मंगलवार, 5 अगस्त 2014

महान संगीतकारों को श्रद्धांजलि

[फिरोज़ शाह मिस्त्री ]
सन् 1931 में फिरोज़ शाह मिस्त्री के संगीत से बद्ध पहली फिल्म आलम आरा में डब्ल्यू एस ख़ान का गाया फिल्म इतिहास का पहला गाना "दे दे ख़ुदा के नाम पर प्यारे ताक़त "की तब लोगों की ज़बान पर चढ़ गया था। इसके पहले मूक फिल्मों के दौर में सिनेमा हॉल में परदे के पास बैठकर आर्केस्ट्रा फिल्म के हिसाब से संगीत देती थी। लेकिन ज़ाहिर है कि जब दर्शकों ने अदाकारों को परदे पर गाते सुना तो वे चमत्कृत रह गए। लेकिन ये तो एक शुरूआत थी उस शानदार सिलसिले की जिसने भारतीय फिल्म इंडस्ट्री को ही पूरी तरह से बदल डाला। संगीत फिल्मों की जान बन गया। गीत-संगीत फिल्मों की सफलता-असफलता की कसौटी बन गए। इसी के साथ फलने-फूलने लगी एक परंपरा, जिसने देश भर से संगीत-प्रतिभाओं को बंबई खींचना शुरू किया। धीरे-धीरे इलाकाई संगीत के मेलजोल से भारतीय संगीत की एक मिली-जुली तस्वीर बनने लगी। इसमें संगीत के हर रंग दिखने लगे। शास्त्रीय, लोक और क्षेत्रीय संगीत का ये मिश्रण जन-जन की ज़बान पर छाने लगा। इस संगीत में लोगों के दुख-सुख बयान होने लगे। उनके सपने और संघर्ष की कहानी कहने लगा फिल्म-संगीत।

[आर. सी.बोराल ]

आर. सी.बोराल का संगीत में ख़ास योगदान रहा। उन्हें संगीत की समझ तो थी ही वे वाद्ययंत्रों की भी अच्छी जानकारी रखते थे। उन्होंने फिल्म संगीत में कई नए वाद्य यंत्रों का प्रयोग शुरू किया। हिंदी फिल्मों में धूप छाँव के गीत...... मैं खुश होना चाहूँ, खुश हो न सकूँ......से पार्श्व गायन की शुरूआत करने वाले भी आर.सी. बोराल ही थे। प्रसिद्ध गायक कुंदन लाल सहगल की खोज का श्रेय बेशक हरिश्चंद्र बाली को जाता है मगर बोराल ने ही उनकी प्रतिभा को सही ढंग से पहचाना और उसका इस्तेमाल भी किया।

[अनिल विश्वास]

फिल्म संगीत के इस अपेक्षाकृत शांत दौर में हलचलें पैदा कीं पूर्वी बंगाल के क्रांतिकारी संगीतकार अनिल विश्वास ने संगीत की गहरी, विविधतापूर्ण और विस्तृत समझ रखने वाले अनिल विश्वास ने फिल्म संगीत में ढेर सारे रंग भर दिए। उन्होंने पश्चिम बंगाल के लोक संगीत का तो जमकर इस्तेमाल किया ही ग़ज़ल, ठुमरी आदि का प्रयोग भी नए अंदाज़ में करना शुरू कर दिया। फिल्म संगीत में आर्केस्ट्रा और कोरस के प्रभाव को स्थापित करने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। ये समय राजनीतिक उथल-पुथल का था और धुनों की यात्रा के अनुसार इस कम्युनिस्ट क्रांतिकारी ने “राजनीतिक-सांस्कृतिक धारा के संगीत का सूत्रपात किया, और इसे बहुत आगे भी ले गया। लोकशैली की धुन को राजनीतिक अर्थव्यंजकता देने में कोरस का लाजवाब प्रयोग उन्हीं की देन है, जिसे आगे चलकर सलिल चौधरी ने नया विस्तार और नई दिशा दी।

[मास्टर गुलाम हैदर]

1946 का दौर था जब लता मंगेशकर जैसी गायिका फिल्म संगीत के आकाश पर उदित हुई और फिर पूरी सदी पर छा गई। लता की प्रतिभा को पहचान ने का श्रेय मास्टर ग़ुलाम हैदर को जाता है,

[खेमचंद प्रकाश ]

