मुहाजिरनामा
वो 'देहली'और उसका 'लाल क़िलआ' छोड़ आए हैं
'अज़ीमाबादी' की आँखें अभी तक लाल रहती है
हम उन आँखों को चलते वक़्त रोता छोड़ आए है
वो लीची से लदे पड़ों का ख़ामोशी से मुँह तकना
'मुज़फ़्फ़र' हम तुझको अकेला छोड़ आए है
'बनारस' याद करता है अभी तक जाने वालों को
बनारस ऐ बनारस तुझको हम क्या छोड़ आए हैं
सिखाते थे जहाँ बुंदू मियाँ हर शाम को कुश्ती
हम इतने ख़ुद-ग़रज़ हैं वो अखाड़ा छोड़ आए है
जहाँ की खाक़ मलकर जिस्म को लोहा बनाते थे
वो 'झाँसी' छोड़ आए हैं वो 'दतिया' छोड़ आए है
हमें 'भोपाल' छोड़ आने का इतना ग़म नहीं होता
मगर सब ताल छूटे हर तलैया छोड़ आए है
ग़ुज़र औक़ात को मिल जाये तो कुछ भी ग़नीमत है
मगर 'दिल्ली' में असली रूह-अफ़्जा छोड़ आए है
'अलीगढ़' में जो बीते थे वही तो क़ीमती दिन थे
नुमाइशगाह में यादों का मेला छोड़ आए है
'अलीगढ़' की वो 'दानिशगाह' और वो चाय का होटल
वो मक्तब छोड़ आए हैं, ठिकाना छोड़ आए है
जिसे लिक्खा गया था आँसुओं की रौशनाई से
मजाज़े-बेनवा का वो तराना छोड़ आए है
जुड़ी रहती हैं यादों से बहुत सी और भी यादें
'बनारस' हम सिवइयाँ और लच्छा छोड़ आए है
गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब
'इलाहाबाद' में कैसा नज़ारा छोड़ आए है
कहीं ननिहाल थी अपनी कहीं ददियाल था अपना
वो मुंशीगंज भांव और कचौदा छोड़ आए हैं
अवध को ख़्वाब में देखें तो आख़िर किस तरह देखें
मलीहाबाद-काकोरी-सण्डीला छोड़ आए हैं
हमें सूरज की किरनें इसलिए तकलीफ़ देती हैं
अवध की शाम काशी का सँवरे छोड़ आए हैं
कराची तेरी ख़ातिर मुम्बई भी रह गयी पीछे
तेरी चाहत में पूना और खंडाला छोड़ आए है
रियासत टोंक से मिस्ले-मुहाजिर हम चले आए
गुलाबी शहर को छोड़ा है कोटा छोड़ आए है
गुलाबों की भरी फ़स्ले अभी तक मुंतज़िर होंगी
सिकंदरपुर, ग़ाज़ीपीर, बलिया छोड़ आए है
यहाँ किसको बताये कौन है जो इसको समझेगा
कि हम सम्भल का तहज़ीबी इलाक़ा छोड़ आए है
कहाँ की भूख कैसी प्यास कैसा होश में रहना
किसी के हाथ में शरबत का प्याला छोड़ आए है
हमेशा की तरह पंजाब की ज़द में चला आया
जिसे दोनों तरफ़ से करके छोटा छोड़ आए हैं
इलाहाबाद छोड़ आने का अब तक रंज होता हैं
वहाँ की बेग़रज़ चाहत को बेजा छोड़ आए हैं
कल इक अमरूद वाले से ये कहना पड़ गया हमको
जहाँ से आए हैं इस फल की बगिया छोड़ आए हैं
वो हैरत से हमें तकता रहा कुछ देर, फिर बोलो
वो संगम का इलाक़ा छूट गया या छोड़ आए हैं
अभी हम सोच में गुम थे कि उससे क्या कहा जाए
हमारे आँसुओं ने राज उगला छोड़ आए हैं
कराची का ये हलवा बम्बई में भी तो मिलता था
तो फिर क्यों मुम्बई को हम सिसकता छोड़ आए है
अभी तक हमको अपने मालवा की याद आती है
जहाँ का ज़ाइक़ा छूटा है पोहा छोड़ आए है
यहाँ तक आते-आते अजनबी होती गयी खुशबू
दसहरी भी वहीं छूटी सफ़ेदी छोड़ आए है
यूँही सावन बरसता था यूँही बिजली चमकती थी
इसी मौसम में हम आमों की बगिया छोड़ आए है
हरे क़ालीन सी वो घास जिस पर सोए थे अक़्सर
यहाँ आते हुए हम वो बिछौना छोड़ आए है
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