अहमद फ़राज़ (1931 - 2008) ..
फैज अहमद फैज के बाद उर्दू के सबसे बड़े और क्रांतिकारी शायर माने जाते हैं।
अहमद फ़राज़ फैज साहब को ही अपना रोल मॉडल मानते थे। फ़राज़ की शायरी आम और खास दोनों के लिए है।
वे पाकिस्तान और भारत दोनों ही देशों के मकबूल शायर हैं। उन्होंने उर्दू और फारसी का अध्ययन किया था और पेशावर युनिवर्सिटी में पढ़ाया भी। वे कहते थे कि मैं भीतरी दबाव होने पर ही लिख पाता हूं। फैज की तरह ही उन्होंने अपना बेहतरीन लेखन देश निकाला के समय ही किया।जिआ उल हक के शासन काल में पाकिस्तानी हुकूमत के खिलाफ लिखने के कारण वे जेल भेजे गये। उन्हें दो बार देश छोड़ के चले जाने का फरमान मिला।वे 6 बरस तक ब्रिटेन, केनडा और यूरोप में भटकते रहे।दूसरी बार देश छोड़ने का किस्सा यूं है कि एक बार वे मंच से अपनी एक नज़्म पढ़ कर नीचे आये। ये नज़्म उस समय की तानाशाही के खिलाफ जाती थी। नीचे आते ही एक पुलिस अधिकारी ने उनसे बेहद विनम्रता से कहा कि आप मेरे साथ चलिये। पुलिस स्टेशन पहुंचने पर उस पुलिस अधिकारी ने कहा – फ़राज़ साहब, मुझे अपने सीनियर आफिसर्स की तरफ से ये हुक्म हुआ है कि मैं आपको दो विकल्प दूं। या तो आपको जेल जाना होगा या फिर शाम की सबसे पहली फ्लाइट से आपको ये मुल्क छोड़ना होगा। आपकी टिकट और वीजा मेरे पास हैं। फ़राज़ साहब को इतना भी वक्त नहीं दिया गया कि वे विकल्पों के बारे में सोच सकें या घर जा कर अपना बोरिया बिस्तर ही ला सकें। उन्होंने अपने मुल्क को विदा कहने में ही खैरियत समझी। उस समय पाकिस्तान में सैनिक शासन चल रहा था।सरकार बदलने पर वे लौटे।तब पहले वे पाकिस्तान एकेडमी ऑफ लेटर्स के अध्यक्ष बनाये गये और फिर पाकिस्तान बुक काउंसिल के अध्यक्ष बनाये गये। जब फ़राज़ साहब को पाकिस्तान बुक काउंसिल का चेयरमैन बनाया गया तो वे पूरे जोशो खरोश के साथ चाहते रहे कि पाकिस्तान और भारत को किताबों के जरिये ही नजदीक लाया जा सकता है। उनकी निगाह में साझी कल्चर, वैश्विक भाईचारा, आपसी समझ और प्यार बढ़ाने में किताबों से बेहतर और कोई तरीका नहीं हो सकता। जिस समय वे पाकिस्तान बुक काउंसिल के चेयरमैन थे तो उस वक्त उन्होंने भारत से दो जहाज भर कर यहां के नामी लेखकों की किताबें मंगवायी थीं। अगर उन्हें थोड़ा और समय मिला होता तो उन्होंने भारत और पाकिस्तान के बीच संबंध बेहतर बनाने के लिए और ठोस काम किया होता। दस बीस जहाज किताबें इधर उधर होतीं। एक बार वे अपने साथ किताबों के कुछ बंडल भारत लाये थे। किताबें देखते ही कस्टम काउंटर पर खड़े अधिकारी की निगाहों में सवालिया निशान नज़र आये।
तभी उस अधिकारी के पीछे खड़े उसके वरिष्ठ अधिकारी ने फ़राज़ साहब को पहचानते हुए कहा – अरे जानते नहीं क्या, ये हमारे देश में भी उतने ही लोकप्रिय शायर हैं जितने कि अपने देश पाकिस्तान में हैं। और वह अधिकारी खुद उन्हें बाहर तक छोड़ने आये।
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दु:ख छुपाये हुए हैं हम दोनों
ज़ख़्म खाये हुए हैं हम दोनों
ऐसा लगता है फिर ज़माने को
याद आये हुए है हम दोनों
तू कभी चाँदनी थी धूप था मै
अब तो साये हुए हैं हम दोनों
जैसे इक दुसरे को पा कर भी
कुछ गँवाये हुए हैं हम दोनों
जैसे इक दुसरे से शर्मिन्दा
सर झुकाए हुए हैं हम दोनों
जैसे इक दुसरे की चाहत को
अब भुलाए हुए हैं हम दोनों
इश्क़ कैसा कहाँ का अहद 'फ़राज़'
घर बसाये हुए हैं हम दोनों
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एक तन्हा फ़ाख़ता उड़ती हुई
इक हिरण की चौकड़ी अच्छी लगी ...
ज़िन्दगी की धुप अंधेरी रात में
याद की इक फुलझड़ी अच्छी लगी ...
शहरे-दिल और इतने लोगों का हुजूम
वो अलग सबसे खड़ी अच्छी लगी ...
एक शहज़ादी मगर दिल की फ़क़ीर
उसको मेरी झोपड़ी अच्छी लगी ....
आंख भी बरसी बहुत बादल के साथ
अब के सावन की झड़ी लगी ...
ये ग़ज़ल मुझको पसंद आई 'फ़राज़'
ये ग़ज़ल उसको बड़ी अच्छी लगी ....
-अहमद फ़राज़
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