शुक्रवार, 4 मार्च 2016

यूँ भी तिरा एहसान है आने के लिए आ
ऐ दोस्त किसी रोज़ न जाने के लिए आ

हर-चंद नही  शौक़  को  यारा-ए-तमशाह
ख़ुद को न सही मुझ को दिखाने के लिए आ

ये उम्र, ये बरसात, ये भीगी हुई रातें
इन रातों को अफ़साना बनाने के लिए आ

जैसे तुझे आते हैं न आने के बहाने, 
ऐसे ही बहानें से न जाने के लिए आ

माना की मोहब्बत का छुपाना है मोहब्बत,
चुपके से किसी रोज़ जताने के लिए आ 

तक़दीर भी मजबूर है, तदबीर भी मजबूर है
इन कोहना अक़ीदे को मिटाने के लिए आ

आरिज़ पे शफ़क़, दामन-ए-मिज़्गाँ में सितारे
यूँ  इश्क  की  तौक़ीर  बढ़ाने  के  लिए  आ

"तालिब" को ये क्या इल्म, करम है कि सितम है
जाने  कि  लिए  रूठ,  मनाने  के  लिए  आ

-तालिब बाग़पती

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