शनिवार, 21 मार्च 2015

मेरे पसंदीदा शायर बशीर बद्र


1-
हँसी मासूम सी बच्चों की कापी में इबारत सी
हिरन की पीठ पर बैठे परिन्दे की शरारत सी

वो जैसे सर्दियों में गर्म कपड़े दे फ़क़ीरों को
लबों पे मुस्कुराहट थी मगर कैसी हिक़ारत सी

उदासी पतझड़ों की शाम ओढ़े रास्ता तकती
पहाड़ी पर हज़ारों साल की कोई इमारत सी

सजाये बाज़ुओं पर बाज़ वो मैदाँ में तन्हा था
चमकती थी ये बस्ती धूप में ताराज ओ ग़ारत सी

मेरी आँखों, मेरे होंटों से कैसी तमाज़त है
कबूतर के परों की रेशमी उजली हरारत सी

खिला दे फूल मेरे बाग़ में पैग़म्बरों जैसा
रक़म हो जिस की पेशानी पे इक आयत बशारत सी

2-
कोई फूल धूप की पत्तियों में हरे रिबन से बंधा हुआ ।
वो ग़ज़ल का लहजा नया-नया, न कहा हुआ न सुना हुआ ।

 जिसे ले गई अभी हवा, वो वरक़ था दिल की किताब का,
कहीँ आँसुओं से मिटा हुआ, कहीं, आँसुओं से लिखा हुआ ।

 कई मील रेत को काटकर, कोई मौज फूल खिला गई,
कोई पेड़ प्यास से मर रहा है, नदी के पास खड़ा हुआ ।

 मुझे हादिसों ने सजा-सजा के बहुत हसीन बना दिया,
मिरा दिल भी जैसे दुल्हन का हाथ हो मेंहदियों से रचा हुआ।

वही शहर है वही रास्ते, वही घर है और वही लान भी,
मगर इस दरीचे से पूछना, वो दरख़्त अनार का क्या हुआ ।

 वही ख़त के जिसपे जगह-जगह, दो महकते होटों के चाँद थे,
किसी भूले बिसरे से ताक़ पर तहे-गर्द होगा दबा हुआ।

 3-
कहीं चाँद राहों में खो गया कहीं चाँदनी भी भटक गई
मैं चराग़ वो भी बुझा हुआ मेरी रात कैसे चमक गई

मेरी दास्ताँ का उरूज था तेरी नर्म पलकों की छाँव में
मेरे साथ था तुझे जागना तेरी आँख कैसे झपक गई

कभी हम मिले तो भी क्या मिले वही दूरियाँ वही फ़ासले
न कभी हमारे क़दम बढ़े न कभी तुम्हारी झिझक गई

तुझे भूल जाने की कोशिशें कभी क़ामयाब न हो सकीं
तेरी याद शाख़-ए-गुलाब है जो हवा चली तो लचक गई

4-
चाय की प्याली में नीली टेबलेट घोली
सहमे सहमे हाथों ने इक किताब फिर खोली

दाएरे  अंधेरों  के  रोशनी  के  पोरों ने
कोट के बटन खोले टाई की गिरह खोली

शीशे की सुलाई में काले भूत का चढ़ना
बाम काठ का घोड़ा नीम काँच की गोली

बर्फ़ में दवा मक्खन मौत रेल और रिक्शा
ज़िन्दगी खुशी रिक्शा रेल मोटर डोली..

इक किताब चाँद और पेड़ सब के काले कालर पर
ज़ेहन  टेप की गर्दिश मुँह  में  तोतो की बोली

वो नही मिली हम को हुक बटन सरकती जीन
जिप के दाँत खुलते ही आँख में गिरी चोली

5-
याद अब ख़ुद को आ रहे हैं हम..
कुछँ दिनों तक रहे हैं हम

आज तो अपनी ख़ामोशी में भी
तेरी आवाज़ पा रहे हम...

बात क्या है, कि फिर ज़माने को
याद रह-रह के आ रहे है हम..

