18 जुलाई, जन्मदिवस पर विशेष
शहंशाह-ए-ग़ज़ल...मेहदी हसन
ग़ज़ल के दीवाने दर्द और शोर के बीच मेहदी हसन की आवाज़ की दुनिया का सुकून हासिल करते रहे । मज़हब, मुल्क,सरहदों और सियासत से परे ये एक ऐसी दुनिया थी, जिसके दरवाजे सभी के लिए खुले थे। कई पीढ़ियां ख़़ालिस और पाकीज़ा अदायगी की चाहत में मेहदी हसन की जानिब खिंची चली आती रहीं। लता जी ने कहां था, उनकी आवाज़ में भगवान का वास है ।नूरजहां ने कहा कि क़दम ठिठक गए जब सुना- ये धुआं कहां से उठता है। वो हर पीढ़ी के आराध्य रहे।
मेहदी हसन 18 जुलाई 1927 में झंुझनूं के लूणा गांव में पैदा हुऐ थे। उन्हें इस सरज़मीं से बहुत प्यार था और बार बार वे वहां आते रहे । मरुभूमि में बहुधा बहुत चटख रंग के फूल खिलते हैं। मेहंदी साहब की गायकी भी ऐसी ही थी। जब वह बात करते थे तो एक शाइस्ता राजस्थानी आदमी का बोल –चाल का लहज़ा दिखता था। पाकिस्तान में बसने के छह दशक बाद भी पंजाबी के वर्चस्व ने उनके व्यक्तित्व के किसी भी हिस्से को प्रभावित नहीं किया था। न तलफ्फुज को, न लहजे को और न वेश-भूषा को ही। रहते भी वह कराची में थे, जहाँ आम-तौर पर मुहाजिर रहते आये हैं। ध्रुपदिये पुरखों के साथ-साथ मरुभूमि के विराट विस्तार में फैलता ‘पधारो म्हारे देस’ में मांड का दुर्निवार स्वर उन्हें बार-बार अपनी जन्मभूमि की और खींचता था। क्लासकल के साथ-साथ लोक की राग-रागिनियाँ भी उनकी गायकी के अहसास में शामिल रहीं। उनके दादा इमाम खान बड़े कलाकार थे जो उस वक्त मंडावा व लखनऊ के राज दरबार में गंधार, ध्रुपद गाते थे। मेहंदी हसन के पिता अजीम खान व चाचा ध्रपद गायक थे । कलावंत घराने की सोलहवीं पीढ़ी के मेहदी हसन की तमन्ना ख़त्म होती ग़ज़ल की रवायत को आम आदमी तक पहुंचाने और दोबारा ज़िंदा करने की थी । वो चाहते तो ध्रपद गायकी की अपनी ख़ानदानी परंपरा से ख़ुश और संतुष्ट रह सकते थे। लेकिन शायरी से मुहब्बत और ग़ज़ल को नई ज़िंदगी बख़्शने की चाहत उन्हें ग़ज़ल की दुनिया में ले आई। 1952 में कराची रेडियो के प्रोड्यूसर सलीम गिलानी ने सबसे पहले मौक़ा दिया। सबसे पहले सीमाब अकबराबादी की ग़ज़ल 'आया मेरी महफ़ील में ग़ारतगर होश आया' कंपोज की गिलानी ने संगीत की दुनिया की चालबाज़ियों और बदमाशियों के बीच एक सूफ़ी मलंग फ़क़ीराना मिज़ाज के मेहदी को एक नई दिशा दी । शुरू से ही उन्होंने कुछ बातों का ख़ास ख़्याल रखा । मेहदी साहब ने हमेशा उम्दा अशआर चुने। ये ज़रूरी नहीं था कि वे नाचीन शायरो को ही गाएं। अपने इंटरव्यूज़ में बार बार कहते रहे कि दुनिया की सबसे बड़ी सच्चाई हैं सुर। वे ग़ज़लों को राग में इसलिए बांधते हैं, ताकि लंबे समय तक वे सुनने वालो की पंसद बनी रहें।
