शुक्रवार, 4 मार्च 2016

प्रेम भंडारी

मेरा हर लम्हा बीता है बिगड़ी बात बनाने में 
आधी उम्र कटी झगड़े में आधी उम्र मनाने में 

आगज़नी का आया है इल्ज़ाम मुझी पे क्यूं 
यारों हाथ जले हैं मेरे तो बस्ती की आग बुझाने में 

शिक़वे शिक़ायत प्यार महोब्बत  सामने हो तो अच्छा है
देर बहोत लगती है युं भी ख़त के आने जाने में 

बादल ही का काम नहीं था पांवों के छाले भी थे 
तुम चाहे मानो न मानो रेत की प्यास बुझाने में 

दूर के पत्थर मोती हैं. मुठ्ठी के मोती हैं पत्थर 
बस इक फ़र्क़ यही देखा है पाने और गंवाने में. 

-प्रेम भंडारी
---------------
बस्ती में क़त्ले आम की कोशिश न बन सका
मैं क़ातिलों के ज़हन की साज़िश न बन सका

कोई  कमी न उसमें थी शायद इसलिए
वो शख़्स मेरे वास्ते ख़्वाहिश न बन सका

जैसा भी सीधा सादा था सब मेरा अपना था
मै उसकी ख़्वाहिशों की नुमाईश न बन सका

हक़ छीन ले गये हैं सब कुछ मेरा क़बाईली
मेरा ही इल्म मेरी सिफ़ारिश न बन सका

मैं  रूक  नही  सका  तो  मेरी  बेबसी  थी  ये
बादल था उसकी छत पे मैं बारिश न बन सका

डा. प्रेम भंडारी 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें