सफल होगी तेरी अराधना....सचिन देव बर्मन
सचिन देव बर्मन, जिन्हें बर्मन दा के नाम से ज्यादा याद किया जाता है, शुरुआती दौर के रिकार्डस पर नाम दर्ज है- कुमार सचिन देव बर्मन। त्रिपुरा में 1अक्टूबर 1906 को त्रिपुरा के राजघराने में सचिन दा जन्म हुआ था। उनकी जन्मस्थली कोमिला ( अगरतला) जो अब बांग्लादेश में चली गई है। के राजा ईशानचन्द्र देव बर्मन के पोते और नवद्वीप चंद्र देव बर्मन के बेटे थे। इस नाते वे इस राजघराने के कुमार थे। पिता को राज- काज से ज्यादा संगीत से इश्क़ था। वे ध्रपद शैली के गायक थे और चार बहनों में सबसे छोटे सचिन ने पिता की राह पकड़ी।
कलकत्ता में बर्मन दादा ने प्रसिद्ध गायक केसीडे, भीष्मदेव चट्टोपाध्याय, उस्ताद अल्लाउद्दीन खान साहब, उस्ताद आफताबउद्दीन ,उस्ताद बादल खान की शागिर्दी की और उनसे संगीत की शिक्षा ली। फिर उस्ताद आफताबउद्दीन से गंड़ा बँधवाया । दादा की महत्वकांक्षा उस दौर के तमाम बड़े संगीतकार की तरह न्यू थियेटर्स का संगीतकार बनने की थी लेकिन वहां तो पहले ही आरसी बोराल और पंकज मलिक मौजूद थे।
पंकज मलिक ने 1933 में सचिन देव बर्मन को पहली बार मौक़ा दिया। फिल्म थी 'यहूदी की लड़की' कुन्दनलाल सहगल और रतनबाई की मुख्य भुमिकाओ वाली इस फिल्म में उन्हें एक भूमिका भी करनी थी लेकिन गीत रिकाॅर्ड होने के बाद कट कर दिया गया । इनकी जगह पहाड़ी सान्याल को भुमिका मिली और सचिन देव बर्मन वाले गीत भी उनकी आवाज़ में किये गये।
सचिन देव बर्मन 1937 में पहली बार वे बंगाल फिल्मों के संगीतकार बन गये । 1941 में मोहन पिक्चर, बम्बई की फिल्म 'ताजमहल' के लिये पहला हिन्दी गीत प्रेम की प्यारी निशानी जाग रही, गाया। इस फिल्म के संगीतकार थे माधुलाल डी मास्टर। 1944 में जब बंबई में बांबे टाकीज से अलग होकर शशधर मुखर्जी के नेतृत्व में फ़िल्मिस्तान नाम की नई कम्पनी बनी तो मुखर्जी ने सचिन देव बर्मन को बंबई आने का न्योता दिया । सचिन देव बर्मन की बतौर संगीतकार पहली फिल्म थी, 'शिकारी' और दुसरी फिल्म थी, 'अाठ दिन' 1946 में इन दो फिल्मों के बाद 1947 में रिलीज़ फिल्म - दो भाई के दो गीत 'मेरा सुन्दर सपना बीत गया' और दुसरा गाना 'याद करोगे, इक दिन हमको' । ने गीता राय जो बाद में गीता दत के नाम से विख्यात हुई, बेमिसाल प्रसिध्दि मिली।
1949 की फिल्म 'शबनम' जिसमें दिलीप कुमार के साथ नायिका कामिनी कौशल। इस फिल्म में एक बहुभाषी गीत था, जिसे शमशाद बेगम ने गाया था। गीत के बोल थे ' ये दुनिया रुप की चोर , बचा ले बाबू' ये गीत बहुत हिट हुआ। इसके बाद 1951 में आई बाजी - तदबीर से बिगड़ी हुई तक़दीर बना ले, 'सुनो ग़जर क्या गाए', आज कि रात पिया दिल न तोड़ो, मन की बात पिया मान लो'। इसी साल रिलीज़ हुई दादा की छ: फ़िल्मों में सबसे ज्यादा हिट गीतों वाली 'सज़ा'- तुम न जाने किस जहां में खो गए/ हम भरी दुनीया में तन्हा हो गए'- आ गुप -चुप,- गुप- चिप प्यार करें' और मस्ती भरा गीत ' धक-धक-धक, जिया करें धक/ अंखियों में अंखियां डाल के न तक'।
