परवीन शाकिर
हर्फ़-ए-ताजा नई ख़ुशबू में लिखा चाहता है
बाब इक और मोहब्बत का खुला चाहता है
एक लम्हें की तवज्जोह नहीं हासिल उस की
और ये दिल के उसे हद से सिवा चाहता है
इक हिज़ाब-ए-तह-ए इकरार है माने वरना
गुल को मालूम है,क्या दस्त-ए-सबा चाहता है
रेत ही रेत है इस दिल में मुसाफ़िर मेरे
और ये सहरा तेरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा चाहता है
यही ख़ामोशी कई रंग में ज़ाहिर होगी
और कुछ रोज़ के वो शोख़ खुला चाहता है
रात को मान लिया दिल ने मुक़द्दर लेकिन
रात के हाथ पे अब कोई दीया चाहता है
तेरे पैमाने में गर्दिश नही बाक़ी शाकी
और तेरी बज़्म से अब कोई उठा चाहता है
परवीन शाकिर
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इक शख्स को सोचती रही मैं
फिर आइना देखने लगी मैं
उस की तरह अपना नाम लेकर
ख़ुद को भी लगी नयी नयी मैं
तू मेरे बिना न रह सका तो
कब तेरे बगैर जी सकी मैं
आती रहे अब कहीं से आवाज़
अब तो तेरे पास आ गयी मैं
दामन था तेरा के मेरा माथा
सब दाग मिटा चुकी मैं
फिर आइना देखने लगी मैं
उस की तरह अपना नाम लेकर
ख़ुद को भी लगी नयी नयी मैं
तू मेरे बिना न रह सका तो
कब तेरे बगैर जी सकी मैं
आती रहे अब कहीं से आवाज़
अब तो तेरे पास आ गयी मैं
दामन था तेरा के मेरा माथा
सब दाग मिटा चुकी मैं
-परवीन शाकिर
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शाम आयी तेरी यादों के सितारे निकले
रंग ही ग़म के नहीं नक़्श भी प्यारे निकले
रंग ही ग़म के नहीं नक़्श भी प्यारे निकले
रक्स जिनका हमें साहिल से बहा लाया
वो भँवर आँख तक आये तो क़िनारे निकले
वो तो जाँ ले के भी वैसा ही सुबक-नाम रहा
इश्क़ के बाद में सब जुर्म हमारे निकल
इश्क़ के बाद में सब जुर्म हमारे निकल
इश्क़ दरिया है जो तैरे वो तिहेदस्त रहे
वो जो डूबे थे किसी और क़िनारे निकले
धूप की रुत में कोई छाँव उगाता कैसे
शाख़ फूटी थी कि हमसायों में आरे निकले
शाख़ फूटी थी कि हमसायों में आरे निकले
सुबक-नाम = जिसका नाम न लिया जाये; तिहेदस्त= खाली हाथ
-परवीन शाकिर
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चलने का होसला नहीं, रुकना मुहाल कर दिया
इश्क के इस सफ़र ने तो मुझको निढाल कर दिया
मिलते हुए दिलो के बीच और था फैसला कोई
उसने मगर बिछड़ते वक़्त और सवाल कर दिया
ए मेरे गुल ज़मीन तुझे चाह थी एक किताब की
अहले किताब ने मगर क्या तेरा हाल कर दिया
अब के हवा के साथ है दामन-ए-यार मुन्तजिर
बनो-ए-शब् के हाथ में रखना संभाल कर दिया
मुमकिन फैसलों में एक हिज्र का फैसला भी था
हम ने तो एक बात की उस ने कमाल कर दिया
मेरे लबो पर मोहर थे, पर मेरे शीशा रूह ने तो
शहर के शहर को मेरा वक्फ़-ए-हाल हाल कर दिया
चेहरा ओ नाम एक साथ आज न याद आ सके
वक़्त ने किस शबीह को खवाब-ओ-ख्याल कर दिया
की मुद्दतो बाद उसने आज मुझ से कोई गिला किया
मंसब-ए-दिलबरी पे क्या क्या मुझ को बहाल कर दिया
परवीन शाकिर
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