आख़िर आख़िर एक गम ही आश्रा रह जायेगा
और वो ग़म ही मुझ को इक दिन देखता रह जायेगा
सोचता हूँ अश्क़-ए-हसरत ही करूँ नज्र-ए-बहार
फिर ख़याल आता है मेरे पास क्या रह जायेगा
अब हवाएँ ही करेगी रौशनी का फ़ैसला
जिस दिए में जान होगी वो दिया रह जायेगा
आज अगर घर में यही रंग-ए-शब-ए-इशरत रहा
लोग सो जाएँगे दरवाज़ा खुला रह जायेगा
घर कभी उजड़ा नहीं ये घर का शजर है गवाह
हम गए तो आ के कोई दूसरा रह जायेगा
रौशनी 'महशर' रहेगी रौशनी अपनी जगह
मैं ग़ुजर जाऊँगा मेरा नक़्श-ए-पा रह जायेगा
-महशर बदायूंनी
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