बशीर साहब के चन्द शे'र ....
गज़ालाँ देखना दिलदार तारों की अटारी में
मेरे नैना के दोनो पट खुले हैं बेकरारी में
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भोपाल की ग़ज़ल ने वो तर्ज़े निकालियाँ
मौला के दर पे बैठी हैं अब दिल्लीवालियाँ
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मैं ये मानता हूँ मेरे दीये तेरी आँधियों ने बुझा दिये
मगर एक जुगनू हवाओं में अभी रोशनी का इमाम है
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परिन्दां के शिकाराँ से खुदा नाराज़ होवे है
मियाँ जी चाँद को घायल करोगे चानमारी में
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जिस दिन से चला हूँ मेरी मंज़िल पे नज़र है
आँखों ने कोई मील का पत्थर नहीं देखा
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बाज़ारों की चहल पहल से रौशन है
इन आँखों में मंदिर जैसी शाम कहाँ..
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तुमने देखा है किसी मीरा को मंदिर में कभी
एक दिन उसने खुदा से इस तरह माँगा मुझे..
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मीर कबीर बशीर इसी मक़तब के हैं
आ दिल के मक़तब में अपना नाम लिखा
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वो बड़ा रहीमो करीम है मुझे ये सिफ़त भी अता करे
तुझे भूलने की दुआ करूँ तो मेरी दुआ में असर न हो
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मेरे साथ जुगनू है हमसफ़र मगर इस शरर की बिसात क्या
ये चराग़ कोई चराग़ है, न जला हुआ न बुझा हुआ
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मैं तमाम दिन का थका हुआ तू तमाम शब् का जगा हुआ
ज़रा ठहर जा इसी मोड़ पर तेरे साथ शाम गुज़ार लूँ..
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क्यों चांदनी रातों में दरिया पे नहाते हो
सोये हुए पानी में क्या आग लगानी है
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ज़िन्दगी तू मुझे पहचान न पाई लेकिन..
लोग कहते है कि मैं तेरा नुमाइंदा हूं...
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ग़ज़लो का हुनर,अपनी आँखों को सिखाएंगे
रोएंगे बहुत, लेकिन आँसू नही आएंगे
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कह देना समंदर से हम ओस के मोती हैं
दरिया कि तरह तुझ से मिलने नही आएगें
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मेरे बारे में वो हवाओं से कब पुछेगा
ख़ाक जब ख़ाक में मिल जाएगी तब पूछेगा?
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वो ज़ाफ़रानी पुलोवर उसी का हिस्सा है..
कोई जो दूसरा पहने तो दूसरा ही लगे...
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अब मिले हम तो कई लोग बिछड़ जायेगें..
इन्तजार और करो अगले जनम तक मेरा..
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यहाँ लिबास की किमत है, आदमी की नही..
मुझे गिलास बड़े दे, शराब कम दे ..
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कोई फुल धूप की पत्तियों में..
हरे रिवन से बँधा हुआ..
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वो ग़ज़ल का लहजा नया-नया..
ना कहाँ हूं, ना सुना हूं..
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नफरत को मोहब्बत का एक शे'र सुनाता हूं
मैं लाल पिसी मिर्चें पलकों से ऊठता हूं...
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अब मिले हम तो कई लोग बिछड़ जायेगें..
इन्तजार और करो अगले जनम तक मेरा..
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कोई जो दुसरा पहने, तो दुसरा ही लगे..
यहाँ लिबास की किमत है आदमी की नही
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धूप के ऊँचे-नीचे रस्तों को,
एक कमरे का बल्ब क्या जाने।
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ज़मीं भीगी हुई है आंसुओं से
यहाँ बादल इबादत कर रहे हैं
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मुझे उन नीली आँखों ने बताया
तुम्हारा नाम पानी पर लिखा है
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तुम्हारे साथ में ये मौसम फरिश्तों जैसा है
तुम्हारे बाद ये मौसम बहुत सताएगा
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कागज़ की कश्ती, जुगनू, झिलमिल झिलमिल
शौहरत क्या है इक नदिया बरसाती है
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शक़्ल, सूरत, नाम, पहनावा, ज़बाँ अपनी जगह
फ़र्क़ वरना कुछ नहीं इन्सान और इन्सान में
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सीने में आफ़ताब सा इक दिल जरूर हो
हर घर में इक धुप का आँगन भी चाहिए
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बारिशों में किसी पेड़ को देखना,
शाल ओढ़े हुए भीगता कौन है।
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हिंदुस्तान का मज़हब,दिल का मज़हब है
प्यार को पूजा,चाहत को इस्लाम लिखा
मंदिर मस्ज़िद पानी की दीवारें है
पानी की दीवारों पे किस ने नाम लिखा
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प्यार की छाँव में दो दिल जो जरा मिल बैठे
बज़्म में ग़ज़लें हुई , शहर में अफ़साने चले
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जिस की मुखालफ़त हुई मशहूर हो गया
इन पत्थरों से कोई परिंदा गिरा नहीं
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हज़ारों मील का मंज़र है इस नगीने में
ज़रा सा आदमी दरिया है और सहारा
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माटी की कच्ची गागर का, क्या खोना क्या पाना बाबा..
माटी को माटी है रहना , माटी में मिल जाना बाबा...
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मैं चुप रहा तो और ग़लत फहमियाँ बढ़ी
वो भी सुना है उसने जो मैंने कहा नहीं
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पलकें भी चमक उठती हैं सोते में हमारी
आँखों को अभी ख़्वाब छुपाने नहीं आते
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बड़ी आग है बड़ी आंच है ,तेरे मैकदे के गुलाब में
कई बालियाँ कई चूड़ियाँ ,यहाँ घुल रही शराब में
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यारों ने जिस पे अपनी दुकानें सजाई है
ख़ुश्बू बता रही है हमारी ज़मीन है
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चमकती है कहीं सदियों में आंसुओं से ज़मीं
ग़ज़ल के शे'र कहाँ रोज़ रोज़ होते हैं
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सड़कों, बाजारों, मकानों, दफ्तरों में रात-दिन
लाल-पीली, सब्ज़ नीली, जलती-बुझती औरतें।
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थके थके पेडल के बीच चले सूरज
घर की तरफ लौटी दफ्तर की शाम।
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हम से मुसाफिरों का सफ़र इन्तिज़ार है,
सब खिड़कियों के सामने लम्बी कतार है।
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हम क्या जानें दीवारों से, कैसे धूप उतरती होगी,
रात रहे बाहर जाना है, रात गए घर आना बाबा।
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किसने जलाई बस्तियाँ बाजार क्यों लुटे,
मैं चाँद पर गया था मुझको कुछ पता नहीं।
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मकां से क्या मुझे लेना मकां तुमको मुबारक हो
मगर ये घासवाला रेशमी कालीन मेरा है।
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हमसे मजबूर का ग़ुस्सा भी अजब बादल है
अपने ही दिल से उठे - अपने ही दिल पर बरसे
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लोबान में चिंगारी जैसे कोई रख जाए
यों याद तेरी शब भर सीने में सुलगती है
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बहुत से और भी घर है, खुदा की बस्ती में ...
फ़क़ीर कब से खड़ा है, जवाब दे जाओ ....
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अहसास की ख़ुश्बू कहाँ आवाज़ के जुगनू कहाँ, ..
ख़ामोश यादों के सिवा घर में रहा कुछ भी नहीं ...
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नहीं है मेरे मुक़द्दर में रौशनी, न सही
ये खिड़की खोलो, ज़रा सुबह की हवा तो लगे
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मेरा ये अहद है, की आज से मैं कोई मंज़र ग़लत न देखूँगा .
मेरी बेटी ने मेरी पलकों को कितनी पाकीज़गी से चुमाँ है ...
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मोहब्बत से, इनायत से, वफ़ा से चोट लगती है
बिखरता फूल हूँ, मुझको हवा से चोट लगती है
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मिरी आँखों में आँसू की तरह इक रात आ जाओ
तकल्लुफ़ से, बनावट से, अदा से चोट लगती है
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