लता की आवाज़ में गाया गया गीत आएगा आएगा आने वाला खेमचंद प्रकाश की ही कालजयी कंपोजीशन है। खेमचंद प्रकाश और अन्य संगीतकारों के संगीत को करीब से देखने के बाद ही समझा जा सकता है कि किसी गायक-गायिका की प्रतिभा को समझ-संवारकर संगीतकार उसे कहाँ से कहाँ पहुँचा सकता है। यों तो उनके हिट संगीत के लिए कई गानों और फिल्मों का ज़िक्र किया जा सकता है मगर फिल्म महल तो उनका अमर साऊंड ट्रेक है। पहाड़ी शैली में कंपोज किया गया "मुश्किल है बहुत मुश्किल, चाहत को भुला देना, और "दिल ने फिर याद किया बेवफ़ा लौट भी आ" जैसे लता के गीतों में कंपोजीशन का एक बेहद परिपक्व जादू है।

[नौशाद]

सबसे मक़बूल संगीतकार नौशाद थे। वे संगीत की दुनिया के पहले सुपर स्टार कहे जा सकते हैं। नौशाद पहले संगीतकार थे जिन्होंने अपनी शख्सियत और अपने हुनर से संगीतकार का दर्ज़ा भी नायक या निर्देशक के समकक्ष ला खड़ा किया।शास्त्रीय संगीत का सुगम रूप गढ़ने में उन्हें महारत हासिल थी। उसमें लोकरंग का भी बहुत ही समझदारी से इस्तेमाल करते हुए उन्होंने सरस और मीठे गीतों की रचना की। पचास साल के अपने फिल्म-संगीत के करियर में उन्होंने अंतिम समय तक इसे थामकर रखा। "रतन" से लेकर अनमोल घड़ी दिल्लगी, शाहजहाँ,दुलारी, अनोखी अदा, अँदाज़, बैजू बावरा, मदर इंडिया, मुग़ल ए आज़म आदि फिल्में इसकी गवाह हैं। नौशाद के संगीत का जादू बहुत लंबे समय तक कायम रहा। वे आठवें दशक तक सक्रिय रहे मगर धीरे-धीरे बदलते ज़माने की ज़रूरतों और आस्वादों ने उन्हें अप्रासंगिक बना दिया। लेकिन इस लंबे कालखंड में उनका अमिट हस्ताक्षर दर्ज़ है।

[सचिन देव बर्मन]

सचिन देव बर्मन के गानों में एक नई ताज़गी थी, बागों की खुश्बू थी, हवाओं की चहल-पहल थी और प्रकृति के नाना रूपों की ठिठोली थी। हालाँकि त्रिपुरा से वाया कलकत्ता होते हुए मुंबई वे गायक के रूप में ही पहुँचे थे और उन्होंने अपना पहला गाना धीरे से आजा रे बगियन में रिकार्ड करवाया था, मगर उनकी मंज़िल गायकी नहीं संगीत की थी। गाना उन्होंने बेशक जारी रखा, वे सराहे भी गए मगर उन्हें असली ख्याति मिली एक संगीतकार के रूप में ही। फिल्म "मशाल" उनके करियर के लिए मील की पत्थर साबित हुई और फिर नवकेतन के बैनर के साथ ताउम्र का साथ उनके लिए उनके फिल्मी सफर को सुहाना बनाता चला गया। शास्त्रीय संगीत पर उनकी पकड़ तो बहुत मज़बूत थी मगर उसका विशिष्ट पहलू ये था कि उन्होंने शास्त्रीय आधारित रचनाओं को भी मेलोडी और माधुर्य की संरचना के अंदर ही रखकर प्रस्तुत किया। उनका ज़ोर रहता था कि भले ही धुन शास्त्रीय रागों पर आधारित हो मगर वह ऐसी बनना चाहिए कि राह चलता आदमी भी उसे आसानी से गुनगुना सके। मेरी सूरत तेरी आँखें, कैसे कहूँ और गाइड के संगीत में इसे देखा जा सकता है। मेरी सूरत तेरी आँखें का गीत पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई तो सर्वकालिक हिट गीत है।

[ सी रामचंद्र]

