प्रेम भंडारी
मेरा हर लम्हा बीता है बिगड़ी बात बनाने में
आधी उम्र कटी झगड़े में आधी उम्र मनाने में
आगज़नी का आया है इल्ज़ाम मुझी पे क्यूं
यारों हाथ जले हैं मेरे तो बस्ती की आग बुझाने में
शिक़वे शिक़ायत प्यार महोब्बत सामने हो तो अच्छा है
देर बहोत लगती है युं भी ख़त के आने जाने में
बादल ही का काम नहीं था पांवों के छाले भी थे
तुम चाहे मानो न मानो रेत की प्यास बुझाने में
दूर के पत्थर मोती हैं. मुठ्ठी के मोती हैं पत्थर
बस इक फ़र्क़ यही देखा है पाने और गंवाने में.
-प्रेम भंडारी
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बस्ती में क़त्ले आम की कोशिश न बन सका
मैं क़ातिलों के ज़हन की साज़िश न बन सका
कोई कमी न उसमें थी शायद इसलिए
वो शख़्स मेरे वास्ते ख़्वाहिश न बन सका
जैसा भी सीधा सादा था सब मेरा अपना था
मै उसकी ख़्वाहिशों की नुमाईश न बन सका
हक़ छीन ले गये हैं सब कुछ मेरा क़बाईली
मेरा ही इल्म मेरी सिफ़ारिश न बन सका
मैं रूक नही सका तो मेरी बेबसी थी ये
बादल था उसकी छत पे मैं बारिश न बन सका
डा. प्रेम भंडारी
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