कोई शोला है ,कोई जलती आग
जल रहे है, जला रहे है हम

टेढ़ी तहज़ीब, टेढ़ी फ्रिक-ओ-नजर..
टेढ़ी ग़ज़ल, सुना रहे हैं हम

6-
दुल्हन बनी हैं, रात बड़े एहतमाम से ...
आंसू सजा रही हैं सितारों के नाम से ...

सब लोग अपने अपने घरो को चले गए ...
नींद आ गई हैं,आज चरागों को शाम से ...

उनसे जरूर मिलना सालिके के लोग हैं ....
सर भी कलम करेंगे बड़े एहतराम से ....

कितना बदल गया हूँ, मैं दुनिया के बास्ते ....
आवाज़ दे रहे  हैं  मुझे तेरे नाम से ........

7-
गज़लों का हुनर अपनी आँखों को सिखायेंगे,
रोयेंगे बहुत, लेकिन आँसू नहीं आयेंगे..

कह देना समन्दर से, हम ओस के मोती हैं,
दरिया की तरह तुझ से मिलने नहीं आयेंगे...

वो धूप के छप्पर हों या छाँव की दीवारें,
अब जो भी उठायेंगे, मिलजुल के उठायेंगे...

जब कोई साथ न दे, आवाज़ हमें देना,
हम फूल सही लेकिन पत्थर भी उठायेंगे...

8-

बेवफा रास्ते बदलते है
हमसफ़र साथ चलते है

किसके आसू छिपे है फूलो में
चूमता हू तो होठ जलते है

उसकी आँखों को गौर से देखो
मंदिरों में चराग जलते है

दिल में रहकर नजर नहीं आते
ऐसे कांटे कहा निकलते है

एक दीवार वो भी शीशे की
दो बदन पास-पास जलते है

कांच के मोतियों के आसू के
सब खिलोने गजल में ढलते है
                       

9-
अब किसे चाहे किसे ढूंढा करे
वो भी आखिर मिल गया अब क्या करे

हलकी-हलकी बरिशे होती रहे
हम भी फूलो की तरह भीगा करे

आँख मुंद इस गुलाबी धुप में
देर तक बैठे सोचा करे

दिल, मुहब्बत, दीन, दुनिया, शायरी
हर दरीचे से तुझे देखा करे

घर नया, बर्तन नए, कपडे नए
इन पुराने कागजो का क्या करे
                               
10-
सारे राह कुछ भी कहा नहीं, कभी उसके घर में गया नहीं
मै जनम जनम से उसी का हू, उसे आज तक ये पता नहीं

उसे पाक नजरो से चूमना भी इबादतों में शुमार है
कोई फुल लाख करीब हो कभी मैंने उसको छुआ नहीं

ये खुदा कि देन अजीब है कि इसी का नाम नसीब है
जिसे तुने चाहा वो मिल गया, जिसे मैंने चाहा मिला नहीं

इसी शहर में कई साल से मेरे कुछ करीबी अजीज है
उन्हें मेरी कोई खबर नहीं मुझे उनका कोई पता नहीं
                                               
11-
शाम से रास्ता तकता होगा
चाँद खिड़की में अकेला होगा

धुप की शाख पे तन्हा-तन्हा
वो मोहब्बत का परिंदा होगा

नींद में डूबी महकती साँसे
ख्वाब में फुल सा चेहरा होगा

मुस्कुराता हुआ झिलमिल आसू
तेरी रहमत का फ़रिश्ता होगा
                                 
12-
आसुओ से धुली ख़ुशी की तरह
रिश्ते होते है शायरी की तरह

जब कभी बादलो में घिरता है
चाँद लगता है आदमी की तरह

सब नजर का फरेब है वरना
कोई होता नहीं किसी की तरह

खुबसूरत, उदास, खौफजदा
वो भी है बीसवी सदी की तरह

जानता हू की एक दिन मुझको
वक़्त बदलेगा डायरी की तरह
                           
13-
सुनो पानी में ये किसकी सदा है
कोई दरिया की तह में रो रहा है

सवेरे मेरी इन आँखों ने देखा
खुदा चारो तरफ बिखरा हुआ है

पक्के गेहू की खुशबु चीखती है
बदन अपना सुनहरा हो चला है

हकीकत सुर्ख मछली जानती है
समुन्दर कैसा बुढा देवता है

हमारी साख का नौ खेज पत्ता
हवा के होठ अक्सर चूमता है

मुझे उन नीली आँखों ने बताया
तुम्हारा नाम पानी पर लिखा है

14-
दर्द की बस्तिया बसाके रखो
रहमतो को सजा-सजा के रखो

कागजो के घरो से दूर ज़रा
दिल की चिंगारिया दबा के रखो

आग के झिलमिलाते फूलो से
दिल का मौसम सजा-बना के रखो

आखिरी वक़्त मुस्कुराना है
यह हुनर है, बचा के रखो

15-
राख हुई आँखों की शम्एं, आँसू भी बेनूर हुए,
धीरे धीरे मेरा दिल पत्थर सा होता जाता है।

अपने दिल है एक परिन्दा जिसके बाजू टूटे हैं,
हसरत से बादल को देखे बादल उड़ता जाता है।

सारी रात बरसने वाली बारीश का मैं आँचल हूँ,
दिन में काँटों पर फैलाकर मुझे सुखाया जाता है।

हमने तो बाजार में दुनिया बेची और खरीदी है,
हमको क्या मालूम किसी को कैसे चाहा जाता है।

16-
साथ चलते आ रहे हैं पास आ सकते नहीं
इक नदी के दो किनारों को मिला सकते नहीं

देने वाले ने दिया सब कुछ अजब अंदाज से
सामने दुनिया पड़ी है और उठा सकते नहीं

इस की भी मजबूरियाँ हैं, मेरी भी मजबूरियाँ हैं
रोज मिलते हैं मगर घर में बता सकते नहीं

आदमी क्या है गुजरते वक्त की तसवीर है
जाने वाले को सदा देकर बुला सकते नहीं

किस ने किस का नाम ईंट पे लिखा है खून से
इश्तिहारों से ये दीवारें छुपा सकते नहीं

उस की यादों से महकने लगता है सारा बदन
प्यार की खुशबू को सीने में छुपा सकते नहीं

राज जब सीने से बाहर हो गया अपना कहाँ
रेत पे बिखरे हुए आँसू उठा सकते नहीं

शहर में रहते हुए हमको जमाना हो गया
कौन रहता है कहाँ कुछ भी बता सकते नहीं

पत्थरों के बर्तनों में आँसू को क्या रखें
फूल को लफ्जों के गमलों में खिला सकते नहीं

17-

शोलए गुल, गुलाबे शोला क्या
आग और फूल का ये रिश्ता क्या

तुम मिरी ज़िन्दगी हो ये सच है
ज़िन्दगी का मगर भरोसा क्या

कितनी सदियों की क़िस्मतों का अमीं
कोई समझे बिसाते लम्हा क्या

जो न आदाब-ए-दुश्मनी जाने
दोस्ती का उसे सलीक़ा क्या

जब कमर बाँध ली सफ़र के लिये
धूप क्या, मेघ क्या है साया क्या

जिन को दुनिया ग़ज़ल समझती है
पूछते हैं वो शे’र-ओ-मिसरा क्या

काम की पूछते हो गर साहब
आशिक़ी के अलावा पेशा क्या

बात मतलब की सब समझते हैं
साहिबे-नश्शा, ग़र्क़े बादा क्या

दिल दुखों को सभी सताते हैं
शे’र क्या, गीत क्या, फ़साना क्या

सब हैं किरदार इक कहानी के
वरना शैतान क्या, फ़रिश्ता क्या

जान कर हम बशीर ’बद्र’ हुये
इसमें तक़दीर का नविश्ता क्या

18-
 ये ग़ज़ल बशीर साहब ने अपनी बेटी सबा बद्र की विदाई पे कही थी।
बेटी जब ससुराल चली जाती है, तो एक पिता के दिल की कैफ़ियत देखिये जो ख़ुद को कुछ यूँ समझाता है।

वो अपने घर चला गया अफ़सोस मत करो,
इतना ही उसका साथ था अफ़सोस मत करो….

ये देखो फिर से आ गयीं फूलों पे तितलियाँ
इक रोज़ वो भी आएगा अफ़सोस मत करो…

वो तुम से आज दूर हैं कल पास आएगा
फिर से खुदा मिलेगा अफ़सोस मत करो…..

बेकार पे बोझ लिए फिर रहे हो तुम
दिल है तुहारा फूल सा अफ़सोस मत करो….

इन्सान अपने आप में मजबूर हैं बहुत,
कोई नहीं हैं बेवफा अफ़सोस मत  करो…..

दुनिया में और चाहने वाले भी हैं बहुत
जो होना था सो हो गया अफ़सोस मत करो….

इस ज़िन्दगी के मुझपे कई क़र्ज़ हैं मगर
में जल्द लौट आऊंगा अफ़सोस मत करो…

इस बार तुमको आने में कुछ देर हो गयी
थक हार के वो सो गया अफ़सोस मत करो…..


19-
मैं ज़मीं ता आसमाँ, वो कैद आतिशदान में
धूप रिश्ता बन गई, सूरज में और इन्सान में

मैं बहुत दिन तक सुनहरी धूप खा आँगन रहा
एक दिन फिर यूँ हुआ शाम आ गई दालान में

किस के अन्दर क्या छुपा है कुछ पता चलता नही
तैल की दौलत मिली वीरान रेगिस्तान में

शक़्ल, सूरत, नाम, पहनावा, ज़बाँ अपनी जगह
फ़र्क़ वरना कुछ नहीं इन्सान और इन्सान में

इन नई नस्लों ने सूरज आज तक देखा नहीं
रात हिन्दुस्तान में है, रात पाकिस्तान में

20-
रात लहरा के चली है उसे आँचल कर दो
तुम मुझे रात का जलता हुआ जंगल कर दो

चाँद सा मिसरा अकेला है मेरे काग़ज़ पर
छत्त पे आ जाओ मेरा शेर मुकम्मल कर दो

अपने आँगन की उदासी से ज़रा बात करो
नीम के सूखे हुऐ पेड़ को संदल कर दो

मैं तुम्हे दिल की सियासत का हुनर देता हूँ
अब उसे धुप बना दो मुझे बादल कर दो

तुम मुझे छोड़ के जाओगे तो मर जाऊँगा
यूं करो जाने से पहले मुझे पागल कर दो

21-
दोस्तों बशीर साहब के बहुत ही कम सुनाई देने वाले कुछ चन्द शे'र ...

ये चराग बेनजर है ,ये सितारा बेज्बा है..
अभी तुमसे मिलाता जुलता कोई दूसरा कंहा है...

उन्ही रास्तो ने जिन पर कभी तुम थे साथ मेरे..
मुझे रोक-रोक पूछा तेरा हमसफ़र कहा है..ं.

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22-
फुल सी बच्ची ने मेरे हाथ से छीना गिलास..
आज अम्मी की तरहा वो पुरी औरत सी लगी...

आखरी बेटी की शादी कर के सोई रात भर..
सुबहा बच्चों की तरहा वो ख़ूबसूरत लगी..

रोटियाँ कच्ची पक्की, कपड़े बहुत गंदे धुले..
मुझको पाकिस्तान की इसमें शरारत सी लगी...

23-
अजनबी पेड़ो के साय में मोहब्बत है बहुत
घर से निकलो तो, ये दुनिया खुबसूरत है बहुत

रात तारों से उलझ सकती है, ज़रो से नही
रात को मालूम है, जुगनू में हिम्मत है बहुत

मुख़्तसर बातें करो बेजा बजाहत मत करो
ये नई दुनिया है, बच्चों में जिहायत है बहुत

सच सियासत से अदालत तक बहुत मशरूफ़ है
झुठ बोलो झुठ मैं अभी मोहब्बत है बहुत

सात संदुकों में भर कर दफ़्न कर दो नफ़रतें
आज इन्सां को मोहब्बत की ज़रूरत है बहुत

किस लिये हम दिल जलाए रात-दिन मेहनत करें
क्या ज़माना है बुरे लोगों की इज़्ज़त है बहुत

24-
मुझे तुमसे मोहब्बत हो गई है..
ये दुनिया खूबसूरत हो गई है...

खुदा से रोज़ तुमको मांगता हू ..
मेरी चाहत इबादत हो गई है ...

