सोमवार, 4 जनवरी 2016

आलम खुर्शीद 

चन्द शेर ---

नये ज़ख्मो ! तुम्हारी नाज़-बर्दारी कहाँ मुमकिन 
पुराने ज़ख्म ही हम ने......अभी शादाब रक्खे हैं
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बेखुदी.....! छोड़ रास्ता मेरा 
दिल्लगी उम्र भर नहीं होती
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हमें भी टीस की लज़्ज़त पसंद आने लगी शायद 
ख्याल आता नहीं ज़ख्मों पे अब मरहम लगाने का
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चरागो कुछ तो बतलाओ ! तुम्हें किस ने बुझा डाला 
तुम्हीं ने घर जलाए थे...........हवा की वाह-वाही में
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ह्कीमे-वक्त ही इनका इलाज करता है 
दिलों के ज़ख्म दवा से भरा नहीं करते
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इस को तो बुरा हम ने बना डाला है 'आलम'
अच्छी थी बहुत उस की बनाई हुई दुनिया
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पढ़ा करता हूँ अब तारीख़ ......में जो दास्तानें 
मुअर्रिख ने किसी भी बाब में लिक्खा नहीं था 
(मुअर्रिख़=इतिहासकार, बाब=अध्याय)
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ज़िन्दगी तमाशा है और इस तमाशे में 
खेल हम बिगाड़ेंगे , खेल को बनाने में
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उमीदें जागती रहती हैं, सोती रहती हैं 
दरीचे शमअ जलाते.....बुझाते रहते हैं
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ह्कीमे-वक्त ही इनका इलाज करता है 
दिलों के ज़ख्म दवा से भरा नहीं करते
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बहुत गुमान है खुद पर........ तो मेरे साथ चलो!
हवा के रुख पे भी चलना कोई कमाल है क्या !!!
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ग़ज़ल ---

नहीं नहीं! किसी सूरत कभी नहीं जाती 
तुम्हारी याद, तुम्हारी कमी नहीं जाती 
 
बिछड़ने वाले तुम्हीं तो ये रोज़ कहते थे
कि एक पल भी जुदाई सही नहीं जाती  
 
जो सुन सको तो सुनो मेरे दिल की सरगोशी 
हर एक बात ज़बां से कहीं नहीं जाती
 
हर एक लफ़्ज़ उड़ा ले गई है धूप मगर 
किताबे दिल से अभी तक नमी नहीं जाती
 
बला का शोर वहीँ से  कभी उभरता है 
जहाँ किसी की सदा भी सुनी नहीं जाती 
 
बचा के रखना उदासी से दिल की बस्ती को 
कभी जो आन बसी तो कभी नहीं जाती 
 
हज़ार बार पढ़ा फ़लसफ़ा खुदी का मगर 
हमारे दिल से कभी बेखुदी नहीं जाती
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तुम जिसको ढूंढते हो ये महफ़िल नहीं है वो 
लोगों के इस हुजूम में शामिल नहीं है वो 

रस्तों के पेचो-ख़म ने कहीं और ला दिया 
जाना हमें जहाँ था ये मंज़िल नहीं है वो 

दरिया के रुख को मोड़ के आये तो ये खुला 
साहिल के रंग और हैं , साहिल नहीं है वो 

नग़मा -सरा है राह की दीवार इन दिनों 
अब के किसी की राह में हाइल नहीं है वो 

दुनिया की भाग दौड़ का हासिल यही तो है 
हासिल हर एक चीज़ है , हासिल नहीं है वो 

आलम दिले-असीर को समझाऊं किस तरह 
कमबख्त ऐतबार के क़ाबिल नहीं है वो 
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१. हुजूम = भीड़ २. पेच ओ खम = उलझाओ 
३. नग़मा-सरा = गीत गाना ४. हाइल = रुकावट 
५. दिले - असीर = क़ैदी दिल