जगजीत सिंह जी ने अपने एक इंटरव्यूज में कहा था- "नई पीढ़ी के ग़ज़ल गायकों को अगर लम्बी रेस का घोड़ा बनना है तो उन्हें अपना शास्त्रीय आधार पुख्ता करना होगा और यह बात उन्होंने मेहदी हसन साहब से सीखी है, वो शिखर, जो सदियों तक नई पीढ़ीयों को रास्ता और रोशनी दिखाएगा। चाहे बहादुर शाह जफर की ग़ज़ल- लेकिन सलीम कौसर की एक गज़ल ‘मैं ख्याल हूँ किसी और का मुझे सोचता कोई और है/ सरे आइना मेरा अक्स है पसे आइना कोई और है’ को मेहदी हसन ने भैरवी ठाठ में गाया है। जब मेहदी साहब इसे अदा करते हैं तो बेहद सीधी-सादी दिखने वाली गज़ल इंसान के ऐतिहासिक संघर्षों का बयान बन जाती है। मानवीय संघर्षों के बावजूद हकीकतें ‘मेरा जुर्म तो कोई और था, ये मेरी सज़ा कोई और है’ की हैं। मेहदी साहब ने इस गज़ल को अदा करने के लिये उदास भाव वाला भैरवी ठाठ चुना जो कि पूरी गज़ल की अदायगी में साफ़ है।1953 में सबसे पहले पाकिस्तानी फिल्म शिकार के लिए 'मेरे ख़्याल-ओ-ख़्वाब की दुनिया लिए हुए' पहला गाना गाया । उसके बाद तो वे सरहद पार के फिल्मों की एक जरुरी आवाज़ बन गए । फिल्मी गायन उनके करियर का पेशेवर पहलू था और यह सफर नव्वे के दशक तक चला ।
नई आवाजों के लिये आज भी मेहदी हसन ग़ज़ल का विद्यापीठ बने रहेंगे. पाकिस्तान में उनके चाहने वालों की कमी नहीं लेकिन बिला शक हिन्दुस्तान के संगीतप्रेमी उनकी महफिलों के लिये बेसब्र रहे. यह उनकी गायकी का जादू ही है कि सुकंठी लता मंगेशकर तन्हाई में सिर्फ़ मेहदी हसन को सुनना पसंद करती हैं. इसे भी तो एक महान कलाकार का दूसरे के लिये आदरभाव ही माना जाना चाहिये. हम सब की जिन्दगी यथावत चलती रहेगी लेकिन पाकिस्तान के निजाम ने भले ही उन्हें कितने ही तमगों से नवाज़ा हो, उन्होंने व्यवस्था-विरोधी शायरों को गाना कभी बन्द नहीं किया। सामंती-फ़ौजी-धार्मिक- पूँजीवादी हुकूमतें जिन जज्बातों को प्रतिबंधित करना अपना फ़र्ज़ समझती हैं, मेहदी उन्हीं जज्बातों के अनोखे अदाकार थे। उनकी सुरीली ज़िंदगी इस बात की गवाह है की नागरिकता (जो की किसी राष्ट्र की होती है) सभ्यता की स्थानापन्न नहीं होती। मेहंदी साहेब को सुनने वालों की ज़िंदगी में वह शामिल थे। वे सुनने वाले तमाम लोग राग-रागिनियों की बारीकियाँ भले न जानते हों, लेकिन हर सुनने वाले के पास मेहंदी साहेब के सुरों के संस्मरण हैं। मेहंदी साहेब की गायकी उनके दुखों, उनकी खुशी, उनके संघर्षों में साथ निभाती है, सिर्फ मनोरंजन नहीं करती, ज़िंदगी की तमीज विकसित करने में सहयोग करती है। कोई भी कला इससे ज़्यादा और क्या कर सकती है? समय बेरुखी से संगीत को बेसुरा बनाने पर आमादा है लेकिन जब कभी इंसान की रूह को सुरीलेपन की तलाश होगी, मेहदी हसन की आवाज ही उसे आसरा देगी । मुझे इस बात का सदा ये अफसोस रहेगा की मैन उनसे कभी मिल नही पाया।
आज उन्हीं की लगावट का एक शेर याद आता है,
‘कुछ उसके दिल में लगावट जरूर थी वरना,
वो मेरा हाथ दबाकर गुज़र गया कैसे।‘
युधिष्टर पारीक
नोहर
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