घनीं पलकों पर जुगनू झिलमिलाये ..
किताबों  से  किताबत  हो गई है ...

वो चेहरा चांद है , आंखे सितारे ..
ज़मी फुलों की ज़न्नत हो गई है ...

खुदा, महबूब, शौहर, बाल बच्चे ..
ग़ज़ल दिलदार औरत हो गई है ...

उसे उर्दू में तुमने ख़त लिखा है ..
तुम्हारी इतनी हिम्मत हो गई है ...

बहुत दिन से तुम्हें देखा नहीं है ..
चले भी आओ मुद्दत हो गई है ...

 25-

मैं कब कहता हूँ वो अच्छा बहुत है
मगर उसने मुझे चाहा बहुत है

खुदा इस शहर को महफूज़ रखे
ये बच्चों की तरह हँसता बहुत है

इसे आंसू का एक कतरा न समझो
कुआँ है और ये गहरा बहुत है

मैं हर लम्हे में सदियाँ देखता हूँ
तुम्हारे साथ इक लम्हा बहुत है

26-
बेवक्त अगर जाऊँगा सब चौंक पड़ेंगे
इक उम्र हुई दिन में कभी घर नहीं देखा

जिस दिन से चला हूँ मेरी मंजिल पर नज़र है
आँखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा

ये फूल कोई मुझको विरासत में मिले हैं
तुमने मेरा काँटों भरा बिस्तर नहीं देखा

पत्थर मुझे कहता है मेरा चाहने वाला
मैं मोम हूँ उसने मुझे छू कर नहीं देखा

27-
आंसुओं से मिरी तहरीर नहीं मिट सकती
कोई कागज़ हूँ कि पानी से डराता है मुझे

दूध पीते हुए बच्चे की तरह है दिल भी
दिन में सो जाता है रातों में जगाता है मुझे

सर पे सूरज की सवारी मुझे मंज़ूर नहीं
अपना कद धूप में छोटा नज़र आता है मुझे


28-
कोई पत्थर नहीं हूँ कि जिस शक्ल में मुझको चाहो बनाया बिगाड़ा करो
भूल जाने की कोशिश तो की थी मगर याद तुम आ गए भूलते भूलते

आँखें आसूं भरी, पलकें बोझिल घनी, जैसे झीलें भी हों नर्म साये भी हों
वो तो कहिये उन्हें कुछ हंसी आ गयी, बच गए आज हम डूबते डूबते

अब वो गेसू नहीं हैं जो साया करें अब वो शाने नहीं जो सहरा बनें
मौत के बाजुओ तुम ही आगे बढ़ो थक गए आज हम घूमते घूमते

29-
पास रह कर जुदा सी लगती है
ज़िन्दगी बेवफ़ा-सी लगती है

नाम उसका लिखा है आँखों में
आंसुओं की खता सी लगती है

प्यार करना भी जुर्म है शायद
मुझसे दुनिया खफा सी लगती है

30-
आहन में ढलती जायेगी इक्कीसवीं सदी
फिर भी ग़ज़ल सुनायेगी इक्कीसवीं सदी

कंप्यूटर से ग़ज़लें लिखेंगे "बशीर बद्र "
ग़ालिब को भूल जायेगी इक्कीसवीं सदी

31-
एक चेहरा साथ-साथ रहा जो मिला नहीं,
किसको तलाश करते रहे कुछ पता नहीं।

शिद्दत की धूप तेज़ हवाओं के बावजूद,
मैं शाख़ से गिरा हूँ नज़र से गिरा नहीं।

आख़िर ग़ज़ल का ताजमहल भी है मकबरा,
हम ज़िन्दगी थे हमको किसी ने जिया नहीं।

जिसकी मुखालफ़त हुई मशहूर हो गया,
इन पत्थरों से कोई परिन्दा गिरा नहीं।

तारिकियों में और चमकती है दिल की धूप,
सूरज तमाम रात यहाँ डूबता नहीं।

किसने जलाई बस्तियाँ बाजार क्यों लुटे,
मैं चाँद पर गया था मुझे कुछ पता नहीं।



प्रस्तुति- युध्द राज पारीक



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