शनिवार, 11 जुलाई 2015

बशीर बद्र की हिट ग़ज़ले
1-
बहुत अच्छा सा कोई सूट पहनो इस ग़रीबी में
उजालों में छिपी इन बदलियों को कौन देखेगा

है सर्दी वाक़ई लेकिन घने कोहरे के बादल में
पहाड़ों से उतरती इन बसों को कौन देखेगा

अगर हम साहिलों पे डोर काँटे ले के बैठेंगे
तो मौजों में चमकती तितलियों को कौन देखेगा

बशीर साहब

2-
अज़्मते सब तिरी खुदाई की
हैसियत क्या मिरी इकाई की

मिरे होंठ के फुल सुख गये
तुम ने क्या मुझे से बेवफ़ाई की

सब मिरे हाथ पाँव लफ़्जों के
और  आँखे  भी रौशनाई  की

मैं मुल्ज़िम हूँ मैं ही मुंसिफ़ हूँ
कोई सुरत नही रिहाई की

इक बरस ज़िन्दगी का बीत गया
तह  ज़मीं  एक  और  काई की

अब तरसते रहो ग़ज़ल के लिये
तुम ने लफ़्जों से बेवफ़ाई की

-बशीर बद्र साहब

3-
क़दम ज़माना भी है , और सब के साथ चलना भी
हम सअपनी  राह का   पत्थर है और   दरिया भी

बहुत जहीन-ओ-ज़माना शनास था लेकिन
वो रात बच्चों की सूरत लिपट के रोया भी

चराग जलने से पहले हमें पहुँचना है
ढके हुए है, पहाड़ों को आज कोहरा भी

हज़ारों मील का मंज़र है इस नगीने में
ज़रा सा आदमी दरिया है और सहरा भी

वही शरारा के जिससे झुलस गई पलकें
सितारा बनके मिरी रातों में वो चमका भी

असर वही हुआ आख़िर अगर'चे पहले पहल
हवा का हाथ गुलों के बदन पे फिसला भी

हम अपना घर भी न अब ढँूढ पायेंगे शायद
अगर हमरा हुआ उस तरफ को फेरा भी

अभी ज़माने से शायद हो सौ बरस पीछे
तुम्हारा दिल भी सलामत है और चेहरा भी

मगर जो फ़ासला पहले था और बढ़ता गया
मैं उसके पास गया वो इधर से गुज़रा भी

-बशीर बद्र

4-
हमारे पास तो आओ, बड़ा अँधेरा है !
कहीं न छोड़ के जाओ, बड़ा अँधेरा है !!

उदास कर गये बे साख्ता लतीफ़े भी !
अब आसुंओं से रुलाओ, बड़ा अँधेरा है !

कोई सितारा नहीं पत्थरों की पलकों पर !
कोई चिराग़ जलाओ, बड़ा अँधेरा है !!

हकीकतों में ज़माने बहुत गुज़ार चुके !
कोई कहानी सुनाओ, बड़ा अँधेरा है !!

किताबें कैसी उठा लाए मैकदे वाले !
ग़ज़ल के जाम उठाओ, बड़ा अँधेरा है !!

ग़ज़ल में जिस की हमेशा चराग़ जलते हैं !
उसे कहीं से बुलाओ, बड़ा अँधेरा है !!

वो चाँदनी की बशारत है हर्फ़े आखिर तक !
"बशीर बद्र" को लाओ, बड़ा अँधेरा है !!

बशीर बद्र
5-
पहला सा वो ज़ोर नही  है मेरे दुख: की सदाओं में
शायद पानी नही रहा है अब प्यासे  दरियाओं में

जिस बादल की आस में जोड़े खोल लिये है सुहागन नें
वो  पर्वत से  टकरा  कर  बरस  चुका  है  सहराओं में

जाने कब तड़प और चमके सुनी रात को फ़िर डँस जाए
मुझ को एक रूपहली नागिन बैठी मिली है घटाओ में

पता तो आखिर पता था, गूंजान घने दरख़्तों ने
ज़मीं को तन्हा छोड़ दिया है इतनी तेज हवाओं में

दिन भर धूप की तरह से हम छाए रहते हैं दुनिया पर
रात हुई तो सिमट के आ जाते हैं दिल की गुफ़ाओ में

खड़े हुए जो साहिल पर तो दिल में पलकें भीग गई
शायद  आँसू  छुपे  हुए हो सुब्हा की नर्म हवाओं में

ग़ज़ल के मंदिर में दीवाना मुरत रख कर चला गया
कौन  उसे  पहले  पूजेगा  बहस  चली  देवताओं  में

बशीर साहब
6-
सौ ख़ुलूस बातों में सब करम ख़यालों में
बस ज़रा वफ़ा कम है तेरे शहर वालों में

पहली बार नज़रों ने चाँद बोलते देखा
हम जवाब क्या देते खो गये सवालों में

रात तेरी यादों ने दिल को इस तरह छेड़ा
जैसे कोई चुटकी ले नर्म नर्म गालों में

मेरी आँख के तारे अब न देख पाओगे
रात के मुसाफ़िर थे खो गये उजालों में
7-
दूसरों को हमारी सज़ायें न दे
चांदनी रात को बद-दुआयें न दे

फूल से आशिक़ी का हुनर सीख ले
तितलियाँ ख़ुद रुकेंगी सदायें न दे

सब गुनाहों का इक़रार करने लगें
इस क़दर ख़ुबसूरत सज़ायें न दे

मोतियों को छुपा सीपियों की तरह
बेवफ़ाओं को अपनी वफ़ायें न दे

मैं बिखर जाऊँगा आँसूओं की तरह
इस क़दर प्यार से बद-दुआयें न दे

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