धुल गए
और यूँ हुआ, गर्द थे गर्द में रुल गए
तन्हाईयाँ ओढ़े हुए, गलते रहे भीगे हुए आँसुओं से गले
फिर नहीं सो सके, एक सदी के लिए हम दिलजले
एक सदी के लिए हम दिलज

(19)
वो जो शायर था चुप-सा रहता था
बहकी-बहकी-सी बातें करता था
आँखें कानों पे रख के सुनता था
गूँगी खामोशियों की आवाज़ें!

जमा करता था चाँद के साए
और गीली- सी नूर की बूँदें
रूखे-रूखे- से रात के पत्ते
ओक में भर के खरखराता था

वक़्त के इस घनेरे जंगल में
कच्चे-पक्के से लम्हे चुनता था
हाँ वही, वो अजीब- सा शायर
रात को उठ के कोहनियों के बल
चाँद की ठोड़ी चूमा करता था

चाँद से गिर के मर गया है वो
लोग कहते हैं ख़ुदकुशी की है |

(20)

जंग का कूड़ा एक जगह पर जम’अ हुआ है
पहली बार है..
इतने सारे बाज़ू, टाँगे, हाथ और सर और पाँव
ऐसे अलग-अलग बिखरे देखे हैं
बचे खुचे पुरज़े लगते हैं
‘स्पेयर पार्ट्स’ हैं

बाज़ू एक जुलाहे का, हिलता है अब तक
काँप रहा है या शायद कुछ कात रहा है
टांग है एक खिलाड़ी की.. रन आउट हुआ है
घर तक दौड़ते-दौड़ते राह में मारा गया..

सर है एक जो लुढ़क रहा है
टूटे-फूटे शे’र अभी तक सर में खड-खड बजते हैं
नज़्मों के छंद टूट गए हैं
उंगलियाँ रेंग रही हैं कुछ
मिटटी में तारीख़ दर्ज़ करने की कोशिश लगती है..!

पुरज़ा पुरज़ा खोल के एक मैकेनिक ने
उनकी मरम्मत चाही थी…
बुरा लगा था उसको ये पुरज़े आवाजें करते हैं !!


प्रस्तुति - युधिष्ठर पारीक {युध्द राज}





शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2014

अहमद फ़राज़

वो बात बात पे देता है परिंदों की मिसाल
साफ़ साफ़ नहीं कहता मेरा शहर ही छोड़ दो

तुम्हारी एक निगाह से कतल होते हैं लोग फ़राज़
एक नज़र हम को भी देख लो के तुम बिन ज़िन्दगी अच्छी नहीं लगती

अब उसे रोज़ न सोचूँ तो बदन टूटता है फ़राज़
उमर गुजरी है उस की याद का नशा किये हुए

एक नफरत ही नहीं दुनिया में दर्द का सबब फ़राज़
मोहब्बत भी सकूँ वालों को बड़ी तकलीफ़ देती है

हम अपनी रूह तेरे जिस्म में छोड़ आए फ़राज़
तुझे गले से लगाना तो एक बहाना था

माना कि तुम गुफ़्तगू के फन में माहिर हो फ़राज़
वफ़ा के लफ्ज़ पे अटको तो हमें याद कर लेना

ज़माने के सवालों को मैं हँस के टाल दूँ फ़राज़
लेकिन नमी आखों की कहती है "मुझे तुम याद आते हो"

अपने ही होते हैं जो दिल पे वार करते हैं फ़राज़
वरना गैरों को क्या ख़बर की दिल की जगह कौन सी है

तोड़ दिया तस्बी को इस ख्याल से फ़राज़
क्या गिन गिन के नाम लेना उसका जो बेहिसाब देता है

हम से बिछड़ के उस का तकब्बुर बिखर गया फ़राज़
हर एक से मिल रहा है बड़ी आजज़ी के साथ

उस शख्स से बस इतना सा ताल्लुक़ है फ़राज़
वो परेशां हो तो हमें नींद नहीं आती

अब उसे रोज़ न सोचूँ तो बदन टूटता है फ़राज़
उम्र गुज़री है उसकी याद का नशा करते

बर्बाद करने के और भी रास्ते थे फ़राज़
न जाने उन्हें मुहब्बत का ही ख्याल क्यूं आया

तू भी तो आईने की तरह बेवफ़ा निकला फ़राज़
जो सामने आया उसी का हो गया

बच न सका ख़ुदा भी मुहब्बत के तकाज़ों से फ़राज़
एक महबूब की खातिर सारा जहाँ बना डाला

मैंने आज़ाद किया अपनी वफ़ाओं से तुझे
बेवफ़ाई की सज़ा मुझको सुना दी जाए

मैंने माँगी थी उजाले की फ़क़त इक किरन फ़राज़
तुम से ये किसने कहा आग लगा दी जाए

इतनी सी बात पे दिल की धड़कन रुक गई फ़राज़
एक पल जो तसव्वुर किया तेरे बिना जीने का

इस तरह गौर से मत देख मेरा हाथ ऐ फ़राज़
इन लकीरों में हसरतों के सिवा कुछ भी नहीं

उसने मुझे छोड़ दिया तो क्या हुआ फ़राज़
मैंने भी तो छोड़ा था सारा ज़माना उसके लिए

ये मुमकिन नहीं की सब लोग ही बदल जाते हैं
कुछ हालात के सांचों में भी ढल जाते हैं

खाली हाथों को कभी गौर से देखा है फ़राज़
किस तरह लोग लकीरों से निकल जाते हैं

वो रोज़ देखता है डूबे हुए सूरज को फ़राज़
काश मैं भी किसी शाम का मंज़र होता

कौन देता है उम्र भर का सहारा फ़राज़
लोग तो जनाज़े में भी कंधे बदलते रहते हैं

मेरी ख़ुशी के लम्हे इस कदर मुख्तसिर हैं फ़राज़
गुज़र जाते हैं मेरे मुस्कराने से पहले

चलता था कभी हाथ मेरा थाम के जिस पर
करता है बहुत याद वो रास्ता उसे कहना

उम्मीद वो रखे न किसी और से फ़राज़
हर शख्स महब्बत नहीं करता उसे कहना

वो बारिश में कोई सहारा ढूँढता है फ़राज़
ऐ बादल आज इतना बरस की मेरी बाँहों को वो सहारा बना ले

गिला करें तो कैसे करें फ़राज़
वो लातालुक़ सही मगर इंतिखाब तो मेरा है

ये वफ़ा उन दिनॉन की बात है फ़राज़
जब लोग सच्चे और मकान कच्चे हुआ करते थे

दीवार क्या गिरी मेरे कच्चे मकान की फ़राज़
लोगों ने मेरे घर से रास्ते बना लिए

कभी टूटा नहीं मेरे दिल से आपकी याद का तिलिस्म फ़राज़
गुफ़्तगू जिससे भी हो ख्याल आपका रहता है

फुर्सत मिले तो कभी हमें भी याद कर लेना फ़राज़
बड़ी पुर रौनक होती हैं यादें हम फकीरों की

दोस्ती अपनी भी असर रखती है फ़राज़
बहुत याद आएँगे ज़रा भूल कर तो देखो

मुहब्बत में मैंने किया कुछ नहीं लुटा दिया फ़राज़
उस को पसंद थी रौशनी और मैंने खुद को जला दिया

उस शख्स से वाबस्ता खुशफ़हमी का ये आलम है फ़राज़
मौत की हिचकी आई तो मैं समझा उसने याद किया

कभी हिम्मत तो कभी हौसले से हार गए
हम बदनसीब थे जो हर किसी से हार गए
अजब खेल का मैदान है ये दुनिया फ़राज़
कि जिसको जीत चुके उसी से हार गए

चाहने वाले मुक़द्दर से मिला करते हैं फ़राज़
उस ने इस बात को तस्लीम किया मेरे जाने के बाद

वो बाज़ाहिर तो मिला था एक लम्हे को फ़राज़
उम्र सारी चाहिए उसको भुलाने के लिए

वक़्त-ए-नज़ा है, इस कशमकश में हूँ की जान किसको दूं फ़राज़
वो भी आए बैठे हैं और मौत भी आई बैठी है

एक पल जो तुझे भूलने का सोचता हूँ फ़राज़
मेरी साँसें मेरी तकदीर से उलझ जाती हैं

सवाब समझ कर वो दिल के टुकड़े करता है फ़राज़
गुनाह समझ कर हम उन से गिला नहीं करते

मोहब्बत के अंदाज़ जुदा होते हैं फ़राज़
किसी ने टूट के चाहा और कोई चाह के टूट गया

मौसम का ऐतबार ज्यादा नहीं किया सो उसने हमसे प्यार ज्यादा नहीं किया
कुछ तो फ़राज़ हमने पलटने में देर की कुछ उसने इंतज़ार ज्यादा नहीं किया

मैं डूब के उभरा तो बस इतना ही देखा है फ़राज़
औरों की तरह तू भी किनारे पे खड़ा था

वो ये समझता है की मैं हर चेहरे का तलबगार हूँ फ़राज़
मैं देखता सभी को हूँ बस उसी तलाश में हूँ

आँखों में हया हो तो पर्दा दिल का ही काफी है फ़राज़
नहीं तो नकाबों से भी होते हैं इशारे मोहब्बत के

ये सोचा कर तेरी महफ़िल में चला आया हूँ फ़राज़
तेरी सोहबत में रहूँगा तो संवर जाऊंगा

ये ही सोच कर उस की हर बात को सच माना है फ़राज़
के इतने खूबसूरत लब झूठ कैसे बोलते होंगे

मेरे लफ़्ज़ों की पहचान अगर कर लेता वो फ़राज़
उसे मुझ से नहीं खुद से मुहब्बत हो जाती

उस की निगाह में इतना असर था फ़राज़
खरीद ली उसने एक नज़र में ज़िन्दगी हमारी

जब उसका दर्द मेरे साथ वफ़ा करता है
एक समुन्दर मेरी आँखों से बहा करता है

उसकी बातें मुझे खुशबू की तरह लगती हैं
फूल जैसे कोई सेहरा में खिला करता है

मेरे दोस्त की पहचान यही काफी है
वो हर शख्स को दानिस्ता खफा करता है

जब खिज़ां आए तो लौट आएगा वो भी फ़राज़
वो बहारों में ज़रा कम ही मिला करता है फ़राज़

अक्ल वालों के मुक़द्दर ये ज़ोक-ए-जुनूं कहाँ फ़राज़
ये इश्क वाले हैं जो हर चीज़ लुटा देते हैं

वो बेवफा न था यूँ ही बदनाम हो गया फ़राज़
हजारों चाहने वाले थे वो किस किस से वफ़ा करते

फिर इतने मायूस क्यूँ हो उसकी बेवफाई पर फ़राज़
तुम खुद ही तो कहते थे की वो सब से जुदा है

रूठ जाने की अदा हम को भी आती है फ़राज़
काश होता कोई हम को भी मनाने वाला

वो जानता था उसकी मुस्कुराहट मुझे पसंद है फ़राज़
उसने जब भी दर्द दिया मुस्कुराते हुए दिया

किस किस से मुहब्बत के वादे किये हैं तू ने फ़राज़
हर रोज़ एक नया शख्स तेरा नाम पूछता है

किताबों से दलीलें दूं या खुद को सामने रख दूं फ़राज़
वो मुझ से पूछ बैठी हैं मुहब्बत किसको कहते हैं

तुम मुझे मौक़ा तो दो ऐतबार बनाने का फ़राज़
थक जाओगे मेरी वफ़ा के साथ चलते चलते

वफ़ा की लाज में उसको मना लेते तो अच्छा था फ़राज़
अना की जंग में अक्सर जुदाई जीत जाती है

कांच की तरह होते हैं गरीबों के दिल फ़राज़
कभी टूट जाते हैं तो कभी तोड़ दिए जाते हैं

नाकाम थीं मेरी सब कोशिशें उस को मनाने की फ़राज़
पता नहीं कहाँ से सीखीं जालिम ने अदाएं रूठ जाने की

उस से बिछड़े तो मालूम हुआ की मौत भी कोई चीज़ है फ़राज़
ज़िन्दगी वो थी जो हम उसकी महफ़िल में गुज़ार आए

उम्मीद-ए-वफ़ा ना रख उन लोगों से फ़राज़
जो मिलते हैं किसी से होते हैं किसी के

हम ने सुना था की दोस्त वफ़ा करते हैं फ़राज़
जब हम ने किया भरोसा तो रिवायत ही बदल गई

बर्बाद होने के और भी रास्ते थे फ़राज़
न जाने हमें मुहब्बत का ही ख्याल क्यूँ आया

बस यही आदत उसकी मुझे अच्छी लगती है फ़राज़
उदास कर के मुझे भी वो खुश नहीं रहता

हजूम ए दोस्तों से जब कभी फुर्सत मिले
अगर समझो मुनासिब तो हमें भी याद कर लेना

हमारे बाद नहीं आएगा तुम्हे चाहत का ऐसा मज़ा फ़राज़
तुम लोगों से खुद कहते फिरोगे की मुझे चाहो तो उसकी तरह

इस तरह गौर से मत देख मेरा हाथ फ़राज़
इन लकीरों में हसरतों के सिवा कुछ भी नहीं

इतना न याद आया करो कि रात भर सो न सकें फ़राज़
सुबह को सुर्ख आखों का सबब पूछते हैं लोग


कभी कभी तो रो पड़ती हैं यूँ ही आँखें
उदास होने का कोई सबब नहीं होता

मैं अपने दिल को ये बात कैसे समझाऊँ फ़राज़
कि किसी को चाहने से कोई अपना नहीं होता

कितना खौफ़ होता है शाम के अंधेरों में फ़राज़
पूछ उन परिंदों से जिन के घर नहीं होते

मैं वफ़ा का कौन सा सलीका इख्तियार करूं फ़राज़
उसे यकीन हो जाए के मुझे वो हर एक से प्यारा है

महफ़िल से उठ के जाना तो कोई बात नहीं थी फ़राज़
मेरा मुड़ मुड़ के देखना उसे बदनाम कर गया

मुझको मालूम नहीं हुस्न की तारीफ फ़राज़
मेरी नज़रों में हसीन वो है जो तुझ जैसा हो

कसूर नहीं इसमें कुछ भी उनका फ़राज़
हमारी चाहत ही इतनी थी की उन्हें गुरूर आ गया

समंदर में फ़ना होना तो किस्मत की कहानी है फ़राज़
जो मरते हैं किनारों पे मुझे दुःख उन पे होता हैं

तपती रही है आस की किरणों पे ज़िन्दगी
लम्हे जुदाइयों के मा - ओ साल हो गए

जो कभी हर रोज़ मिला करते थे फ़राज़
वो चेहरे तो अब ख़ाब ओ ख़याल हो गए

तू किसी और के लिए होगा समन्दर ए इश्क़ फ़राज़
हम तो रोज़ तेरे साहिल से प्यासे गुज़र जाते हैं

उसे तेरी इबादतों पे यकीन है नहीं फ़राज़
जिस की ख़ुशियां तू रब से रो रो के मांगता है

उसकी जफ़ाओं ने मुझे एक तहज़ीब सिख दी है फ़राज़
मैं रोते हुए सो जाता हूँ पर शिकवा नहीं करता

उस शख्स से वाबस्ता खुशफहमी का ये आलम है फ़राज़
मौत की हिचकी आई तो मैं समझा कि उसने याद किया

वफ़ा की आज भी क़दर वही है फ़राज़
फकत मिट चुके हैं टूट के चाहने वाले

ये कह कर मुझे मेरे दुश्मन हँसता छोड़ गए
तेरे दोस्त काफी हैं तुझे रुलाने के लिए

ये ज़लज़ले यूँ ही बेसबब नहीं आते
ज़रूर ज़मीन के नीचे कोई दीवाना तड़पता होगा

प्रस्तुति- युधिष्टर पारीक

गुरुवार, 16 अक्तूबर 2014

सफल होगी तेरी अराधना....सचिन देव बर्मन

सचिन देव बर्मन, जिन्हें बर्मन दा के नाम से ज्यादा याद किया जाता है, शुरुआती दौर के रिकार्डस पर नाम दर्ज है- कुमार सचिन देव बर्मन। त्रिपुरा में 1अक्टूबर 1906 को त्रिपुरा के राजघराने में सचिन दा जन्म हुआ था। उनकी जन्मस्थली कोमिला ( अगरतला) जो अब बांग्लादेश में चली गई है। के राजा ईशानचन्द्र देव बर्मन के पोते और नवद्वीप चंद्र देव बर्मन के बेटे थे। इस नाते वे इस राजघराने के कुमार थे। पिता को राज- काज से ज्यादा संगीत से इश्क़ था। वे ध्रपद शैली के गायक थे और चार बहनों में सबसे छोटे सचिन ने पिता की राह पकड़ी।
कलकत्ता में बर्मन दादा ने प्रसिद्ध गायक केसीडे, भीष्मदेव चट्टोपाध्याय, उस्ताद अल्लाउद्दीन खान साहब, उस्ताद आफताबउद्दीन ,उस्ताद बादल खान की शागिर्दी की और उनसे संगीत की शिक्षा ली। फिर उस्ताद आफताबउद्दीन से गंड़ा बँधवाया । दादा की महत्वकांक्षा उस दौर के तमाम बड़े संगीतकार की तरह न्यू थियेटर्स का संगीतकार बनने की थी लेकिन वहां तो पहले ही आरसी बोराल और पंकज मलिक मौजूद थे।
पंकज मलिक ने 1933 में सचिन देव बर्मन को पहली बार मौक़ा दिया। फिल्म थी 'यहूदी की लड़की' कुन्दनलाल सहगल और रतनबाई की मुख्य भुमिकाओ वाली इस फिल्म में उन्हें एक भूमिका भी करनी थी लेकिन गीत रिकाॅर्ड होने के बाद कट कर दिया गया । इनकी जगह पहाड़ी सान्याल को भुमिका मिली और  सचिन देव बर्मन वाले गीत भी उनकी आवाज़ में किये गये।
 सचिन देव बर्मन 1937 में पहली बार वे बंगाल फिल्मों के संगीतकार बन गये । 1941 में मोहन पिक्चर, बम्बई की फिल्म 'ताजमहल' के लिये पहला हिन्दी गीत प्रेम की प्यारी निशानी जाग रही, गाया। इस फिल्म के संगीतकार थे माधुलाल डी मास्टर। 1944 में जब बंबई में बांबे टाकीज से अलग होकर शशधर मुखर्जी के नेतृत्व में फ़िल्मिस्तान नाम की नई कम्पनी बनी तो मुखर्जी ने  सचिन देव बर्मन को बंबई आने का न्योता दिया ।  सचिन देव बर्मन की बतौर संगीतकार पहली फिल्म थी, 'शिकारी' और दुसरी फिल्म थी, 'अाठ दिन' 1946 में इन दो फिल्मों के बाद 1947 में रिलीज़ फिल्म - दो भाई के दो गीत 'मेरा सुन्दर सपना बीत गया' और दुसरा गाना 'याद करोगे, इक दिन हमको' । ने गीता राय जो बाद में गीता दत के नाम से विख्यात हुई, बेमिसाल प्रसिध्दि मिली।
 1949 की फिल्म 'शबनम' जिसमें दिलीप कुमार के साथ नायिका कामिनी कौशल। इस फिल्म में एक बहुभाषी गीत था, जिसे शमशाद बेगम ने गाया था। गीत के बोल थे ' ये दुनिया रुप की चोर , बचा ले बाबू' ये गीत बहुत हिट हुआ। इसके बाद 1951 में आई बाजी - तदबीर से बिगड़ी  हुई तक़दीर बना ले, 'सुनो ग़जर क्या गाए', आज कि रात पिया दिल न तोड़ो, मन की बात पिया मान लो'। इसी साल  रिलीज़ हुई दादा की छ: फ़िल्मों में सबसे ज्यादा हिट गीतों वाली 'सज़ा'- तुम न जाने किस जहां में खो गए/ हम भरी दुनीया में तन्हा हो गए'- आ गुप -चुप,- गुप- चिप प्यार करें' और मस्ती भरा गीत ' धक-धक-धक, जिया करें धक/ अंखियों में अंखियां डाल के न तक'।
दादा के संगीत में हरदम जवाँ रंग का एक कारण आर. डी. बर्मन जैसे योगे और प्रतिभावान बेटे का साथ होना भी था, जो उनके बतौर असिस्टेंट काम रहे थे। लेकिन दादा अपने संगीत को लेकर अपने सारे फ़ैसले ख़ुद ही लेते थे। 1967 की फिल्म 'ज्वेल थीप का 'रात अकेली है'वाला गीत ही ले लें, इतना रंगीन और जवान गीत है कि इसकी कल्पना करना थोड़ कठीन है कि धोती - कुर्ता पहनने वाला 61 के बूढ़ा आदमी ने इस गाने को रचा होगा।
दादा के चरित्र जहां एक तरफ बला की सादगी और संगीत के लिए समर्पण का भाव था, वही उनमें एक बाल सुलभ सहजता और चंचलता का भी मिश्रण था। एक तरह राजसी नफ़ासत और ठसक थी तो वहीं दूसरी तरफ भावनाओं की कोमलता भी थी।
जीवन के अन्तिम समय में बर्मन दा ने ऋषिकेश मुखर्जी कि फिल्म अभिमान, चुपके, चुपके और मिली उनके आखिरी दौर की फिल्में थीं। बर्मन दा 69 वर्ष की अवस्था में 31 अक्तूबर 1975 को अन्तिम सांस ली। हिन्दी सिनेमा जगत
में आज भी बर्मन दा योगदान को याद करता है।

