शुक्रवार, 4 मार्च 2016

अहमद फ़राज़ साहब के कुछ शे'रव

हर एक इश्क़ के बाद और उसके इश्क़ के बाद
'फ़राज़'  इतना  भी  आसां न  था सँभल जाना
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जिस तरह सानिह गुज़रे हैं तेरी जाँ पे 'फ़राज़'
उसको देखें तो ये आशुफ़्ता-बयानी कम है
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जब उसको था मान ख़ुद पे क्या-क्या
तब हम भी 'फ़राज़' क्या नहीं थे
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उदू  के  सामने  हथियार  डालने  वाला
कोई 'फ़राज़' सा काफ़िर नहीं था ग़ाजी था
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कितने ख़ुश हो  'फ़राज़' असीरी पर
और ये बन्दे-ग़म अगर न खुले?
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आओ रो लें 'फ़राज़' दुनिया को
ख़ुश दिले-नामुराद हो कुछ तो
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शायद कि  'फ़राज़' आज किसी रूप नगर से
आई है क़ज़ा भेस बदल कर मेरे आगे
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दोस्ती अपनी जगह,पर ये हक़ीक़त है 'फ़राज़'
तेरी ग़ज़लों से कहीं तेरा ग़िज़ाल  अच्छा है
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तू ब-ज़िद है तो जा  'फ़राज़' मगर
वापसी उस गली से मुश्किल है
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 'फ़राज़' तुझको ख़ुदावन्द मानता है, उसे 
दायरे-इश्क़ में अपना रसूल कप जानांँ
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 'फ़राज़' इतना न इतरा हौसले पर
उसे भूले ज़माने हो गए क्या?
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 'फ़राज़' दाद के क़ाबिल है जुस्तुजु उनकी
जो हमसे दर-बंदरों को तलाश करते है
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 'फ़राज़' ने तुझे देखा तो किस क़दर ख़ुश था
फिर उसके बाद चली वो हवा उदासी की
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अबके 'फ़राज़' वो हुआ जिसका न था गुमान तक
पहली  सी  दोस्ती  तो  क्या ख़त्म है बोल चाल भी
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अब तो ये आरज़ू है कि वो ज़ख़्म खाइये
ता-ज़िन्दगी ये दिल न कोई आरज़ू करे...
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उस शहरे-तमन्ना से 'फ़राज़' आये ही क्यों थे
ये हाल अगर था तो ठहरते कोई दिन और 
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किस चाहत से ज़हरे-तमन्ना माँगा था
और अब हाथों में साग़र अफ़सोस का है 
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हाय वो सुबहे-तमन्ना कि न देखोगे 'फ़राज़'
हाय उन शम्ओं की क़िस्मत कि जलाये तुम हो
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बस इक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का
सो रहरवाने-तमन्ना भी डर के देखते हैं
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अबके जिस दश्ते-तमन्ना में क़दम रक्खा है
दिल तो क्या चीज़ है इम्काँ है कि सर भी जाये
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ग़म वो सहरा-ए-तमन्ना कि बगूले की तरह
जिसको मंज़िल न मिली उसको बिखर जाना है
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मेरी तन्हा-सफ़री मेरा मुक़द्दर थी 'फ़राज़'
वरना इस शहरे-तमन्ना से तो दुनिया गुज़री

-फ़राज़

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