सी रामचंद्र को एक तरह से विद्रोही संगीतकार भी कहा जा सकता है, क्योंकि उन्होंने संगीत की कई परिपाटियों और मान्यताओं को ठुकराकर कई विदेशी संगीत शैलियों के साथ भी प्रयोग किए। साथ ही शुद्ध भारतीय मेलोडी को निखार और तराशकर लता के स्वर में ऊंचाईयों तक पहुंचाने वाली रचनाएं भी सी. रामचंद्र के ही हिस्से आई । सी रामचंद्र के पास हास्य-व्यंग्यप्रधान गीतों को एक अलग अंदाज़ में पेश करने का अनूठा हुनर था। इसीलिए उनके संगीतबद्ध मजाहिया गाने बहुत लोकप्रिय हुए। जैसे "भोली सूरत दिल के खोटे"..."मेरी जान संडे के संडे" तक इस ख़ास वर्ग में उनकी बादशाहत को कोई चुनौती नहीं दे पाया। लेकिन इन गीतों के आधार पर ये मान लेना भूल होगी कि सी रामचंद हल्के-फुल्के गीतों के संगीतकार ही थे। इसके विपरीत उन्होंने बहुत ही गंभीर काम भी किया और उन्हें लता मंगेशकर के गायन को एक ऊंचाई तक ले जाने का श्रेय भी दिया जाता है।

[रोशनलाल ]

 संगीतकार रोशन का नाम भले ही आज की पीढ़ी के लिए नया सा हो, पर संगीत के दीवाने जानते है कि रोशन का नाम किसी भी गीत से जुड़ जाए तो शक्कर की मिठास जैसा गीत पैदा होता है.उनके संगीतबद्ध गीत हमेशा जवां गीतों की लिस्ट में शामिल होते हैं. रोशन नाम से
बताना लाजिमी होगा कि ये वहीं संगीतकार है जो रितिक रोशन के दादा, निर्देशक-नायक राकेश रोशन और संगीतकार राजेश रोशन के पिता  हैं. रोशन संगीत के बहुत अच्छे जानकार थे. वे विविधता के मामले में वे विशेष सतर्कता बरतते थे. उनके संगीत से सजे गीतों को सुने तो स्वयं ही अंदाजा हो जाता है कि कैसे कोई एक ही संगीतकार अलग अलग अंदाज वाले संगीत की धुनों को जन्म दे सकता है.उनके संगीत में कर्णप्रियता का पुट बढ़ गया और संगीतप्रेमियों को गुनगुनाने के अलावा थिरकना भी पड़ता है. फिल्मी  कव्वालियों में भी रोशन का बड़ा अहम योगदान रहा फिल्म बरसात की एक रात की लोकप्रिय कव्वाली ये इश्क इश्क है..इश्क इश्क ने सफलता के झंडें गाढ़ दिए थे.

[ हेमन्त कुमार ]

हर रचनाधर्मी कलाकार प्रतिभा का धनी होता है लेकिन हेमन्त कुमार बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे. यही वजह है कि उनके संगीत में रवीन्द्र संगीत, बांग्ला लोक संगीत, आधुनिक और शास्त्रीय संगीत का मिलाजुला रूप महसूस होता है.
देश विदेश में अपने संगीत का जादू बिखेरने वाले हेमन्त कुमार के खाते में ऐसी ऐसी धुनें हैं जिन्हें आज भी श्रोता बेमिसाल और कालजयी मानते हैं. आज की पीढ़ी इस बात को नहीं समझेगी लेकिन हेमन्त कुमार के गीत संगीत को सुनकर सचमुच ऐसा अहसास होता है कि हम ईश्वर से साक्षात्कार कर रहे हैं।

[ जयदेव]

जयदेव के संगीतबद्ध गीत हमेशा अपने गिरफ्त में ले लेते हैं । और गिरफ्त भी इतनी कोमल जिसके कर्ण स्पर्श से ही रोम -रोम आनंदित हो उठे तो कौन भला इनसे अलग होना चाहेगा ।जयदेव ने ऐसे गीतों की रचना की जो मेलोडी से
सराबोर होते हुए भी शास्त्रीय प्रधान रहे ।वे हमेशा अपनी संगीत विधा के प्रति ईमानदार रहे. वे जितने सादे थे उतनी ही जटिल उनकी संगीत रचना है मगर जटिल होते हुए भी उनकी धुनें बेहद सरस और मंत्रमुग्ध कर देने वाली है |
. हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला एलबम को मन्ना डे ने स्वर दे कर और जयदेव ने संगीत दे कर अमर कर दिया है ।

[एस.एन. त्रिपाठी]

एस.एन. त्रिपाठी का मेलोडी पर उनका ख़ास अधिकार था। हालाँकि उन्होंने अधिकांशत: धार्मिक और पौराणिक फिल्मों में काम किया जिससे वे एक तरह से बँध गए, मगर इन सीमाओं के बावजूद उन्होंने एक से एक मधुर गीत व भजन बनाए जो आज भी हमारे कानो में गुजते रहते ।

[चित्रगुप्त]

चित्रगुप्त  जैसे संगीतकार भी अपने दौर में सक्रिय थे और सक्रिय नहीं थे, बल्कि उन्होंने ऐसे गीतों की रचना की जो आज तक याद किए जाते हैं। चित्रगुप्त ने लता से कुछ बेहतरीन गाने गवाए। उनकी बदकिस्मती शायद ये रही कि उन्हें बड़े बैनर की फिल्में नहीं मिलीं जिससे उनकी वैसी चर्चा नहीं हुई जैसी कि होनी चाहिए थी।

[ग़ुलाम मुहम्मद]

ग़ुलाम मुहम्मद। 1954 मे आई मिर्ज़ा गा़लिब उनकी सबसे महत्वपूर्ण फिल्म थी। इस फिल्म से ही वे चोटी के संगीतकारों में गिने जाने लगे थे। रफ़ी, तलत और सुरैया की आवाज़ों में ग़ालिब की ग़ज़लों को सुनना एक अविस्मरणीय अनुभव है। गुलाम मुहम्मद ने परंपरा से हटकर ग़ालिब की ग़ज़लों को नए अंदाज़ में ढाला था।  ग़ज़लों को नया रूप देने का श्रेय उन्हें ही दिया जाएगा क्योंकि इस समय तक नौशाद और मदनमोहन की ग़ज़लों का सुनहरा दौर अभी शुरू भी नहीं हुआ था।


[शंकर-जयकिशन]

शंकर-जयकिशन की जोड़ी अपने दौर सबसे बहतरीन संगीत जोडी थी ।अपने प्रिय राग भैरवी के आधार पर इन्होंने इस कालखंड की कुछ सबसे मशहूर धुनें तैयार की जैसे-मेरा जूता है जापानी, रमैया वस्तावैया, आवारा हूँ और सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी। छठे दशक के वे सबसे सफल संगीतकार रहे और उनकी लगभग हर फिल्म संगीत के लिहाज़ से हिट साबित हुई। इस जोड़ी के संगीत से सजी फिल्मों की फेहरिस्त बहुत लंबी है, लेकिन श्री420, चोरी चोरी, बूट पॉलिश, वसंत बहार, यहूदी, संगम, मेरा नाम जोकर के नाम उल्लेखनीय हैं।

[ ओ.पी.नय्यर ]

ओपी नय्यर का संगीत सुनकर अच्छे-अच्छे लोग एक बार तो ठिठक जाते हैं। ऐसा ही कुछ उस्ताद अमीर ख़ां साहब के साथ हुआ। रेडिओ पर 1958 की फिल्म 'फागुन' का गाना 'मैं सोया अंखियाँ मींचे' सुनने का ख़ां साहब पर कुछ ऐसा असर हुआ कि वह नय्यर साहब से मिलने को बेचैन हो उठे। उन्होंने तत्काल नय्यर साहब को फोन किया, और मुलाक़ात का वक्त तय हुआ। छूटते ही उस्ताद ने राग पीलू में इतनी अच्छी रचना के लिये नय्यर साहब को बधाई दी। ओ पी नय्यर के मुंह से यह सुनकर ख़ां साहब हैरान रह गये कि नय्यर साहब ने शास्त्रीय संगीत की विधिवत शिक्षा एक दिन भी नहीं ली। उसके बाद ख़ां साहब ने ओ पी को बताया कि फिल्म फागुन के सभी गीत राग पीलू पर ही आधारित हैं, जबकि सुनने में सभी अलग लगते हैं। क्या ऐसी कहानी कभी सुनी गयी है? क्या कोई व्यक्ति बिना संगीत सीखे हुए एक ही राग के दस अलग-अलग प्रारूप तैयार कर सकता है? केवल और केवल ओ पी नय्यर ही ऐसा कर सकते थे।

[मदनमोहन]

मदनमोहन जिन्हें ग़ज़ल सम्राट का रुतबा हासिल हुआ, क्योंकि ग़ज़लों की कम्पोजीशन के मामले में उनका कोई सानी नहीं था। एक बार महान सगीतकार नौशाद ने उनकी दो रचनाओं को "है इसी में प्यार की आबरू" और "आपकी नज़रों ने समझा प्यार के काबिल मुझे" के बदले अपनी सारी कृतियाँ देने को तैयार थे। हालाँकि मदनमोहन की शुरूआत उस समय के प्रचलित संगीत के साथ ही हुई थी मगर धीरे-धीरे उन्होंने अपनी मंज़िल चुन ली और उसी ओर चल पड़े। ग़ज़ल के जिस परिचित रूप के लिए हम मदनमोहन को याद करते हैं वह पहली बार खूबसूरत के मुहब्बत में कशिश होगी तो एक दिन तुमको पा लेंगे में दिखा। राजेंद्र कृष्ण के साथ उनकी जोड़ी अच्छी जमी और लता मंगेशकर के साथ मिलकर तो उन्होंने ग़ज़ब ढा दिया। इस दौरान तो मदनमोहन के संगीत की कल्पना लता के संगीत के बिना की ही नहीं जा सकती थी। लता के मुताबिक मदनमोहन ने ग़ज़लों को प्रचलित शैलियों से निकालकर एक नया रूप दिया।

[रवि]

रवि के संगीत से सजी हिन्दी फिल्मों में 'अलबेली , चौदहवीं का चाँद, घराना,खानदान, दो बदन, हमराज, आँखें,और निकाह विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं .उन्होंने 'वक्त ',नीलकमल' और 'गुमराह' जैसी लोकप्रिय हिन्दी फिल्मों में अपना यादगार संगीत दिया।
रवि के सगीत की एक खुबी थी । कि जिस दौर में शंकर जयकिशन ने 100 पीस आर्केस्ट्रा का फैशन चला दिया था, उस समय भी रवि के संगीत में कभी भी आर्केस्ट्रा की भीड नही मिली । उन्होंने एक समय में 30-35 साज़िंदों के साथ गाना रिकाॅर्ड किया । उनके पसंदीदा साज थे फ्लुट,सितार , और शहनाई थे।

[सलिल चौधरी]

 सलिल चौधरी तो हिंदी फिल्मों के अकेले बुद्धिजीवी संगीतकार कहे जा सकते हैं। वे एक ऐसे संगीतकार थे जो न केवल साम्यवादी थे बल्कि उन्होंने संगीत को साम्यवाद का संदेश देने का एक माध्यम भी बनाया। वे एक विलक्षण कंपोजर ही नहीं थे बल्कि कवि, गीतकार और संगीत समीक्षक भी थे। उनकी रचनाओं में संगीत अपनी संपूर्णता में धड़कता था। वे कभी “पाश्चात्य सिम्फनी के तत्वों, तो कभी भारतीय रिद्म, तो कभी दोनों के सम्मिश्रण से एक तरंग पैदा करते थे, जो उनकी लाक्षणिक विशेषता होती थी।

[आर. डी. बर्मन]

 संगीत परिदृश्य पर नए जैज़ की तुलना में रॉक रिद्मों का प्रभाव कहीं व्यापक हो गया। इलेक्ट्रानिक वाद्य यंत्रों का इस्तेमाल भी बढ़ गया। आर डी बर्मन इस आधुनिक संगीत लहर के प्रतिनिधि संगीतकार बने और उनके संगीत में ध्वनि और भावना के नए उपमानों ने बदलती मानसिकता वाले युवावर्ग को सम्मोहित करके रख दिया।

भारतीय फिल्म संगीत को 83 वर्ष हो चुके हैं और ज़ाहिर है कि ये बहुत लंबी यात्रा रही है। ये लंबी यात्रा स्रजनात्मक घटनाओं से परिपूर्ण रही है। धुनों की यात्रा इनका रुखा-सूखा ब्यौरा ही नहीं देती, बल्कि ऐसे प्रसंगों को भी समेटती चलती है जो उस रचनाकाल और रचनाकारों की मानसिक बनावट तथा उनकी स्त्रजनात्मकता को बयान भी करते हैं। ये भारतीय फिल्म संगीत और संगीतकारों के योगदान को श्रद्धांजलि है।





                                         युधिष्टर पारीक
                                             नोहर
                                       

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