                                                                               
                                                                                                                                      युधिष्ठिर राज पारीक

शनिवार, 13 सितंबर 2014

सर्वदेवमयी गौ

गौ देवी सम्पदाकी प्रथम निधि है । यह व्यक्ति को स्वावलम्बन प्रदान करती है । व्यक्ति के पास प्रकृति-प्रदत शरीर तो है ही और भूमी पर वह जन्म लेता है, अतः व्यक्ति अपने शरीर तथा थोड़ी-सी भूमि के साथ बस देवविग्रह स्वरूप एक गौ रख ले तो फिर उसे अपने जीवनयापन सार्थक जीवनयापन हेतु किसी अन्य सहारे की आवश्यकता नहीं है । वह अपना सम्पूर्ण जीवन आराम से परमधर्म 'परोपकार' करते हुए भव बन्धन से मुक्त रहकर मुक्तिभाक,हो जाता है।
गौ का गोरस-दूध,दही, मटठा, घी, मलाई आदि अनेक पदार्थो के रूप में तथा विविध रसों से व्यक्ति की क्षुधा शान्त कर सकता है । गोमूत्र उसे आधि-व्याधि से दूर रख सकता है ।गोबर उसे शुचित के साथ-साथ अग्नि तथा भोज्य पदार्थ के पाचन का साधन, उसकी भूमी को उर्वराशक्ति प्रदान कर सकता है और उसकी संततियां उसके लिये तमाम आवश्यकता वस्तुएं सुलभ कराने में निरन्तरता प्रदान करने के साथ -साथ उसके लिये आवश्यक होने पर वाहन की व्यवस्था भी प्रदान कर सकती हैं । इस प्रकार गौ सर्वार्थसिध्दी का एक सम्पूर्ण साधन तथा भारतीय संस्कृति का मूलधार है, भारतीय दर्शन का आध्यात्मिक मूल है।
गोधन से धनी व्यक्ति के लिये 'परोपकार' कोई अतिरिक्त साधन नहीं रह जाती है, क्योंकि एक गाय जितनी सामग्री प्रदान करती है वह व्यक्ति अकेले अपने निज के प्रयोग में खर्च नहीं कर सकता है। वह यदि किसी समष्टि के साथ है तो उसे वह दूसरों को देना ही पड़ेगा। यही तो परोपकार है। गाय रखने तथा उसकी सेवामा़त्र से ही परोपकारा की साधना स्वयमेव सिध्द हो जाती है। गोमाता व्यक्ति को अपरिग्रही परोपकारी बना देती है।
जीव के इतने महान,पुरूषार्थ की साधिका होने के बाद भी गौ का स्वरूप स्वयं में कितना शान्त, कितना निश्चिन्त, कितना सौम्य तथा कितना प्रसन्न होता है उसे देखकर ही व्यक्ति का चित शान्त और प्रफुल्लित हो उठता है। गौओं की स्वाभविक चाल में एक अजीब-सा मोहक गाम्भीर्य होता है जो कि हमें बिना आतुर हुए अपने कार्यो को पूर्ण करने की प्रेरणा प्रदान करता है।
गौ और पृथ्वी एक-दूसरे के पूरक हैं। पृथ्वी जीवों का आधार है और जीवों का जीवनाधार है। इस प्रकार गौ और पृथ्वी का तादात्म्य है। गौ के गोबर तथा मूत्र पृथ्वी की उर्वराशक्ति की अभिवृध्दी करते हैं और यह अभिवृध्दी भी स्वाभाविक होती है। इसमें स्थायित्व एवं निरन्तरता होती है । अतः यह पृथ्वी को अत्यन्त प्रिय होता है। पुराणों तथा शास्त्रों गौ को पृथ्वी का जीवन्त रूप माना गया है ।
गौ की प्रकृति, उसके द्वारा प्राप्त नैसर्गिक एवं स्वाभाविक स्वावलम्बन, उसका पृथ्वी के साथ तादात्म्य तथा उसके सौम्यादि गुणों के खान होने के कारण ही भारतीय मनीषी, समाज एवं संस्कृति में गौ का इतना महत्व है और इसे सभी दृष्टि से संरक्षणीय माना गया हैं। गौ की प्रकृति एवं स्वरूंप का तात्विक विवेचन तथा उसका अनुशीलन हमारे अध्यात्म के रहस्य का भेदन करने में सार्थक माध्यम बनाता है और हम सृष्टि की प्रक्रिया को उसकी पूर्णता में सक्षम होते हैं ।
अध्यात्म को यदि थोड़ी देर के लिये छोड़ भी दें तो भी आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टि से गौ का हमारे जीवन में बहुत महत्व है । विज्ञान की चरमोत्मर्क की अवस्था में भी व्यक्ति निज में अत्यन्त अपूर्ण होता है, किंतु गौ का सांनिध्य हमें बरबस पूर्णता प्रदान करता है जो कि सामाजिक दर्शन की मूलभूत अवधारणा है।


                          अली मोहम्मद पड़िहार

सोमवार, 25 अगस्त 2014

लोकप्रिय शायर- मुनव्वर राना की ग़ज़लें 
(1)
जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है 
माँ दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती है 

रोज़ मैं अपने लहू उसे खत लिखता हूँ 
रोज़ ऊँगली मेरी तेज़ाब में आ जाती है 

दिल की गलियों से तेरी याद निकलती ही नहीं 
सोहनी फिर इसी पंजाब में आ जाती है 

रात भर जागते रहने का सिला है शायद 
तेरी तस्वीर सी महताब में आ जाती है 

एक कमरे में बसर करता है सारा कुनबा 
सारी दुनिया दिले बेताब में आ जाती है 

ज़िन्दगी तू भी भिखारिन की रिदा ओढ़े हुए 
कूचा -ए -रेशम -ओ -कमख़्वाब में आ जाती है 

दुःख किसी का हो छलक जाती है मेरी आँखे 
सारी मिट्टी मेरे तालाब में आ जाती है
(2)
दुनिया तेरी रौनक से मैं अब ऊब रहा हूँ
तू चाँद मुझे कहती थी मैं डूब  रहा हूँ 


अब कोई शनासा भी दिखाई नहीं देता 
बरसों मैं इसी शहर का महबूब रहा हूँ 

मैं ख़्वाब नहीं आपकी आँखों की तरह था 
मैं आपका लहजा नहीं अस्लूब रहा हूँ 

इस शहर के पत्थर भी गवाही मेरी देंगे 
सहरा भी बता देगा कि मजज़ूब रहा हूँ 

रुसवाई मेरे नाम से मन्सूब रही है 
मैं खुद कहाँ रुसवाई से मन्सूब रहा हूँ 

दुनिया मुझे साहिल से खड़ी देख रही है 
मैं एक जज़ीरे की तरह डूब रहा हूँ 

फेंक आये थे मुझको भी मेरे भाई कुँए में 
मैं सब्र से भी हज़रते अय्यूब रहा हूँ 
तीन 
मुहब्बत करने वालों में ये झगड़ा डाल देती है 
सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है 

तवायफ़ की तरह अपने गलत कामों के चेहरे पर 
हुकूमत मन्दिर -ओ -मस्जिद का पर्दा डाल देती है 

हुकूमत मुँह -भराई के हुनर से खूब वाकिफ़ है 
ये हर कुत्ते के आगे शाही टुकड़ा डाल देती है 

कहाँ की हिजरतें ,कैसा सफ़र ,कैसा जुदा होना 
किसी की चाह पैरों पर दुपट्टा डाल देती है 

ये चिड़िया भी मेरी बेटी से कितना मिलती -जुलती है 
कहीं भी शाख -ए -गुल देखे तो झूला डाल देती है 

