शनिवार, 11 जुलाई 2015

मुनव्वर राना की ग़ज़ले व नज़्में

1-
सेहरा मे रह के क़ैस ज्यादा मज़े में है
दुनिया समझ रही है के लैला मज़े मे है !

बरबाद कर दिया  हमें परदेस ने मगर
माँ सब से केह रही है के बेटा मज़े मे है!

है रूह बेक़रार अभी तक यज़ीद की
वो इसलिये कि आज भी प्यासा मज़े में है!

दुनिया अगर मजाक बदल दे तो और बात
अब तक तो झुठ बोलने वाला  मज़े में है!

शायद उसे ख़बर भी नही है कि इन दिनों
बस इक वही उदास है "राना" मज़े में है!

 2-
हम दोनों में आँखें कोई गीली नहीं करता!
ग़म वो नहीं करता है तो मैं भी नहीं करता!!

मौक़ा तो कई बार मिला है मुझे लेकिन!
मैं उससे मुलाक़ात में जल्दी नहीं करता!!

वो मुझसे बिछड़ते हुए रोया नहीं वरना!
दो चार बरस और मैं शादी नहीं करता!!

वो मुझसे बिछड़ने को भी तैयार नहीं है!
लेकिन वो बुज़ुर्गों को ख़फ़ा भी नहीं करता!!

ख़ुश रहता है वो अपनी ग़रीबी में हमेशा!
‘राना’ कभी शाहों की ग़ुलामी नहीं करता!!


3-
उन घरों में जहाँ मिट्टी के घड़े रहते हैं!
क़द में छोटे हों मगर लोग बड़े रहते हैं!!

जो भी दौलत थी वो बच्चों के हवाले कर दी!
जब तलक मैं नहीं बैठूँ ये खड़े रहते हैं !!

मैंने फल देख के इन्सानों को पहचाना है!
जो बहुत मीठे हों अंदर से सड़े रहते हैं!!

4-

यह एहतराम तो करना ज़रूर पड़ता है!
जो तू ख़रीदे तो बिकना ज़रूर पड़ता है!!

वो दोस्ती हो मुहब्बत हो चाहे सोना हो!
कसौटियों पे परखना ज़रूर पड़ता है!!

कभी जवानी से पहले कभी बुढ़ापे में!
ख़ुदा के सामने झुकना ज़रूर पड़ता है!!

हो चाहे जितनी पुरानी भी दुश्मनी लेकिन!
कोई पुकारे तो रुकना ज़रूर पड़ता है!!

वफ़ा की राह पे चलिए मगर ये ध्यान रहे!
की दरमियान में सहरा ज़रूर पड़ता है.!!
मुनव्वर राना.

5-
दौलत से मुहब्बत तो नहीं थी मुझे लेकिन
बच्चों ने खिलौनों की तरफ़ देख लिया था

जिस्म पर मेरे बहुत शफ़्फ़ाफ़ कपड़े थे मगर
धूल मिट्टी में अटा बेटा बहुत अच्छा लगा

कम से बच्चों के होंठों की हँसी की ख़ातिर
ऐसे मिट्टी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊँ

क़सम देता है बच्चों की, बहाने से बुलाता है
धुआँ चिमनी का हमको कारख़ाने से बुलाता है

बच्चे भी ग़रीबी को समझने लगे शायद
अब जाग भी जाते हैं तो सहरी नहीं खाते

इन्हें फ़िरक़ा परस्ती मत सिखा देना कि ये बच्चे
ज़मी से चूम कर तितली के टूटे पर उठाते हैं

सबके कहने से इरादा नहीं बदला जाता
हर सहेली से दुपट्टा नहीं बदला जाता

बिछड़ते वक़्त भी चेहरा नहीं उतरता है
यहाँ सरों से दुपट्टा नहीं उतरता है

कानों में कोई फूल भी हँस कर नहीं पहना
उसने भी बिछड़ कर कभी ज़ेवर नहीं पहना

6-
अच्छी से अच्छी आबो हवा के बग़ैर भी
ज़िंदा हैं कितने लोग दवा के बग़ैर भी

सांसों का कारोबार बदन की ज़रूरतें
सब कुछ तो चल रहा है दुआ के बग़ैर भी

बरसों से इस मकान में रहते हैं चंद लोग
इक दूसरे के साथ वफ़ा के बग़ैर भी

हम बेकुसूर लोग भी दिलचस्प लोग हैं
शर्मिन्दा हो रहे हैं ख़ता के बग़ैर भी

7-
'शहदाबा' में मुनव्वर साहब की कुछ पाबंद नज़्में हैं. बताया जाता है कि इनमें से एक नज़्म तो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अपने घर में फ्रेम करवाकर लगा रखी है. इसके एक दो बंद आपको पढवाता हूं..

एक बेनाम सी चाहत के लिए आई थी
आप लोगों से मुहब्बत के लिए आई थी

मैं बड़े बूढ़ों की ख़िदमत के लिए आई थी
कौन कहता है हुकूमत के लिए आई थी

अब यह तक़दीर तो बदली भी नहीं जा सकती
मैं वह बेवा हूं जो इटली भी नहीं जा सकती
मैं दुल्हन बन के भी आई इसी दरवाज़े से
मेरी अर्थी भी उठेगी इसी दरवाज़े से

8-
इशारों–इशारों में मुनव्वर साहब किस तरह सोनिया गांधी के मन की बात को अपनी नज़्म में कह जाते है.

आप लोगों का भरोसा है ज़मानत मेरी
धुंधला-धुंधला सा वह चेहरा है ज़मानत मेरी
आपके घर की ये चिड़िया है ज़मानत मेरी
आपके भाई का बेटा है ज़मानत मेरी
है अगर दिल में किसी के कोई शक निकलेगा
जिस्म से खून नहीं सिर्फ नमक निकलेगा

9-
हमारा तीर कुछ भी हो,निशाने तक पहुँचता है
परिन्दा कोई मौसम हो ठिकाने तक पहुँचता है

धुआँ बादल नहीं होता,कि बचपन दौड़ पड़ता है
ख़ुशी से कौन बच्चा कारख़ाने तक पहुँचता है

हमारी मुफ़लिसी पर आपको हँसना मुबारक हो
मगर यह तंज़ हर सैयद घराने तक पहुँचता है.

10-
मिट्टी में मिला दे के जुदा हो नहीं सकता
अब इससे ज़्यादा मैं तेरा हो नहीं सकता

दहलीज़ पे रख दी हैं किसी शख़्स ने आँख़ें
रोशन कभी इतना तो दिया हो नहीं सकता

बस तू मेरी आवाज़ से आवाज़ मिलादे
फिर देख के इस शहर में क्या हो नहीं सकता

ऎ मौत मुझे तूने मुसीबत से निकाला
सय्याद समझता था रिहा हो नहीं सकता

इस ख़ाक बदन को कभी पहुँचा दे वहाँ भी
क्या इतना करम बादे सबा हो नहीं सकता

पेशानी को सजदे भी अता कर मेरे मौला
आँखों से तो ये क़र्ज़ अदा हो नहीं सकता

दरबार में जाना मरा दुश्वार बहुत है
जो शख़्स क़लन्दर हो गदा हो नहीं सकता



दहलीज़- चौखट,
 सय्याद- शिकारी
बादेसबा- सुबह की पूर्वा हवा,
सजदा-सिर झुका कर माथा टिकाना
क़लन्दर - मस्तमौला, अपनी मरज़ी का मालिक
गदा- दर-दर माँगने वाला

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