शुक्रवार, 4 मार्च 2016

साग़र सिद्दीक़ी की ग़ज़ल

चिराग़-ए-तूर जलाओ ! बड़ा अंधेरा है
ज़रा निक़ाब उठाओ ! बड़ा अंधेरा है

अभी तो सुबह के माथे का रंग काला है
अभी फ़रेब ना खाओ ! बड़ा अंधेरा है

वो जिन के होते हैं ख़ुरशीद आस्तीनों में
उन्हें कहीं से बुलाओ ! बड़ा अंधेरा है

मुझे तुम्हारी निगाहों पे एतिमाद नहीं
मेरे क़रीब ना आओ ! बड़ा अंधेरा है

फ़राज़-ए-अर्श से टूटा हुआ कोई तारा
कहीं से ढूंढ के लाओ बड़ा अंधेरा है

बसीरतों पे उजालों का ख़ौफ़ तारी
मुझे यक़ीन दिलाओ ! बड़ा अंधेरा है

जिसे ज़बान-ए-ख़िरद में शराब कहते हैं
वो रोशनी सी पिलाव ! बड़ा अंधेरा है

बनाम-ए-ज़ुहरा जबीना न-ए-ख़ता-ए-फ़िर्दोस
किसी करण को जगाओ ! बड़ा अंधेरा है


अब बशीर बद्र क्या कहते है .....

हमारे पास तो आओ, बड़ा अंधेरा है
कहीं न छोड़ के जाओ, बड़ा अंधेरा है

उदास कर गए बेसाख़ता लतीफे भी
अब आँसूओं से रुलाओ , बड़ा अंधेरा है

कोई सितारा नहीं पत्थरों की पलकों पर
कोई चिराग़ जलाओ, बड़ा अंधेरा है

हक़ीक़तों में ज़माने बहुत गुज़ार चुके
कोई कहानी सुनाओ , बड़ा अंधेरा है

किताबें कैसी उठा लाए मैकदे वाले
ग़ज़ल के जाम उठाओ , बड़ा अंधेरा है

ग़ज़ल में जिस की हमेशा चिराग़ जलते हैं
उसे कहीं से बुलाओ , बड़ा अंधेरा है

वो चांदनी की बशारत है हर्फ़-ए-आख़िर तक
बशीर बदर को लाओ , बड़ा अंधेरा है 

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फ़िराक़ 

सकूत-ए-शाम मिटाओ बहुत अंधेरा है 
सुख़न की शमा जलाओ बहुत अंधेरा है 

दयार-ए-ग़म में दिल-ए-बेक़रार छूट गया 
सम्भल के ढूँढ़ने जाओ बहुत अंधेरा है 

ये रात वो कि सूझे जहाँ न हाथ को हाथ 
ख़यालों दूर न जाओ बहुत अंधेरा है 

लटों को चेहरे पे डाले वो सो रहा है कहीं 
ज़या-ए-रुख़ को चुराओ बहुत अंधेरा है 

हवा-ए-नीम शबी हों कि चादर-ए-अंजुम 
नक़ाब रुख़ से उठाओ बहुत अंधेरा है 

शब-ए-सियाह में गुम हो गई है राह-ए-हयात 
क़दम सम्भल के उठाओ बहुत अंधेरा है 

गुज़श्ता अह्द की यादों को फिर करो ताज़ा 
बुझे चिराग़ जलाओ बहुत अंधेरा है 

थी एक उचकती हुई नींद ज़िंदगी उसकी 
'फ़िराख़' को न जगाओ बहुत अंधेरा है
7.

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