हसद की आग में जलती है सारी रात वो औरत 
मगर सौतन के आगे अपना जूठा डाल देती है 
चार 
हमारी ज़िन्दगी का इस तरह हर साल कटता है 
कभी गाड़ी पलटती है ,कभी तिरपाल कटता है 

दिखाते हैं पड़ोसी मुल्क आँखे तो दिखाने दो 
कहीं बच्चों के बोसे से भी माँ का गाल कटता है 

इसी उलझन में अक्सर रात आँखों में गुजरती है 
बरेली को बचाते हैं तो नैनीताल कटता है 

कभी रातों के सन्नाटे में भी निकला करो घर से 
कभी देखा करो गाड़ी से कैसे माल कटता है 

सियासी वार भी तलवार से कुछ कम नहीं होता 
कभी कश्मीर जाता है ,कभी बंगाल कटता है 
पांच 
शरीफ़ इंसान आखिर क्यों इलेक्शन हार जाता है 
किताबों में तो लिक्खा है कि रावन हार जाता है 

जुड़ी हैं इससे तहज़ीबें सभी तस्लीम करते हैं 
नुमाइश में मगर मिट्टी का बरतन हार जाता है 

मुझे मालूम है तूमनें बहुत बरसातें देखी है 
मगर मेरी इन्हीं आँखों से सावन हार जाता है 

अभी मौजूद है इस गाँव की मिट्टी में खुद्दारी 
अभी बेवा की गैरत से महाजन हार जाता है 

अगर एक कीमती बाज़ार की सूरत है दुनिया 
तो फिर क्यों काँच की चूड़ी से कंगन हार जाता है
छः 
मुख़्तसर होते हुए भी ज़िन्दगी बढ़ जायेगी 
माँ की ऑंखें चूम लीजै रौशनी बढ़ जायेगी 

मौत का आना तो तय है मौत आयेगी मगर 
आपके आने से थोड़ी ज़िन्दगी बढ़ जायेगी 

इतनी चाहत से न देखा कीजिए महफ़िल में आप 
शहर वालों से हमारी दुशमनी बढ़ जायेगी 

आपके हँसने से खतरा और भी बढ़ जायेगा 
इस तरह तो और आँखों की नमी बढ़ जायेगी 

बेवफ़ाई खेल है इसको नज़र अंदाज़ कर 
तज़किरा करने से तो शरमिन्दगी बढ़ जायेगी 
सात 
मैं इसके नाज़ उठाता हूँ सो ये ऐसा नहीं करती 
ये मिटटी मेरे हाथों को कभी मैला नहीं करती 

खिलौनों की दुकानों की तरफ़ से आप क्यूँ गुज़रे 
ये बच्चे की तमन्ना है ये समझौता नहीं करती 

शहीदों की ज़मीं है इसको हिन्दुस्तान कहते हैं 
ये बन्जर होके भी बुज़दिल कभी पैदा नहीं करती 

मोहब्बत क्या है दिल के सामने मजबूर हो जाना 
जुलेखा वरना  यूसुफ का कभी सौदा नहीं करती 

गुनहगारों की सफ़ में रख दिया मुझको ज़रूरत ने 
मैं नामरहम हूँ लेकिन मुझसे ये परदा नहीं करती 

अजब दुनिया है तितली के परों को नोच लेती है 
अजब तितली है पर नुचने पे भी रोया नहीं करती 
आठ 
गुलाब रंग को तेरे कपास होना पड़े 
न इतना हँस कि तुझे देवदास होना पड़े 

बला से जाती हैं आँखे तो फिर चली जायें 
मैं उसको देख लूँ फिर देवदास होना पड़े 

ये आरज़ू है कि गुज़रे इधर से वो चाहे 
हमारी पलकों को रस्ते की घास होना पड़े 

ये मोड़ वो है जहाँ खुदकुशी भी जाएज़ है 
मेरी अना को अगर बेलिबास होना पड़े
नौ
कोयल बोले या गौरैया अच्छा लगता है 
अपने गाँव में सब कुछ भैया अच्छा लगता है 

तेरे आगे माँ भी मौसी लगती है 
तेरी गोद में गंगा मैया अच्छा लगता है 

कागा की आवाज़ भी चिट्ठी जैसी लगती है 
पेड़ पे बैठा एक गवैया अच्छा लगता है 

माया -मोह बुढ़ापे में बढ़ जाता है 
बचपन में बस एक रुपैया अच्छा लगता है 

खुद ही डांटे ,खुद ही लगाये सीने से 
प्यार में उसका ये भी रवैया अच्छा लगता है 
दस -मुनव्वर राना की हस्तलिपि में कुछ शेर 


 वो जब याद आये...
भारतीय सिनेमा जगत में बी.आर.चोपडा को एक ऐसे फिल्मकार के रुप में याद किया जाता है जिन्होंने पारिवारिक, सामाजिक और साफ सुथरी फिल्मे बनाकर लगभग पांच दशक तक सिने प्रेमियों के दिल में अपनी खास पहचान बनाई। 22 अप्रैल 1914 को पंजाब के लुधियाना शहर में जन्में बी.आर. चोपडा बलदेव राज चोपडा बचपन के दिनों से ही फिल्म में काम कर शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचना चाहते थे।
बी.आर.चोपडा ने अपने कैरियर की शुरूआत बतौर फिल्म पत्रकार के रूप में की। फिल्मी पत्रिका 'सिने हेराल्ड' में फिल्मों की समीक्षा लिखा करते थे। वर्ष 1949 में फिल्म 'करवट'से उन्होंने फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कदम रखा लेकिन दुर्भाग्य से यह फिल्म बॉक्स आॅफिस पर बुरी तरह फ्लाॅफ रही वर्ष 1951 में अशोक कुमार अभिनीत फिल्म 'अफसाना' को बी.आर.चोपडा ने निर्देशित किया।फिल्म ने बॉक्स आॅफिस पर हिट साबित हुई । फिल्म की सफलता के बाद बी.आर. चोपडा फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने में  सफल हो गए । वर्ष 1955 मे बी.आर. चोपडा ने  .बी.आर.फिल्मस बैनर का निर्माण किया । 'एक ही रास्ता' ने बी.आर. चोपडा के लिए सफलता के सारे दरवाजे खोल दिए । इसमें विधवा विवाह की मार्मिक अपील थी । अशोक कुमार और मीना कुमारी ने अपने भावप्रवण अभिनय के माध्यम से दर्शकों का दिल जीत लिया । 1957 आई 'नया दौर' में मूल संस्करण मे दिलीप कुमार -मधुबाला की जोड़ी थी पर बाद में किसी कारण वंश मधुबाला की जगह वैजयंती माला को लिया गया । जब 'नया दौर' की कहानी का आइडिया फिल्मकार महबूब खान,एस.एस.वासन और एस.मुखर्जी तक पहुंचा, तो उन्होने बी.आर.चोपडा हंसी उड़ीई कि वे एक तांगे वाले पर फिल्म बनाकर पैसा बर्बाद कर रहे है, और जब नायक के रूप में दिलीप कुमार से संपर्क किया तो पहले कहानी सुनने तक से इन्कार कर दिया था, पर बाद में राजी हो गये । फिल्म मंुबई में 25 सप्ताह तक हाऊसफुल के साथ चली ।सिल्वर जुबली समारोह में महबूब खान मुख्य अतिथि के रूप में आए । 'नया दौर' का संगीत ओ. पी. नैयर ने अपनी फड़कती शैली में दिया 'ऊड़े जब जब जुल्फे तेरी', 'रेशमी सलवार कुर्ता जाली का' और समाजवादी गीत 'साथी हाथ बढ़ाना' । साहिर का तांगा-'मांग के साथ तुम्हारा मैने माग लिया संसार' गीत भी श्रोताओं को बहुत पंसद आया । फिल्म 'नया दौर' में मानवतावाद की आधुनीक और सामंतवाद पर जीत के साथ इंसान और मशीन के रिश्तों को भी गहराई के साथ रेखांकित किया गया है। फिल्म 'साधना' [1958] में स्त्री के वेश्य होनी की व्यथा-कथा और समाज के लोगों द्वारा इस पेशे में धकेल दिए जाने की दास्तान है । फिल्म 'धुल का फूल' [1959]  में शादी के बिना जन्मे बच्चे की कानूनी मान्यता का सबाल है। फिल्म 'धर्मपुत्र' [1960] हिंन्दू- मुस्लीम सांप्रदायिक सदभाव की अनूठी मिसाल है ।  बी.आर.चोपडा प्रयोगवादी फिल्मकार थे । पचास और साठ के दशक में जब तमाम हिन्दी फिल्मे आठ-दस नाच-गानो के साथ आती थी, तब  बी.आर.चोपडा ने नाच- गाने रहित फिल्म 'कानून' [1960] प्रदर्शित कर जोखिम ऊठा़या इसके बावूजद दर्शक यह देखने आए कि गीत रहित फिल्म आखिर  कैसी होगी । उन्होंने फिल्म के कोर्ट रूप ड्रामा को खूब आनंद लिया ।
'गुमराह'[1963] में भी हाई वोल्टेज ड्रामा था । फिल्म की नायका माला सिन्हा अपनी म्रत बहन के पति अशोक कुमार से जबरन ब्याह दी जाती है। शादी के बावजूद वह अपने प्रेमी सुनील दत से से लगातार मिलती रहती है। शशिकला खलनायिका के रूप में ब्लैकमेल करती है। अपनी मर्जी से या बेमर्जी से शादी की व्यवस्था पर यह फिल्म गहराई से पड़ताल करती है । साठ के दशक में पतिव्रता और पति को परमेश्वर मानने वाली स्त्री के लिए यह चौंकान वाली फिल्म थी । 1965 में देश की पहली मल्टीस्टारर फिल्म 'व़क्त' लेकर मैदान में आए इसमें उस दौर के महंगे सितारे बलराज साहनी, राजकुमार, सुनील दत, साधना, शर्मिला टैगोर, शशि कपूर और अचला सचदेव थे । पहली बार उच्च वर्ग और आपसी कलह को दिखाया गया था। 'वक़्त' फिल्म में वे सारे दर्शया थे जो आगे चलकर मनमोहन देसाई और प्रकाश मेहरा जैसे निर्देशकों के लिए फार्मूला बन गए । एक भूकंप में सुखी और धनी परिवार के तीन बेटे बिछुड़ जाते हैं । एक बेटा अनाथलय में है। दो बेटे एक ही लड़की के प्यार में एक दुसरे के अनजाने में दुश्मन बन जाते है। सुरज बड़जात्या, करण जौहर और आदित्य चौपड़ा ने अपनी फिल्मों में भव्य बंगले विशाल ड्राइंग रूम, तड़क भड़क का विलासी जीवन जो नब्बे के दशक में दिखाया, उस  बी.आर.चोपड़ा 'व़क्त' में हर तरीके से दिखा चुके थे। फिल्म के तीन गाने ' वक्त से दिन और रात'[रफी] 'ऐ मेरी जोहरा जबीं ' [मन्ना डे] 'आगे भी जाने ना तू' [आशा] बहुत लोकप्रिय हुए थे ।
'हमराज'[1967] में विधवा नायिका का प्रेमी इस बात की तलाश करता है पति जीवित है। इसकी अनोखी कथावस्तु दर्शकों काफी अच्छी लगी । 'आदमी और इन्सान'[1969] में श्रम समस्या और भ्रष्टाचार का चित्रण  बी.आर.चोपडा ने अपनी शैली में प्रस्तुत किया था। फिल्म 'दास्तान' 'कर्म' और ' द बर्निग ट्रेन' बी.आर.की फ्लाॅप फिल्में थी । इसके बाद 'पति पत्नि और वो' [1978] नामक काॅमेडी फिल्म बनाई । नायक संजीव कुमार अपनी सेक्रेट्री रंजीता कौर से प्यार की पींगे भरता है। पत्नी विद्दा सिन्हा अपने कोशिशों से पति को सही राह पर लाती है । लेकिन फिल्म के अंत में बिंदास परवीन बाॅबी नई सेक्रेट्री के रूप में ज्वाॅइन होकर फिर चक्कर चलाती है। इस फिल्मों से पहले बहुत कम हिंदी फिल्मों में इस तरह के कथानक आए थे ।
फिल्मों मे पहली पारी करने के बाद बी.आर.चोपडा ने छोटे परदे पर 'महाभारत' की भव्य रचना कर दूरदर्शन के लिए इतिहास बनाया। 94 एपीसोड का यह भव्य धारावाहिक 1988 से 90 की अवधि में दूरदर्शन पर जब दिखाया जाता, पुरे देश में सन्नाटा पसर जाता था । इसकी टीआरपी हमेशा सबसे ज्यादा रही और गिनीज बुक में भी दर्ज हुआ । दूरदर्शन को प्रति एपीसोड एक करोड़ तक के विज्ञापन मिलने लगे थे।
बी.आर.चोपडा को मिले सम्मान पर यदि नजर डाले तो वर्ष 1998 में हिन्दी सिनेमा के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के अवार्ड से सम्मानित किए गए। इसके अलावा वर्ष 1960 में प्रदर्शित फिल्म 'कानून'के लिए वह सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए। बहुमुखी प्रतिभा के धनी बी.आर.चोपडा ने फिल्म निर्माण के अलावा'बागवान'और 'बाबुल' की कहानी भी लिखी। जिन्हे उनके बेटे रवि चोपड़ा ने 2004 और 2006 में सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया ।

                                 युधिष्टर पारीक
                                      नोहर

शनिवार, 23 अगस्त 2014

दिनांक 20/6/2005 समय 7:45

  सर्वदेवमयी गौ

गौ देवी सम्पदाकी प्रथम निधि है । यह व्यक्ति को स्वावलम्बन प्रदान करती है । व्यक्ति के पास प्रकृति-प्रदत शरीर तो है ही और भूमी पर वह जन्म लेता है, अतः व्यक्ति अपने शरीर तथा थोड़ी-सी भूमि के साथ बस देवविग्रह स्वरूप एक गौ रख ले तो फिर उसे अपने जीवनयापन सार्थक जीवनयापन हेतु किसी अन्य सहारे की आवश्यकता नहीं है । वह अपना सम्पूर्ण जीवन आराम से परमधर्म 'परोपकार' करते हुए भव बन्धन से मुक्त रहकर मुक्तिभाक,हो जाता है।
गौ का गोरस-दूध,दही, मटठा, घी, मलाई आदि अनेक पदार्थो के रूप में तथा विविध रसों से व्यक्ति की क्षुधा शान्त कर सकता है । गोमूत्र उसे आधि-व्याधि से दूर रख सकता है ।गोबर उसे शुचित के साथ-साथ अग्नि तथा भोज्य पदार्थ के पाचन का साधन, उसकी भूमी को उर्वराशक्ति प्रदान कर सकता है और उसकी संततियां उसके लिये तमाम आवश्यकता वस्तुएं सुलभ कराने में निरन्तरता प्रदान करने के साथ -साथ उसके लिये आवश्यक होने पर वाहन की व्यवस्था भी प्रदान कर सकती हैं । इस प्रकार गौ सर्वार्थसिध्दी का एक सम्पूर्ण साधन तथा भारतीय संस्कृति का मूलधार है, भारतीय दर्शन का आध्यात्मिक मूल है।
गोधन से धनी व्यक्ति के लिये 'परोपकार' कोई अतिरिक्त साधन नहीं रह जाती है, क्योंकि एक गाय जितनी सामग्री प्रदान करती है वह व्यक्ति अकेले अपने निज के प्रयोग में खर्च नहीं कर सकता है। वह यदि किसी समष्टि के साथ है तो उसे वह दूसरों को देना ही पड़ेगा। यही तो परोपकार है। गाय रखने तथा उसकी सेवामा़त्र से ही परोपकारा की साधना स्वयमेव सिध्द हो जाती है। गोमाता व्यक्ति को अपरिग्रही परोपकारी बना देती है।
जीव के इतने महान,पुरूषार्थ की साधिका होने के बाद भी गौ का स्वरूप स्वयं में कितना शान्त, कितना निश्चिन्त, कितना सौम्य तथा कितना प्रसन्न होता है उसे देखकर ही व्यक्ति का चित शान्त और प्रफुल्लित हो उठता है। गौओं की स्वाभविक चाल में एक अजीब-सा मोहक गाम्भीर्य होता है जो कि हमें बिना आतुर हुए अपने कार्यो को पूर्ण करने की प्रेरणा प्रदान करता है।
गौ और पृथ्वी एक-दूसरे के पूरक हैं। पृथ्वी जीवों का आधार है और जीवों का जीवनाधार है। इस प्रकार गौ और पृथ्वी का तादात्म्य है। गौ के गोबर तथा मूत्र पृथ्वी की उर्वराशक्ति की अभिवृध्दी करते हैं और यह अभिवृध्दी भी स्वाभाविक होती है। इसमें स्थायित्व एवं निरन्तरता होती है । अतः यह पृथ्वी को अत्यन्त प्रिय होता है। पुराणों तथा शास्त्रों गौ को पृथ्वी का जीवन्त रूप माना गया है ।
गौ की प्रकृति, उसके द्वारा प्राप्त नैसर्गिक एवं स्वाभाविक स्वावलम्बन, उसका पृथ्वी के साथ तादात्म्य तथा उसके सौम्यादि गुणों के खान होने के कारण ही भारतीय मनीषी, समाज एवं संस्कृति में गौ का इतना महत्व है और इसे सभी दृष्टि से संरक्षणीय माना गया हैं। गौ की प्रकृति एवं स्वरूंप का तात्विक विवेचन तथा उसका अनुशीलन हमारे अध्यात्म के रहस्य का भेदन करने में सार्थक माध्यम बनाता है और हम सृष्टि की प्रक्रिया को उसकी पूर्णता में सक्षम होते हैं ।
अध्यात्म को यदि थोड़ी देर के लिये छोड़ भी दें तो भी आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टि से गौ का हमारे जीवन में बहुत महत्व है । विज्ञान की चरमोत्मर्क की अवस्था में भी व्यक्ति निज में अत्यन्त अपूर्ण होता है, किंतु गौ का सांनिध्य हमें बरबस पूर्णता प्रदान करता है जो कि सामाजिक दर्शन की मूलभूत अवधारणा है।


                        मर्हूंम जनाब  अली मोहम्मद पड़िहार

मंगलवार, 5 अगस्त 2014

महान संगीतकारों को श्रद्धांजलि

[फिरोज़ शाह मिस्त्री ]
सन् 1931 में फिरोज़ शाह मिस्त्री के संगीत से बद्ध पहली फिल्म आलम आरा में डब्ल्यू एस ख़ान का गाया फिल्म इतिहास का पहला गाना "दे दे ख़ुदा के नाम पर प्यारे ताक़त "की तब लोगों की ज़बान पर चढ़ गया था। इसके पहले मूक फिल्मों के दौर में सिनेमा हॉल में परदे के पास बैठकर आर्केस्ट्रा फिल्म के हिसाब से संगीत देती थी। लेकिन ज़ाहिर है कि जब दर्शकों ने अदाकारों को परदे पर गाते सुना तो वे चमत्कृत रह गए। लेकिन ये तो एक शुरूआत थी उस शानदार सिलसिले की जिसने भारतीय फिल्म इंडस्ट्री को ही पूरी तरह से बदल डाला। संगीत फिल्मों की जान बन गया। गीत-संगीत फिल्मों की सफलता-असफलता की कसौटी बन गए। इसी के साथ फलने-फूलने लगी एक परंपरा, जिसने देश भर से संगीत-प्रतिभाओं को बंबई खींचना शुरू किया। धीरे-धीरे इलाकाई संगीत के मेलजोल से भारतीय संगीत की एक मिली-जुली तस्वीर बनने लगी। इसमें संगीत के हर रंग दिखने लगे। शास्त्रीय, लोक और क्षेत्रीय संगीत का ये मिश्रण जन-जन की ज़बान पर छाने लगा। इस संगीत में लोगों के दुख-सुख बयान होने लगे। उनके सपने और संघर्ष की कहानी कहने लगा फिल्म-संगीत।

[आर. सी.बोराल ]

आर. सी.बोराल का संगीत में ख़ास योगदान रहा। उन्हें संगीत की समझ तो थी ही वे वाद्ययंत्रों की भी अच्छी जानकारी रखते थे। उन्होंने फिल्म संगीत में कई नए वाद्य यंत्रों का प्रयोग शुरू किया। हिंदी फिल्मों में धूप छाँव के गीत...... मैं खुश होना चाहूँ, खुश हो न सकूँ......से पार्श्व गायन की शुरूआत करने वाले भी आर.सी. बोराल ही थे। प्रसिद्ध गायक कुंदन लाल सहगल की खोज का श्रेय बेशक हरिश्चंद्र बाली को जाता है मगर बोराल ने ही उनकी प्रतिभा को सही ढंग से पहचाना और उसका इस्तेमाल भी किया।

[अनिल विश्वास]

फिल्म संगीत के इस अपेक्षाकृत शांत दौर में हलचलें पैदा कीं पूर्वी बंगाल के क्रांतिकारी संगीतकार अनिल विश्वास ने संगीत की गहरी, विविधतापूर्ण और विस्तृत समझ रखने वाले अनिल विश्वास ने फिल्म संगीत में ढेर सारे रंग भर दिए। उन्होंने पश्चिम बंगाल के लोक संगीत का तो जमकर इस्तेमाल किया ही ग़ज़ल, ठुमरी आदि का प्रयोग भी नए अंदाज़ में करना शुरू कर दिया। फिल्म संगीत में आर्केस्ट्रा और कोरस के प्रभाव को स्थापित करने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। ये समय राजनीतिक उथल-पुथल का था और धुनों की यात्रा के अनुसार इस कम्युनिस्ट क्रांतिकारी ने “राजनीतिक-सांस्कृतिक धारा के संगीत का सूत्रपात किया, और इसे बहुत आगे भी ले गया। लोकशैली की धुन को राजनीतिक अर्थव्यंजकता देने में कोरस का लाजवाब प्रयोग उन्हीं की देन है, जिसे आगे चलकर सलिल चौधरी ने नया विस्तार और नई दिशा दी।

[मास्टर गुलाम हैदर]

1946 का दौर था जब लता मंगेशकर जैसी गायिका फिल्म संगीत के आकाश पर उदित हुई और फिर पूरी सदी पर छा गई। लता की प्रतिभा को पहचान ने का श्रेय मास्टर ग़ुलाम हैदर को जाता है,

[खेमचंद प्रकाश ]

लता की आवाज़ में गाया गया गीत आएगा आएगा आने वाला खेमचंद प्रकाश की ही कालजयी कंपोजीशन है। खेमचंद प्रकाश और अन्य संगीतकारों के संगीत को करीब से देखने के बाद ही समझा जा सकता है कि किसी गायक-गायिका की प्रतिभा को समझ-संवारकर संगीतकार उसे कहाँ से कहाँ पहुँचा सकता है। यों तो उनके हिट संगीत के लिए कई गानों और फिल्मों का ज़िक्र किया जा सकता है मगर फिल्म महल तो उनका अमर साऊंड ट्रेक है। पहाड़ी शैली में कंपोज किया गया "मुश्किल है बहुत मुश्किल, चाहत को भुला देना, और "दिल ने फिर याद किया बेवफ़ा लौट भी आ" जैसे लता के गीतों में कंपोजीशन का एक बेहद परिपक्व जादू है।

[नौशाद]

सबसे मक़बूल संगीतकार नौशाद थे। वे संगीत की दुनिया के पहले सुपर स्टार कहे जा सकते हैं। नौशाद पहले संगीतकार थे जिन्होंने अपनी शख्सियत और अपने हुनर से संगीतकार का दर्ज़ा भी नायक या निर्देशक के समकक्ष ला खड़ा किया।शास्त्रीय संगीत का सुगम रूप गढ़ने में उन्हें महारत हासिल थी। उसमें लोकरंग का भी बहुत ही समझदारी से इस्तेमाल करते हुए उन्होंने सरस और मीठे गीतों की रचना की। पचास साल के अपने फिल्म-संगीत के करियर में उन्होंने अंतिम समय तक इसे थामकर रखा। "रतन" से लेकर अनमोल घड़ी दिल्लगी, शाहजहाँ,दुलारी, अनोखी अदा, अँदाज़, बैजू बावरा, मदर इंडिया, मुग़ल ए आज़म आदि फिल्में इसकी गवाह हैं। नौशाद के संगीत का जादू बहुत लंबे समय तक कायम रहा। वे आठवें दशक तक सक्रिय रहे मगर धीरे-धीरे बदलते ज़माने की ज़रूरतों और आस्वादों ने उन्हें अप्रासंगिक बना दिया। लेकिन इस लंबे कालखंड में उनका अमिट हस्ताक्षर दर्ज़ है।

[सचिन देव बर्मन]

सचिन देव बर्मन के गानों में एक नई ताज़गी थी, बागों की खुश्बू थी, हवाओं की चहल-पहल थी और प्रकृति के नाना रूपों की ठिठोली थी। हालाँकि त्रिपुरा से वाया कलकत्ता होते हुए मुंबई वे गायक के रूप में ही पहुँचे थे और उन्होंने अपना पहला गाना धीरे से आजा रे बगियन में रिकार्ड करवाया था, मगर उनकी मंज़िल गायकी नहीं संगीत की थी। गाना उन्होंने बेशक जारी रखा, वे सराहे भी गए मगर उन्हें असली ख्याति मिली एक संगीतकार के रूप में ही। फिल्म "मशाल" उनके करियर के लिए मील की पत्थर साबित हुई और फिर नवकेतन के बैनर के साथ ताउम्र का साथ उनके लिए उनके फिल्मी सफर को सुहाना बनाता चला गया। शास्त्रीय संगीत पर उनकी पकड़ तो बहुत मज़बूत थी मगर उसका विशिष्ट पहलू ये था कि उन्होंने शास्त्रीय आधारित रचनाओं को भी मेलोडी और माधुर्य की संरचना के अंदर ही रखकर प्रस्तुत किया। उनका ज़ोर रहता था कि भले ही धुन शास्त्रीय रागों पर आधारित हो मगर वह ऐसी बनना चाहिए कि राह चलता आदमी भी उसे आसानी से गुनगुना सके। मेरी सूरत तेरी आँखें, कैसे कहूँ और गाइड के संगीत में इसे देखा जा सकता है। मेरी सूरत तेरी आँखें का गीत पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई तो सर्वकालिक हिट गीत है।

[ सी रामचंद्र]

सी रामचंद्र को एक तरह से विद्रोही संगीतकार भी कहा जा सकता है, क्योंकि उन्होंने संगीत की कई परिपाटियों और मान्यताओं को ठुकराकर कई विदेशी संगीत शैलियों के साथ भी प्रयोग किए। साथ ही शुद्ध भारतीय मेलोडी को निखार और तराशकर लता के स्वर में ऊंचाईयों तक पहुंचाने वाली रचनाएं भी सी. रामचंद्र के ही हिस्से आई । सी रामचंद्र के पास हास्य-व्यंग्यप्रधान गीतों को एक अलग अंदाज़ में पेश करने का अनूठा हुनर था। इसीलिए उनके संगीतबद्ध मजाहिया गाने बहुत लोकप्रिय हुए। जैसे "भोली सूरत दिल के खोटे"..."मेरी जान संडे के संडे" तक इस ख़ास वर्ग में उनकी बादशाहत को कोई चुनौती नहीं दे पाया। लेकिन इन गीतों के आधार पर ये मान लेना भूल होगी कि सी रामचंद हल्के-फुल्के गीतों के संगीतकार ही थे। इसके विपरीत उन्होंने बहुत ही गंभीर काम भी किया और उन्हें लता मंगेशकर के गायन को एक ऊंचाई तक ले जाने का श्रेय भी दिया जाता है।

[रोशनलाल ]

 संगीतकार रोशन का नाम भले ही आज की पीढ़ी के लिए नया सा हो, पर संगीत के दीवाने जानते है कि रोशन का नाम किसी भी गीत से जुड़ जाए तो शक्कर की मिठास जैसा गीत पैदा होता है.उनके संगीतबद्ध गीत हमेशा जवां गीतों की लिस्ट में शामिल होते हैं. रोशन नाम से
बताना लाजिमी होगा कि ये वहीं संगीतकार है जो रितिक रोशन के दादा, निर्देशक-नायक राकेश रोशन और संगीतकार राजेश रोशन के पिता  हैं. रोशन संगीत के बहुत अच्छे जानकार थे. वे विविधता के मामले में वे विशेष सतर्कता बरतते थे. उनके संगीत से सजे गीतों को सुने तो स्वयं ही अंदाजा हो जाता है कि कैसे कोई एक ही संगीतकार अलग अलग अंदाज वाले संगीत की धुनों को जन्म दे सकता है.उनके संगीत में कर्णप्रियता का पुट बढ़ गया और संगीतप्रेमियों को गुनगुनाने के अलावा थिरकना भी पड़ता है. फिल्मी  कव्वालियों में भी रोशन का बड़ा अहम योगदान रहा फिल्म बरसात की एक रात की लोकप्रिय कव्वाली ये इश्क इश्क है..इश्क इश्क ने सफलता के झंडें गाढ़ दिए थे.

[ हेमन्त कुमार ]

हर रचनाधर्मी कलाकार प्रतिभा का धनी होता है लेकिन हेमन्त कुमार बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे. यही वजह है कि उनके संगीत में रवीन्द्र संगीत, बांग्ला लोक संगीत, आधुनिक और शास्त्रीय संगीत का मिलाजुला रूप महसूस होता है.
देश विदेश में अपने संगीत का जादू बिखेरने वाले हेमन्त कुमार के खाते में ऐसी ऐसी धुनें हैं जिन्हें आज भी श्रोता बेमिसाल और कालजयी मानते हैं. आज की पीढ़ी इस बात को नहीं समझेगी लेकिन हेमन्त कुमार के गीत संगीत को सुनकर सचमुच ऐसा अहसास होता है कि हम ईश्वर से साक्षात्कार कर रहे हैं।

[ जयदेव]

जयदेव के संगीतबद्ध गीत हमेशा अपने गिरफ्त में ले लेते हैं । और गिरफ्त भी इतनी कोमल जिसके कर्ण स्पर्श से ही रोम -रोम आनंदित हो उठे तो कौन भला इनसे अलग होना चाहेगा ।जयदेव ने ऐसे गीतों की रचना की जो मेलोडी से
सराबोर होते हुए भी शास्त्रीय प्रधान रहे ।वे हमेशा अपनी संगीत विधा के प्रति ईमानदार रहे. वे जितने सादे थे उतनी ही जटिल उनकी संगीत रचना है मगर जटिल होते हुए भी उनकी धुनें बेहद सरस और मंत्रमुग्ध कर देने वाली है |
. हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला एलबम को मन्ना डे ने स्वर दे कर और जयदेव ने संगीत दे कर अमर कर दिया है ।

[एस.एन. त्रिपाठी]

एस.एन. त्रिपाठी का मेलोडी पर उनका ख़ास अधिकार था। हालाँकि उन्होंने अधिकांशत: धार्मिक और पौराणिक फिल्मों में काम किया जिससे वे एक तरह से बँध गए, मगर इन सीमाओं के बावजूद उन्होंने एक से एक मधुर गीत व भजन बनाए जो आज भी हमारे कानो में गुजते रहते ।

[चित्रगुप्त]

चित्रगुप्त  जैसे संगीतकार भी अपने दौर में सक्रिय थे और सक्रिय नहीं थे, बल्कि उन्होंने ऐसे गीतों की रचना की जो आज तक याद किए जाते हैं। चित्रगुप्त ने लता से कुछ बेहतरीन गाने गवाए। उनकी बदकिस्मती शायद ये रही कि उन्हें बड़े बैनर की फिल्में नहीं मिलीं जिससे उनकी वैसी चर्चा नहीं हुई जैसी कि होनी चाहिए थी।

[ग़ुलाम मुहम्मद]

ग़ुलाम मुहम्मद। 1954 मे आई मिर्ज़ा गा़लिब उनकी सबसे महत्वपूर्ण फिल्म थी। इस फिल्म से ही वे चोटी के संगीतकारों में गिने जाने लगे थे। रफ़ी, तलत और सुरैया की आवाज़ों में ग़ालिब की ग़ज़लों को सुनना एक अविस्मरणीय अनुभव है। गुलाम मुहम्मद ने परंपरा से हटकर ग़ालिब की ग़ज़लों को नए अंदाज़ में ढाला था।  ग़ज़लों को नया रूप देने का श्रेय उन्हें ही दिया जाएगा क्योंकि इस समय तक नौशाद और मदनमोहन की ग़ज़लों का सुनहरा दौर अभी शुरू भी नहीं हुआ था।


[शंकर-जयकिशन]

शंकर-जयकिशन की जोड़ी अपने दौर सबसे बहतरीन संगीत जोडी थी ।अपने प्रिय राग भैरवी के आधार पर इन्होंने इस कालखंड की कुछ सबसे मशहूर धुनें तैयार की जैसे-मेरा जूता है जापानी, रमैया वस्तावैया, आवारा हूँ और सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी। छठे दशक के वे सबसे सफल संगीतकार रहे और उनकी लगभग हर फिल्म संगीत के लिहाज़ से हिट साबित हुई। इस जोड़ी के संगीत से सजी फिल्मों की फेहरिस्त बहुत लंबी है, लेकिन श्री420, चोरी चोरी, बूट पॉलिश, वसंत बहार, यहूदी, संगम, मेरा नाम जोकर के नाम उल्लेखनीय हैं।

[ ओ.पी.नय्यर ]

ओपी नय्यर का संगीत सुनकर अच्छे-अच्छे लोग एक बार तो ठिठक जाते हैं। ऐसा ही कुछ उस्ताद अमीर ख़ां साहब के साथ हुआ। रेडिओ पर 1958 की फिल्म 'फागुन' का गाना 'मैं सोया अंखियाँ मींचे' सुनने का ख़ां साहब पर कुछ ऐसा असर हुआ कि वह नय्यर साहब से मिलने को बेचैन हो उठे। उन्होंने तत्काल नय्यर साहब को फोन किया, और मुलाक़ात का वक्त तय हुआ। छूटते ही उस्ताद ने राग पीलू में इतनी अच्छी रचना के लिये नय्यर साहब को बधाई दी। ओ पी नय्यर के मुंह से यह सुनकर ख़ां साहब हैरान रह गये कि नय्यर साहब ने शास्त्रीय संगीत की विधिवत शिक्षा एक दिन भी नहीं ली। उसके बाद ख़ां साहब ने ओ पी को बताया कि फिल्म फागुन के सभी गीत राग पीलू पर ही आधारित हैं, जबकि सुनने में सभी अलग लगते हैं। क्या ऐसी कहानी कभी सुनी गयी है? क्या कोई व्यक्ति बिना संगीत सीखे हुए एक ही राग के दस अलग-अलग प्रारूप तैयार कर सकता है? केवल और केवल ओ पी नय्यर ही ऐसा कर सकते थे।

[मदनमोहन]

मदनमोहन जिन्हें ग़ज़ल सम्राट का रुतबा हासिल हुआ, क्योंकि ग़ज़लों की कम्पोजीशन के मामले में उनका कोई सानी नहीं था। एक बार महान सगीतकार नौशाद ने उनकी दो रचनाओं को "है इसी में प्यार की आबरू" और "आपकी नज़रों ने समझा प्यार के काबिल मुझे" के बदले अपनी सारी कृतियाँ देने को तैयार थे। हालाँकि मदनमोहन की शुरूआत उस समय के प्रचलित संगीत के साथ ही हुई थी मगर धीरे-धीरे उन्होंने अपनी मंज़िल चुन ली और उसी ओर चल पड़े। ग़ज़ल के जिस परिचित रूप के लिए हम मदनमोहन को याद करते हैं वह पहली बार खूबसूरत के मुहब्बत में कशिश होगी तो एक दिन तुमको पा लेंगे में दिखा। राजेंद्र कृष्ण के साथ उनकी जोड़ी अच्छी जमी और लता मंगेशकर के साथ मिलकर तो उन्होंने ग़ज़ब ढा दिया। इस दौरान तो मदनमोहन के संगीत की कल्पना लता के संगीत के बिना की ही नहीं जा सकती थी। लता के मुताबिक मदनमोहन ने ग़ज़लों को प्रचलित शैलियों से निकालकर एक नया रूप दिया।

[रवि]

रवि के संगीत से सजी हिन्दी फिल्मों में 'अलबेली , चौदहवीं का चाँद, घराना,खानदान, दो बदन, हमराज, आँखें,और निकाह विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं .उन्होंने 'वक्त ',नीलकमल' और 'गुमराह' जैसी लोकप्रिय हिन्दी फिल्मों में अपना यादगार संगीत दिया।
रवि के सगीत की एक खुबी थी । कि जिस दौर में शंकर जयकिशन ने 100 पीस आर्केस्ट्रा का फैशन चला दिया था, उस समय भी रवि के संगीत में कभी भी आर्केस्ट्रा की भीड नही मिली । उन्होंने एक समय में 30-35 साज़िंदों के साथ गाना रिकाॅर्ड किया । उनके पसंदीदा साज थे फ्लुट,सितार , और शहनाई थे।

[सलिल चौधरी]

 सलिल चौधरी तो हिंदी फिल्मों के अकेले बुद्धिजीवी संगीतकार कहे जा सकते हैं। वे एक ऐसे संगीतकार थे जो न केवल साम्यवादी थे बल्कि उन्होंने संगीत को साम्यवाद का संदेश देने का एक माध्यम भी बनाया। वे एक विलक्षण कंपोजर ही नहीं थे बल्कि कवि, गीतकार और संगीत समीक्षक भी थे। उनकी रचनाओं में संगीत अपनी संपूर्णता में धड़कता था। वे कभी “पाश्चात्य सिम्फनी के तत्वों, तो कभी भारतीय रिद्म, तो कभी दोनों के सम्मिश्रण से एक तरंग पैदा करते थे, जो उनकी लाक्षणिक विशेषता होती थी।

[आर. डी. बर्मन]

 संगीत परिदृश्य पर नए जैज़ की तुलना में रॉक रिद्मों का प्रभाव कहीं व्यापक हो गया। इलेक्ट्रानिक वाद्य यंत्रों का इस्तेमाल भी बढ़ गया। आर डी बर्मन इस आधुनिक संगीत लहर के प्रतिनिधि संगीतकार बने और उनके संगीत में ध्वनि और भावना के नए उपमानों ने बदलती मानसिकता वाले युवावर्ग को सम्मोहित करके रख दिया।

भारतीय फिल्म संगीत को 83 वर्ष हो चुके हैं और ज़ाहिर है कि ये बहुत लंबी यात्रा रही है। ये लंबी यात्रा स्रजनात्मक घटनाओं से परिपूर्ण रही है। धुनों की यात्रा इनका रुखा-सूखा ब्यौरा ही नहीं देती, बल्कि ऐसे प्रसंगों को भी समेटती चलती है जो उस रचनाकाल और रचनाकारों की मानसिक बनावट तथा उनकी स्त्रजनात्मकता को बयान भी करते हैं। ये भारतीय फिल्म संगीत और संगीतकारों के योगदान को श्रद्धांजलि है।





                                         युधिष्टर पारीक
                                             नोहर
                                       

सोमवार, 4 अगस्त 2014


18 जुलाई, जन्मदिवस पर विशेष

            शहंशाह-ए-ग़ज़ल...मेहदी हसन

ग़ज़ल के दीवाने दर्द और शोर के बीच मेहदी हसन की आवाज़ की दुनिया का सुकून हासिल करते रहे । मज़हब, मुल्क,सरहदों और सियासत से परे ये एक ऐसी दुनिया थी, जिसके दरवाजे सभी के लिए खुले थे। कई पीढ़ियां ख़़ालिस और पाकीज़ा अदायगी की चाहत में मेहदी हसन की जानिब खिंची चली आती रहीं। लता जी ने कहां था, उनकी आवाज़ में भगवान का वास है ।नूरजहां ने कहा कि क़दम ठिठक गए जब सुना- ये धुआं कहां से उठता है। वो हर पीढ़ी के आराध्य रहे।
मेहदी हसन 18 जुलाई 1927 में झंुझनूं के लूणा गांव में पैदा हुऐ थे। उन्हें इस सरज़मीं से बहुत प्यार था और बार बार वे वहां आते रहे । मरुभूमि में बहुधा बहुत  चटख रंग के फूल  खिलते हैं।  मेहंदी साहब की गायकी भी  ऐसी  ही  थी।  जब वह  बात  करते थे  तो  एक  शाइस्ता  राजस्थानी  आदमी  का  बोल –चाल  का  लहज़ा  दिखता  था।  पाकिस्तान में  बसने  के  छह  दशक  बाद  भी  पंजाबी  के  वर्चस्व  ने   उनके  व्यक्तित्व  के  किसी  भी  हिस्से  को  प्रभावित नहीं  किया  था।  न  तलफ्फुज  को,  न  लहजे  को  और  न  वेश-भूषा  को  ही। रहते  भी  वह  कराची  में  थे,  जहाँ आम-तौर  पर  मुहाजिर  रहते  आये  हैं।  ध्रुपदिये  पुरखों  के  साथ-साथ  मरुभूमि  के  विराट  विस्तार  में फैलता   ‘पधारो  म्हारे  देस’ में  मांड   का  दुर्निवार  स्वर  उन्हें  बार-बार  अपनी  जन्मभूमि  की  और  खींचता था।  क्लासकल  के  साथ-साथ  लोक  की  राग-रागिनियाँ  भी  उनकी  गायकी  के  अहसास  में  शामिल  रहीं। उनके दादा इमाम खान बड़े कलाकार थे जो उस वक्त मंडावा व लखनऊ के राज दरबार में गंधार, ध्रुपद गाते थे। मेहंदी हसन के पिता अजीम खान व चाचा ध्रपद गायक थे । कलावंत घराने की सोलहवीं पीढ़ी के मेहदी हसन की तमन्ना ख़त्म होती ग़ज़ल की रवायत को आम आदमी तक पहुंचाने और दोबारा ज़िंदा करने की थी । वो चाहते तो ध्रपद गायकी की अपनी ख़ानदानी परंपरा से ख़ुश और संतुष्ट रह सकते थे। लेकिन शायरी से मुहब्बत और ग़ज़ल को नई ज़िंदगी बख़्शने की चाहत उन्हें ग़ज़ल की दुनिया में ले आई। 1952 में कराची रेडियो के प्रोड्यूसर सलीम गिलानी ने सबसे पहले मौक़ा दिया। सबसे पहले सीमाब अकबराबादी की ग़ज़ल 'आया मेरी महफ़ील में ग़ारतगर होश आया' कंपोज की गिलानी ने संगीत की दुनिया की चालबाज़ियों और बदमाशियों के बीच एक सूफ़ी मलंग फ़क़ीराना मिज़ाज के मेहदी को एक नई दिशा दी । शुरू से ही उन्होंने कुछ बातों का ख़ास ख़्याल रखा । मेहदी साहब ने हमेशा उम्दा अशआर चुने। ये ज़रूरी नहीं था कि वे नाचीन शायरो को ही गाएं। अपने इंटरव्यूज़ में बार बार कहते रहे कि दुनिया की सबसे बड़ी सच्चाई हैं सुर। वे ग़ज़लों को राग में इसलिए बांधते हैं, ताकि लंबे समय तक वे सुनने वालो की पंसद बनी रहें।
 जगजीत सिंह जी ने अपने एक इंटरव्यूज में कहा था- "नई पीढ़ी के ग़ज़ल गायकों को अगर लम्बी रेस का घोड़ा बनना है तो उन्हें अपना शास्त्रीय आधार पुख्ता करना होगा और यह बात उन्होंने मेहदी हसन साहब से सीखी है, वो शिखर,  जो सदियों तक नई पीढ़ीयों को रास्ता और रोशनी दिखाएगा। चाहे बहादुर शाह जफर की ग़ज़ल- लेकिन सलीम कौसर की एक गज़ल ‘मैं ख्याल हूँ किसी और का मुझे सोचता कोई और है/ सरे आइना मेरा अक्स है पसे आइना कोई और है’ को मेहदी हसन ने भैरवी ठाठ में गाया है। जब मेहदी साहब इसे अदा करते हैं तो बेहद सीधी-सादी दिखने वाली गज़ल इंसान के ऐतिहासिक संघर्षों का बयान बन जाती है। मानवीय संघर्षों के बावजूद हकीकतें ‘मेरा जुर्म तो कोई और था, ये मेरी सज़ा कोई और है’ की हैं। मेहदी साहब ने इस गज़ल को अदा करने के लिये उदास भाव वाला भैरवी ठाठ चुना जो कि पूरी गज़ल की अदायगी में साफ़ है।1953 में सबसे पहले पाकिस्तानी फिल्म शिकार के लिए 'मेरे ख़्याल-ओ-ख़्वाब की दुनिया लिए हुए' पहला गाना गाया । उसके बाद तो वे सरहद पार के फिल्मों की एक जरुरी आवाज़ बन गए । फिल्मी गायन उनके करियर का पेशेवर पहलू था और यह सफर नव्वे के दशक तक चला ।
नई आवाजों के लिये आज भी मेहदी हसन ग़ज़ल का विद्यापीठ बने रहेंगे. पाकिस्तान में उनके चाहने वालों की कमी नहीं लेकिन बिला शक हिन्दुस्तान के संगीतप्रेमी उनकी महफिलों के लिये बेसब्र रहे. यह उनकी गायकी का जादू ही है कि सुकंठी लता मंगेशकर तन्हाई में सिर्फ़ मेहदी हसन को सुनना पसंद करती हैं. इसे भी तो एक महान कलाकार का दूसरे के लिये आदरभाव ही माना जाना चाहिये. हम सब की जिन्दगी यथावत चलती रहेगी लेकिन पाकिस्तान के निजाम ने भले ही उन्हें कितने ही तमगों से नवाज़ा हो, उन्होंने व्यवस्था-विरोधी शायरों को गाना कभी बन्‍द नहीं किया। सामंती-फ़ौजी-धार्मिक- पूँजीवादी हुकूमतें जिन जज्बातों को प्रतिबंधित करना अपना फ़र्ज़ समझती हैं, मेहदी उन्हीं जज्बातों के अनोखे अदाकार थे। उनकी सुरीली ज़िंदगी इस बात की गवाह है की नागरिकता (जो की किसी राष्ट्र की होती है) सभ्यता की स्थानापन्न नहीं होती। मेहंदी साहेब को सुनने वालों की ज़िंदगी में वह शामिल थे। वे सुनने वाले तमाम लोग राग-रागिनियों की बारीकियाँ भले न जानते हों, लेकिन हर सुनने वाले के पास मेहंदी साहेब के सुरों के संस्मरण हैं। मेहंदी साहेब की गायकी उनके दुखों, उनकी खुशी, उनके संघर्षों में साथ निभाती है, सिर्फ मनोरंजन नहीं करती, ज़िंदगी की तमीज विकसित करने में सहयोग करती है। कोई भी कला इससे ज़्यादा और क्या कर सकती है? समय बेरुखी से संगीत को बेसुरा बनाने पर आमादा है लेकिन जब कभी इंसान की रूह को सुरीलेपन की तलाश होगी, मेहदी हसन की आवाज ही उसे आसरा देगी । मुझे इस बात का सदा ये अफसोस रहेगा की मैन उनसे कभी मिल नही पाया।

आज उन्‍हीं की लगावट का एक शेर याद आता है,
 ‘कुछ उसके दिल में लगावट जरूर थी वरना,
  वो मेरा हाथ दबाकर गुज़र गया कैसे।‘



                                                   युधिष्टर पारीक
                                                       नोहर

शनिवार, 26 जुलाई 2014


इस से पहले कि बेवफ़ा हो जाएँ

इस से पहले कि बेवफ़ा हो जाएँ
क्यूँ न ए दोस्त हम जुदा हो जाएँ

तू भी हीरे से बन गया पत्थर
हम भी कल जाने क्या से क्या हो जाएँ

हम भी मजबूरियों का उज़्र करें
फिर कहीं और मुब्तिला हो जाएँ

अब के गर तू मिले तो हम तुझसे
ऐसे लिपटें तेरी क़बा हो जाएँ

बंदगी हमने छोड़ दी फ़राज़
क्या करें लोग जब ख़ुदा हो जाएँ