शनिवार, 13 जून 2015

अताउल 'हक़' क़ासमी


1-मेरे लिये आवाज़ा-ए-रुस्वाई बहुत है
इस शहर में इतनी भी पजिराई बहुत है

सहरा को निकल जाये तो दिल भी ज़रा बहले
शहरों में तो हंगामा-ए-तन्हाई बहुत है

लगता है बहुत देर रूकेगी मेरे घर में
इस रात की आँखों में शनाशाई बहुत है
****
2-कहीं गुलाब हूं, और कहीं बबूल में हूं
किसी की याद में हूं और किसी की भूल में हूं

मेरी तलाश में निकले ना क़ाफ़िले वाले
दिखाई दूँगा अभी रास्ते की धुल में हूं

मैं वो दुआँ हूं "अता" जो हरेक लव पर है
बस इतना है, की अरसा-ए-क़बूल में हूं।
***
3-थोडी भी इस तरफ नज़र होनी चाहिए
ये ज़िन्दगी तो मुझसे बशर होनी चाहिए

आए है लोग रात की दहलीज़ फाँद कर
उन के लिए नवेद-ए-सहर होना चाहिए

इस दर्जा पारसाई से घुटने लगा है दम
मैं हूँ बशर ख़ता-ए-बशर होनी चाहिए

वो जानता नही तो बताना फ़ुज़ूल है
उसको मेरे ग़मों की ख़बर होनी चाहिए

मस्जिद से हो रही 'अता' फज्र की अजा
अब तो मेरे नगर में सहर होनी चाहिए
****
4-वो मुझसे दूर सही, दिल के पास रहता है
वो मेरी ज़ात में मिहसल-ए-हवास रहता है

यही कहीं मेरी तक़दीर की गवाही है
यही कही वो सितारा शनास रहता है

मैं बेवफ़ाई पे माईल हूं इन दिनों लेकिन
तेरा ख्याल कहीं आस-पास रहता है
********

5-ख़ुशबुओं का इक नगर आबाद होना चाहिए
इस निज़ाम-ए-ज़र को अब बर्बाद होना चाहिए ..

इन अंधेरों में भी मंजिल तक पहुँच सकते है,हम
जुगनुओं को रास्ता तो याद होना चाहिए ..

ख़्वाहिशों को ख़ूबसूरत शक्ल देने के लिये
ख़्वाहिशों की क़ैद से आज़ाद होना चाहिए..

ज़ुल्म बच्चे जन्म रहा है, कुचा-ओ-बाज़ार में
अदल को भी साहिबे औलाद होना चाहिए...











कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें