सोमवार, 25 अगस्त 2014

लोकप्रिय शायर- मुनव्वर राना की ग़ज़लें 
(1)
जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है 
माँ दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती है 

रोज़ मैं अपने लहू उसे खत लिखता हूँ 
रोज़ ऊँगली मेरी तेज़ाब में आ जाती है 

दिल की गलियों से तेरी याद निकलती ही नहीं 
सोहनी फिर इसी पंजाब में आ जाती है 

रात भर जागते रहने का सिला है शायद 
तेरी तस्वीर सी महताब में आ जाती है 

एक कमरे में बसर करता है सारा कुनबा 
सारी दुनिया दिले बेताब में आ जाती है 

ज़िन्दगी तू भी भिखारिन की रिदा ओढ़े हुए 
कूचा -ए -रेशम -ओ -कमख़्वाब में आ जाती है 

दुःख किसी का हो छलक जाती है मेरी आँखे 
सारी मिट्टी मेरे तालाब में आ जाती है
(2)
दुनिया तेरी रौनक से मैं अब ऊब रहा हूँ
तू चाँद मुझे कहती थी मैं डूब  रहा हूँ 


अब कोई शनासा भी दिखाई नहीं देता 
बरसों मैं इसी शहर का महबूब रहा हूँ 

मैं ख़्वाब नहीं आपकी आँखों की तरह था 
मैं आपका लहजा नहीं अस्लूब रहा हूँ 

इस शहर के पत्थर भी गवाही मेरी देंगे 
सहरा भी बता देगा कि मजज़ूब रहा हूँ 

रुसवाई मेरे नाम से मन्सूब रही है 
मैं खुद कहाँ रुसवाई से मन्सूब रहा हूँ 

दुनिया मुझे साहिल से खड़ी देख रही है 
मैं एक जज़ीरे की तरह डूब रहा हूँ 

फेंक आये थे मुझको भी मेरे भाई कुँए में 
मैं सब्र से भी हज़रते अय्यूब रहा हूँ 
तीन 
मुहब्बत करने वालों में ये झगड़ा डाल देती है 
सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है 

तवायफ़ की तरह अपने गलत कामों के चेहरे पर 
हुकूमत मन्दिर -ओ -मस्जिद का पर्दा डाल देती है 

हुकूमत मुँह -भराई के हुनर से खूब वाकिफ़ है 
ये हर कुत्ते के आगे शाही टुकड़ा डाल देती है 

कहाँ की हिजरतें ,कैसा सफ़र ,कैसा जुदा होना 
किसी की चाह पैरों पर दुपट्टा डाल देती है 

ये चिड़िया भी मेरी बेटी से कितना मिलती -जुलती है 
कहीं भी शाख -ए -गुल देखे तो झूला डाल देती है 

हसद की आग में जलती है सारी रात वो औरत 
मगर सौतन के आगे अपना जूठा डाल देती है 
चार 
हमारी ज़िन्दगी का इस तरह हर साल कटता है 
कभी गाड़ी पलटती है ,कभी तिरपाल कटता है 

दिखाते हैं पड़ोसी मुल्क आँखे तो दिखाने दो 
कहीं बच्चों के बोसे से भी माँ का गाल कटता है 

इसी उलझन में अक्सर रात आँखों में गुजरती है 
बरेली को बचाते हैं तो नैनीताल कटता है 

कभी रातों के सन्नाटे में भी निकला करो घर से 
कभी देखा करो गाड़ी से कैसे माल कटता है 

सियासी वार भी तलवार से कुछ कम नहीं होता 
कभी कश्मीर जाता है ,कभी बंगाल कटता है 
पांच 
शरीफ़ इंसान आखिर क्यों इलेक्शन हार जाता है 
किताबों में तो लिक्खा है कि रावन हार जाता है 

जुड़ी हैं इससे तहज़ीबें सभी तस्लीम करते हैं 
नुमाइश में मगर मिट्टी का बरतन हार जाता है 

मुझे मालूम है तूमनें बहुत बरसातें देखी है 
मगर मेरी इन्हीं आँखों से सावन हार जाता है 

अभी मौजूद है इस गाँव की मिट्टी में खुद्दारी 
अभी बेवा की गैरत से महाजन हार जाता है 

अगर एक कीमती बाज़ार की सूरत है दुनिया 
तो फिर क्यों काँच की चूड़ी से कंगन हार जाता है
छः 
मुख़्तसर होते हुए भी ज़िन्दगी बढ़ जायेगी 
माँ की ऑंखें चूम लीजै रौशनी बढ़ जायेगी 

मौत का आना तो तय है मौत आयेगी मगर 
आपके आने से थोड़ी ज़िन्दगी बढ़ जायेगी 

इतनी चाहत से न देखा कीजिए महफ़िल में आप 
शहर वालों से हमारी दुशमनी बढ़ जायेगी 

आपके हँसने से खतरा और भी बढ़ जायेगा 
इस तरह तो और आँखों की नमी बढ़ जायेगी 

बेवफ़ाई खेल है इसको नज़र अंदाज़ कर 
तज़किरा करने से तो शरमिन्दगी बढ़ जायेगी 
सात 
मैं इसके नाज़ उठाता हूँ सो ये ऐसा नहीं करती 
ये मिटटी मेरे हाथों को कभी मैला नहीं करती 

खिलौनों की दुकानों की तरफ़ से आप क्यूँ गुज़रे 
ये बच्चे की तमन्ना है ये समझौता नहीं करती 

शहीदों की ज़मीं है इसको हिन्दुस्तान कहते हैं 
ये बन्जर होके भी बुज़दिल कभी पैदा नहीं करती 

मोहब्बत क्या है दिल के सामने मजबूर हो जाना 
जुलेखा वरना  यूसुफ का कभी सौदा नहीं करती 

गुनहगारों की सफ़ में रख दिया मुझको ज़रूरत ने 
मैं नामरहम हूँ लेकिन मुझसे ये परदा नहीं करती 

अजब दुनिया है तितली के परों को नोच लेती है 
अजब तितली है पर नुचने पे भी रोया नहीं करती 
आठ 
गुलाब रंग को तेरे कपास होना पड़े 
न इतना हँस कि तुझे देवदास होना पड़े 

बला से जाती हैं आँखे तो फिर चली जायें 
मैं उसको देख लूँ फिर देवदास होना पड़े 

ये आरज़ू है कि गुज़रे इधर से वो चाहे 
हमारी पलकों को रस्ते की घास होना पड़े 

ये मोड़ वो है जहाँ खुदकुशी भी जाएज़ है 
मेरी अना को अगर बेलिबास होना पड़े
नौ
कोयल बोले या गौरैया अच्छा लगता है 
अपने गाँव में सब कुछ भैया अच्छा लगता है 

तेरे आगे माँ भी मौसी लगती है 
तेरी गोद में गंगा मैया अच्छा लगता है 

कागा की आवाज़ भी चिट्ठी जैसी लगती है 
पेड़ पे बैठा एक गवैया अच्छा लगता है 

माया -मोह बुढ़ापे में बढ़ जाता है 
बचपन में बस एक रुपैया अच्छा लगता है 

खुद ही डांटे ,खुद ही लगाये सीने से 
प्यार में उसका ये भी रवैया अच्छा लगता है 
दस -मुनव्वर राना की हस्तलिपि में कुछ शेर 

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