दादा के संगीत में हरदम जवाँ रंग का एक कारण आर. डी. बर्मन जैसे योगे और प्रतिभावान बेटे का साथ होना भी था, जो उनके बतौर असिस्टेंट काम रहे थे। लेकिन दादा अपने संगीत को लेकर अपने सारे फ़ैसले ख़ुद ही लेते थे। 1967 की फिल्म 'ज्वेल थीप का 'रात अकेली है'वाला गीत ही ले लें, इतना रंगीन और जवान गीत है कि इसकी कल्पना करना थोड़ कठीन है कि धोती - कुर्ता पहनने वाला 61 के बूढ़ा आदमी ने इस गाने को रचा होगा।
दादा के चरित्र जहां एक तरफ बला की सादगी और संगीत के लिए समर्पण का भाव था, वही उनमें एक बाल सुलभ सहजता और चंचलता का भी मिश्रण था। एक तरह राजसी नफ़ासत और ठसक थी तो वहीं दूसरी तरफ भावनाओं की कोमलता भी थी।
जीवन के अन्तिम समय में बर्मन दा ने ऋषिकेश मुखर्जी कि फिल्म अभिमान, चुपके, चुपके और मिली उनके आखिरी दौर की फिल्में थीं। बर्मन दा 69 वर्ष की अवस्था में 31 अक्तूबर 1975 को अन्तिम सांस ली। हिन्दी सिनेमा जगत
में आज भी बर्मन दा योगदान को याद करता है।
युधिष्ठिर राज पारीक
सचिन देव बर्मन, जिन्हें बर्मन दा के नाम से ज्यादा याद किया जाता है, शुरुआती दौर के रिकार्डस पर नाम दर्ज है- कुमार सचिन देव बर्मन। त्रिपुरा में 1अक्टूबर 1906 को त्रिपुरा के राजघराने में सचिन दा जन्म हुआ था। उनकी जन्मस्थली कोमिला ( अगरतला) जो अब बांग्लादेश में चली गई है। के राजा ईशानचन्द्र देव बर्मन के पोते और नवद्वीप चंद्र देव बर्मन के बेटे थे। इस नाते वे इस राजघराने के कुमार थे। पिता को राज- काज से ज्यादा संगीत से इश्क़ था। वे ध्रपद शैली के गायक थे और चार बहनों में सबसे छोटे सचिन ने पिता की राह पकड़ी।
कलकत्ता में बर्मन दादा ने प्रसिद्ध गायक केसीडे, भीष्मदेव चट्टोपाध्याय, उस्ताद अल्लाउद्दीन खान साहब, उस्ताद आफताबउद्दीन ,उस्ताद बादल खान की शागिर्दी की और उनसे संगीत की शिक्षा ली। फिर उस्ताद आफताबउद्दीन से गंड़ा बँधवाया । दादा की महत्वकांक्षा उस दौर के तमाम बड़े संगीतकार की तरह न्यू थियेटर्स का संगीतकार बनने की थी लेकिन वहां तो पहले ही आरसी बोराल और पंकज मलिक मौजूद थे।
पंकज मलिक ने 1933 में सचिन देव बर्मन को पहली बार मौक़ा दिया। फिल्म थी 'यहूदी की लड़की' कुन्दनलाल सहगल और रतनबाई की मुख्य भुमिकाओ वाली इस फिल्म में उन्हें एक भूमिका भी करनी थी लेकिन गीत रिकाॅर्ड होने के बाद कट कर दिया गया । इनकी जगह पहाड़ी सान्याल को भुमिका मिली और सचिन देव बर्मन वाले गीत भी उनकी आवाज़ में किये गये।