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लुत्फ हम को आता है अब फ़रेब खाने में 
आज़माए लोगों को रोज आज़माने में

दो घड़ी के साथी को हमसफ़र समझते हैं 
किस क़दर पुराने हैं , हम नए ज़माने में 

तेरे पास आने में आधी उम्र गुज़री है 
आधी उम्र गुज़रेगी तुझ से दूर जाने में 

इह्तियात रखने की कोई हद भी होती है 
भेद हम ने खोले हैं भेद को छुपाने में 

ज़िन्दगी तमाशा है और इस तमाशे में 
खेल हम बिगाड़ेगें , खेल को बनाने में 

कारवां को उनका भी कुछ ख्याल आता है 
जो सफ़र में पिछड़े हैं , रास्ता बनाने में 
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मस्लेहत का है तकाज़ा अक्ल से यारी करें 
दिल ही आमादा नहीं होता कि मक्कारी करें

ऐतबार आता नहीं दिल कि सदाक़त पर इसे 
ये ज़माना चाहता है हम अदाकारी करें

क्या क़यामत है कि रोज़ अह्ले-जफ़ा के सामने 
हम वफ़ाएं कर के भी साबित वफ़ादारी करें

वो क़लम करते रहेंगे शाखे-गुल, शाखे-समर 
और हमें फरमान ये है हम शजर-कारी करें

चारागर ! कुछ तो बता दे मरहमों की आस में 
कब तलक हम नाखुनों की नाज़-बरदारी करें

इस तरफ़ सैलाब है तो उस तरफ़ तूफ़ान है 
बोल ऐ जम्हूरियत ! किस की तरफ़दारी करें

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बड़े हुनर से ये कारे मुहाल कर तो दिया
हवाए-हिज्र को बादे-विसाल कर तो दिया
उतार लाए तेरे चाँद को खराबे में
फ़सुर्दगी! तुझे आखिर निहाल कर तो दिया
बुझा हुआ था दिले-शादमां ज़माने से
दोबारा हम ने इसे खुश-खिसाल कर तो दिया
कुछ और पेश करूँ क्या ! ऐ शहर-बानो बता !
कि अब नगीना-ए-दिल यरग़माल कर तो दिया
कहा था हम ने फकीरों से दिल्लगी है बुरी
सो देख ! तेरा भी हँसना मुहाल कर तो दिया
संभल ! कि आ गए अह्ले-खिरद भी सहरा में
जुनूं के जोश में तूने धमाल कर तो दिया
बजा कि बिगड़े हमारे नुकूश कुछ आलम
किसी का अक्स मगर बे-मिसाल कर तो दिया
– आलम खुर्शीद
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१. कारे-मुहल = मुश्किल काम , बादे-विसाल = मिलन की हवा
२. खराबा =खण्डर, फसुर्दगी = उदासी , निहाल = खुश
३. दिले-शादमां = खुश रहने वाला दिल , खुश खिसाल = अच्छी आदत वाला
४. यरग़माल = बंधक रखना ५. अह्ले-खिरद = अक्ल वाले , बुद्धिमान

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हाथ पकड़ ले अभी तेरा हो सकता हूं मैं
भीड़ बहुत है इस मेले में खो सकता हूँ मै

पीछे छुटे साथी मुझ को याद आ जाते है 
वर्ना दौड़ में सब से आगे हो सकता हूँ मै

कब समझेगें जिनकी ख़ातिर फूल बिछाता हूँ 
रहगुज़र में काँटे भी तो बो सकता हूँ मै

इक छोटा-सा बच्चा मुझ में अब तक ज़िन्दा है
छोटी छोटी बात पे अब भी रो सकता हूँ मैं

सन्नाटे में दहशत हर पल गूँजा करती है
इस जंगल मैं चैन से कैसे सो सकता हूँ मैं

सोच समझकर चट्टानों से उलझा हूँ वर्ना
बहती गंगा में हाथों को धो सकता हूँ मैं

– आलम खुर्शीद

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