सचिन देव बर्मन 1937 में पहली बार वे बंगाल फिल्मों के संगीतकार बन गये । 1941 में मोहन पिक्चर, बम्बई की फिल्म 'ताजमहल' के लिये पहला हिन्दी गीत प्रेम की प्यारी निशानी जाग रही, गाया। इस फिल्म के संगीतकार थे माधुलाल डी मास्टर। 1944 में जब बंबई में बांबे टाकीज से अलग होकर शशधर मुखर्जी के नेतृत्व में फ़िल्मिस्तान नाम की नई कम्पनी बनी तो मुखर्जी ने सचिन देव बर्मन को बंबई आने का न्योता दिया । सचिन देव बर्मन की बतौर संगीतकार पहली फिल्म थी, 'शिकारी' और दुसरी फिल्म थी, 'अाठ दिन' 1946 में इन दो फिल्मों के बाद 1947 में रिलीज़ फिल्म - दो भाई के दो गीत 'मेरा सुन्दर सपना बीत गया' और दुसरा गाना 'याद करोगे, इक दिन हमको' । ने गीता राय जो बाद में गीता दत के नाम से विख्यात हुई, बेमिसाल प्रसिध्दि मिली।
1949 की फिल्म 'शबनम' जिसमें दिलीप कुमार के साथ नायिका कामिनी कौशल। इस फिल्म में एक बहुभाषी गीत था, जिसे शमशाद बेगम ने गाया था। गीत के बोल थे ' ये दुनिया रुप की चोर , बचा ले बाबू' ये गीत बहुत हिट हुआ। इसके बाद 1951 में आई बाजी - तदबीर से बिगड़ी हुई तक़दीर बना ले, 'सुनो ग़जर क्या गाए', आज कि रात पिया दिल न तोड़ो, मन की बात पिया मान लो'। इसी साल रिलीज़ हुई दादा की छ: फ़िल्मों में सबसे ज्यादा हिट गीतों वाली 'सज़ा'- तुम न जाने किस जहां में खो गए/ हम भरी दुनीया में तन्हा हो गए'- आ गुप -चुप,- गुप- चिप प्यार करें' और मस्ती भरा गीत ' धक-धक-धक, जिया करें धक/ अंखियों में अंखियां डाल के न तक'।
दादा के संगीत में हरदम जवाँ रंग का एक कारण आर. डी. बर्मन जैसे योगे और प्रतिभावान बेटे का साथ होना भी था, जो उनके बतौर असिस्टेंट काम रहे थे। लेकिन दादा अपने संगीत को लेकर अपने सारे फ़ैसले ख़ुद ही लेते थे। 1967 की फिल्म 'ज्वेल थीप का 'रात अकेली है'वाला गीत ही ले लें, इतना रंगीन और जवान गीत है कि इसकी कल्पना करना थोड़ कठीन है कि धोती - कुर्ता पहनने वाला 61 के बूढ़ा आदमी ने इस गाने को रचा होगा।
दादा के चरित्र जहां एक तरफ बला की सादगी और संगीत के लिए समर्पण का भाव था, वही उनमें एक बाल सुलभ सहजता और चंचलता का भी मिश्रण था। एक तरह राजसी नफ़ासत और ठसक थी तो वहीं दूसरी तरफ भावनाओं की कोमलता भी थी।
जीवन के अन्तिम समय में बर्मन दा ने ऋषिकेश मुखर्जी कि फिल्म अभिमान, चुपके, चुपके और मिली उनके आखिरी दौर की फिल्में थीं। बर्मन दा 69 वर्ष की अवस्था में 31 अक्तूबर 1975 को अन्तिम सांस ली। हिन्दी सिनेमा जगत
में आज भी बर्मन दा योगदान को याद करता है।
युधिष्ठिर राज पारीक
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें